लोद्रवा दुर्ग अब अस्तित्व में नहीं है किंतु मरुस्थल के इतिहास की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण दुर्ग था। यह दुर्ग मूलतः प्रतिहारों द्वारा निर्मित था। प्रतिहारों की लोद्रवा शाखा इस दुर्ग पर शासन करती थी। नौवीं शताब्दी ईस्वी में यह दुर्ग भाटियों के हाथों में चला गया।
जब आठवीं शताब्दी ईस्वी में राव तन्नूजी भाटी, तन्नोट दुर्ग में, वाराहों के विरुद्ध साका करता हुआ रणखेत रहा, तब उसका पौत्र देवराज पहले पुष्करणा ब्राह्मण के घर में और बाद में अपने मामा के घर में पलकर बड़ा हुआ। कहा जाता है कि देवराज भाटी ने योगी रतननाथ से छल करके उससे पारस रस का पात्र प्राप्त कर लिया। बाद में उसने योगी रतननाथ को प्रसन्न कर लिया। योगी की कृपा से देवराज को धन, सेना, गढ़ तथा राज्य की प्राप्ति हुई।
देवराज ने अपने मामा तथा उसके सरदारों की हत्या कर दी और वहाँ से प्राप्त धनराशि से देवरावल (देरावर) गढ़ का निर्माण किया। अब यह दुर्ग पाकिस्तान के सिंध प्रांत में है। देवराज ने अपने बाप-दादा के हत्यारों और राज्य भक्षक वराहों के राजा को भी मार डाला तथा भटिण्डा में भयंकर मारकाट मचाई।
जब वह अपने ससुराल की गर्भवती महिलाओं को भी मारने लगा तो उसकी सास ने उसे ऐसा करने से रोका। इस प्रकार देवरावल, भाटियों की तीसरी राजधानी बनी किन्तु जब देवराज परिहारों के विरुद्ध अभियान पर गया तो पीछे से उसके भांजे ने देवरावल दुर्ग पर अधिकार कर लिया। देवरावल को असुरक्षित जानकर देवराज ने लोद्रवा के परिहार शासक जसभाण पर आक्रमण करके लोद्रवा का दुर्ग छीन लिया तथा अपनी नई राजधानी लोद्रवा की नींव डाली जो भाटियों की चौथी राजधानी कही जाती है।
साठ वर्ष की आयु में देवराज को चन्ना नामक बलोच ने छल से मार डाला। देवराज ने गुजरात से पंजाब तथा गजनी से कालीबंगा तक अपने राज्य का विस्तार किया जिसे ‘वल्ल राज्य’ के नाम से जाना जाता है। उसने भटनेर दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा इतिहास के नेपथ्य में चले गये भाटियों को पुनः सत्ता और शक्ति का केन्द्र बनाया। देवराज का समय नौवीं शताब्दी ईस्वी का है। जोधपुर जिले के बाउक से मिले वि.सं. 894 (ई.837) के शिलालेख में देवराज के पराक्रम का उल्लेख किया गया है।
देवराज के बाद उसका पुत्र मंध, मंध के बाद बछराज और उसके बाद दूसाजी लोद्रवा की गद्दी पर बैठे। दूसाजी ने अपने कनिष्ठ पुत्र विजयराज (द्वितीय) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया तथा ज्येष्ठ पुत्र जयशाल को तन्नोट एवं नोसेरा का हाकिम नियुक्त किया। महारावल विजयराज (द्वितीय) ने परम भट्टारक परमेश्वर की उपाधि धारण की। यह उपाधि गुप्त शासकों द्वारा धारण की जाती थी।
गुप्तों से यह उपाधि प्रतिहारों ने, प्रतिहारों से परमारों (पंवारो) ने तथा पंवारों से भाटियों ने छीनी। विजयराज (द्वितीय) ने गुजरात के चौलुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज की कन्या से विवाह किया।
जब विजयराज विवाह के लिये पाटण गया तो उसकी सास ने उसका तिलक करते हुए कहा- ‘हे वत्स! हमारे राज्य के उत्तरी प्रदेश के राजा हमारे प्रदेश की भूमि हड़प रहे हैं, उनसे हमारी रक्षा कीजिये।’
उस समय उपस्थित राजाओं ने महारानी की यह प्रार्थना सुनकर कुमार विजयराज को ‘उत्तर भड़ किंवाड़ भाटी’ की उपाधि दी जिसका अर्था होता हैं-‘उत्तरी सीमा से आने वाले शत्रुओं से भारत की रक्षा करने वाला दरवाजा।’ ई.1025 में जब महमूद गजनवी सोमनाथ आक्रमण के लिये गजनी से गुजरात आया, तब मार्ग में उसने लोद्रवा पर भी आक्रमण किया।
ज्येष्ठ राजकुमार जयशाल को अपने पिता दूसाजी द्वारा कनिष्ठ राजकुमार विजयराज को लोद्रवा का शासक बनाया जाना अच्छा नहीं लगा और वह रुष्ट होकर नगरथट्टे के बादशाह शहाबुद्दीन गोरी के पास जाकर रहने लगा।
बिजयराज लांझा ई.1122-47 तक लोद्रवा का शासक था। विजयराज के बाद उसका पुत्र भोजदेव लोद्रवा की गद्दी पर बैठा। ई.1155 में भोजदेव के ताऊ जयशाल ने लोद्रवा पर आक्रमण करके अपने भतीजे भोजदेव को मार डाला। ई.1178 में मुहम्मद गौरी ने लोद्रवा पर आक्रमण किया। इसके बाद लोद्रवा का महत्व हमेशा के लिये समाप्त हो गया। अब लोद्रवा दुर्ग के खण्डहर भी देखने को नहीं मिलते हैं।