ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटक न केवल राजस्थान के लिए गौरव पूर्ण साहित्य हैं अपितु समस्त संस्कृत वांगमय के लिए एक सुंदर आभूषण के समान हैं। इन नाटकों में काव्य-सौंदर्य की सृष्टि के लिए संस्कृत साहित्य की उच्च परम्पराओं का युक्ति-युक्त उपयोग हुआ है। ये नाटक उपमा की दृष्टि से कालिदास के काव्य के समकक्ष हैं, अर्थ-गौरव की दृष्टि से भारवि के काव्य के सदृश्य हैं तथा पदलालित्य की दृष्ट से दण्डि के संस्कृत काव्य के समकक्ष हैं।
ललित विग्रहराज का आशय एक ऐसे सुंदर नाटक से है जो अजमेर के 12वीं शताब्दी ईस्वी के चौहान शासक विग्रहराज (चतुर्थ) के सम्बन्ध में लिखा गया है जिसे इतिहास में वीसल देव भी कहा गया है।
हरकेलि का आशय एक ऐसे नाटक से है जो भगवान शिव की क्रीड़ा (लीला) का वर्णन करता है। भगवान शिव की इस लीला का वर्णन अनेक पुराणों एवं महाभारत आदि संस्कृत ग्रंथों में भी हुआ है।
ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटक बारहवीं शताब्दी ईस्वी में अजमेर में लिखे गए। दोनों नाटक मुख्यतः संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि में हैं तथा इन नाटकों में उस काल में प्रचलित प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, कर्नाटकी तथा महाराष्ट्री भाषाओं का भी प्रयोग हुआ है।
ये दोनों नाटक पत्थर की चौकियों पर उत्कीर्ण शिलालेखों के रूप में पाए गए हैं तथा किसी कागज, भोजपत्र अथवा ताड़पत्र पर लिखे हुए नहीं मिले हैं। पत्थर के ये चौके अजमेर के राजकीय संग्रहालय में संग्रहीत हैं।
ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटक चौहान कालीन एक संस्कृत पाठशाला एवं हिन्दू मंदिर से मिले हैं जिसे मुसलमानों ने मस्जिद बना दिया। मस्जिद पर लगने वाले ढाई दिन के उर्स के कारण इस भवन को ढाई दिन का झौंपड़ा कहा जाने लगा। संस्कृत के विद्वान डॉ. कृष्णमाचारी ने अपनी रचनाओं में ललित विग्रहराज का उल्लेख किया है। सुभाषितावली में भी राजा विग्रहाराज देव का एक छन्द उद्धृत किया गया है। [1]
ललित विग्रहराज नाटक
काले पत्थर की शिलाओं पर देवनागरी लिपि एवं संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं में में लिखे गए 4 फलकों में से 2 फलकों पर ललित विग्रहराज नाटक उत्कीर्ण है, जो चाहमान राजा विग्रहराज (चतुर्थ) के सम्मान में उसके आश्रित कवि सोमदेव द्वारा रचा गया था। प्रथम फलक में 37 पंक्तियां हैं। 1 से 18 तथा 21 से 32 तक की पंक्तियां पर्याप्त सुरक्षित एवं पठनीय अवस्था में हैं। प्रथम पंक्तियां कुछ अस्पष्ट हैं। 33 से 36 तक की पंक्तियों में कुछ अक्षर छूटे होने के कारण वाक्य अपूर्ण हैं।
नाटक शशिप्रभा तथा राजा विग्रहदेव के परस्पर वार्त्तालाप से आरम्भ होता है। डा. कीलहोर्न का अनुमान है कि राजा विग्रहराज वसन्त-पाल की पुत्री देसल देवी के प्रति आसक्त था।[2] लेख की 20वीं पंक्ति से विदित है कि यह राजकुमारी उत्तर में इन्द्रपुर अथवा उसके आस-पास रहती थी। दो प्रेमियों को स्वप्न में पृथक होते देखकर नायिका अपनी विश्वासपात्र सखी शशिप्रभा को राजा के विचार जानने के लिए भेजती है और प्रेम की सीमा से अवगत हो ज्यों ही शशिप्रभा अपनी सखी को उसके अभीष्ट को अभिव्यक्त करने हेतु जाना चाहती है तो राजा शशिप्रभा से पृथक् न होने की इच्छा प्रकट करता है और उसके पर स्थान कल्याणवती को राजकुमारी के पास भेजने को कहता है।
राजा ने कल्याणवती के माध्यम से भिजवाए गए प्रेम संदेश में नायिका को निकट भविष्य में तुरुष्क आक्रांताओं के विरुद्ध होने वाले युद्ध अभियान में राजकुमारी को सम्मिलत होने का निमंत्रण दिया। राजा विग्रहराज दासी शशिप्रभा के लिए सुखपूर्वक आवास का प्रबन्ध करता है तथा उसके पश्चात् मध्यान्ह कालीन कार्यक्रमों के लिए चला जाता है। यहीं तृतीय अंक समाप्त हो जाता है।
चतुर्थ अंक के आरम्भ में दो तुरुष्क कारावासी सम्मुख आते हैं जो शाही आवास की खोज करते-करते विग्रहराज का शाकम्भरी में या आस-पास शिविर लगा होना सूचित करते हैं। इसी ऊहापोह में सौभाग्य से वे तुरुष्क आक्रांता द्वारा भेजे गए षड़यंत्रकारी से मिलते हैं। वह बताता है कि उसने भिक्षुक का वेष धरकर, राजा सोमेश्वर के दर्शन हेतु आए जन-समुदाय के साथ राजा के शिविर में प्रवेश किया।
तुरुष्क षड़यंत्रकारी यह भी बताता है कि चाहमान विग्रहराज की सेना में एक सहस्र हाथी, एक लक्ष घोड़े तथा दस लाख पदाति हैं। इतनी बड़ी सेना निश्चय ही एक बार में समुद्र का जल भी सुखा दे। राजा के शिविर को बतलाकर वह चला जाता है। तदनन्तर दोनों बन्दी, राजा के शिविर तक पहुंचकर राजा से मिलते हैं जो अपनी प्रिया के सम्बन्ध में सोच रहे थे। वे काव्यगत छन्दों में राजा को कुछ निवेदन करते हैं। (ये छन्द प्रस्तर में बहुत खराब हो गए हैं।) बन्दी राजा से पर्याप्त पुरस्कार पाते हैं।
विग्रहराज अपने द्वारा हम्मीर[3] के शिविर में भेजे गए षड़यन्त्रकारी दूत के अभी तक वापिस लौट कर न आने से चिंतित होते हैं। किन्तु उसी समय दूत वापिस आ जाता है और अपने स्वामी को शत्रु की सेना तथा उनकी गतिविधि के विषय में जो कुछ जान सका, उसे व्यक्त करता है। दूत कहता है कि हम्मीर की सेना में अगणित हाथी, रथ, तुरंग और पैदल सेना है और उसका शिविर भी सर्वथा सुरक्षित है। पिछले दिन यह सेना वव्वेरण, जिस स्थान पर विग्रहराज था, से तीन योजन दूर थी किंतु आज केवल एक योजन दूर है। यह भी ज्ञात हुआ है कि हम्मीर सेना की पूरी तैयारी करके आया है और वह राजा विग्रहराज को युद्ध का आह्वान भिजवाने वाला है।
दूत के चले जाने पर राजा विग्रहराज ने अपने ममेरे भाई राजा सिंहबल तथा प्रधान अमात्य श्रीधर को बुलाता है। राजा उन्हें परिस्थिति से परिचित कराता है तथा उनसे पूछता है कि क्या करना चाहिए! चतुर मंत्री शक्तिशाली शत्रु से युद्ध न करने तथा शांतिपूर्ण संधि करने की मंत्रणा देता है किंतु राजा अपने मित्र राजा की रक्षा एवं सहायता करने तथा कर्त्तव्य की दृष्टि से संधि करने के विचार को अस्वीकृत कर देता है। इस पर सिंहबल राजा को उसकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए उत्साहित करता है।
इस मंत्रणा के समय ही हम्मीर के संदेशवाहक के आने का समाचार मिलता है। संदेशवाहक भीतर आकर राजा को देखता है तथा वह राजा की कान्ति एवं शक्तिचिन्हों को देखकर चकित हो जाता है। वह जिस कार्य के लिए यहाँ भेजा गया था, उसे करने में असमर्थ सा अनुभव करता है। यह विवरण यहीं समाप्त हो जाता है।
लेख के अंशों से ऐसा विदित होता है कि विग्रहराज तथा हम्मीर वर्तमान परिस्थिति में आपस में नहीं लड़े और राजा विलास में लीन रहा किंतु दिल्ली में लगे सिवालिक लेख के अनुसार वीसलदेव अर्थात् विग्रहराज (चतुर्थ) ने यथार्थ में तुर्क आक्रांताओं से युद्ध किया और उन्हें परास्त करके भारत से बाहर निकाल दिया। अनुमान होता है कि इस युद्ध का वर्णन आगे के प्रस्तर फलकों में रहा होगा किंतु ये फलक प्राप्त नहीं हुए हैं।
हरकेलि नाटक
तृतीय तथा चतुर्थ प्रस्तर पर ‘हरकेलि’ नाटक के अंश उत्कीर्ण हैं। नाटक में छठी शताब्दी के महाकवि भारवि कृत ‘किरातार्जुनीयम्’ का अनुकरण किया गया प्रतीत होता है। तृतीय फलक में नाटक के पंचम अंक का अन्तिम अंश ‘क्रौंच-विजय’ वर्णित है। 32, 35, 37 तथा 40 वीं पंक्ति से हरकेलि नाटक का शाकंभरी के महाराजाधिराज परमेश्वर विग्रहराज द्वारा रचे जाने का स्पष्ट भान हो जाता है। नाटक की तिथि संवत् 1210 मार्ग सुदी 5 आदित्य दिने सर्वरण नक्षत्रे मकरस्थे चन्द्र हर्षणयोगे वालाव कर्णे हरकेलिनाटकम् तदनुसार रविवार 22 नवम्बर 1153 है।
यह नाटक शिव-पार्वती वार्त्ता तथा विदूषक-प्रतिहार वार्त्ता से प्रारम्भ होता है। जैसा कि खंडित भाग से ज्ञात होता है, यहाँ रावण द्वारा शिव की उपासना की गई है। शिव अथवा उनके गण शबर अर्थात् जंगलों में घूमने वालों के रूप में सम्मुख आते हैं। मनोहर सुगन्धि तथा यज्ञ करते हुए कुछ व्यक्तियों को देखकर शिव ने अपने गण मूक को इसका कारण जानने के लिए भेजा। मूक ने लौट कर बतलाया कि अर्जुन एक यज्ञ कर रहे हैं।
शिव ने अर्जुन के पास किरात का रूप धारण करके जाने के लिए गण को आदेश दिया तथा शिव के आने की प्रतीक्षा करने को कहा। गण के जाने के बाद शिव अपनी दिव्य दृष्टि से देखते हैं कि मूक और अर्जुन आपस में लड़ रहे हैं। शिव अपने गण की सहायता के लिए किरात के रूप में आते हैं। अर्जुन तथा शिव के बीच भयंकर युद्ध होता है। शिव का एक प्रतिहार माता गौरी को इस युद्ध की सूचना देता है। शिव अपने प्रतिद्वन्द्वी की शक्ति से प्रसन्न होते हैं तथा युद्ध का अन्त होता है। कथानक तथा काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से यह नाटक कवि भारवि की काव्यशैली से प्रभावित है।
युद्ध समाप्त होने पर शिव और गौरी पाण्डुपुत्र अर्जुन के सम्मुख अपने वास्तविक वेष में प्रकट होते हैं। अर्जुन शिव को अनजाने में पहुंचाए गए कष्ट एवं हानि के लिए क्षमा याचना करता है तथा शिव को परमेश्वर जगन्नियन्ता कहकर उनकी स्तुति करता है। शिव अर्जुन को पाशुपात शस्त्र भेंट करते हैं। इसके बाद शिव गौरी से कहते हैं कि कवि विग्रहराज ने अपने हरकेलि नाटक से मुझे इतना प्रसन्न कर दिया है कि मैं स्वयं जाकर उस नाटक को देखूंगा। शिव ने विग्रहराज की यशःपताका काव्यजगत् में चिरकाल तक बने रहने का आशीष देते हैं तथा उसे शाकंभरी का राज्य करने के लिए पुनः वापिस भेज देते हैं। शिव तथा उनके गण कैलाश पर्वत को वापस लौट जाते हैं। चतुर्थ फलक में नाटक के द्वितीय एवं तृतीय अंक उत्कीर्ण हैं। लिखावट पर्याप्त सुरक्षित हैं।
शिलांकित नाटक में शार्दुल विक्रीड़ित, वसन्ततिलका, शिखरिणी, स्प्रधरा, अनुष्टुप् पुष्पिताग्रा, हरिणी और मदाक्रान्ता आदि छन्दों का समवेत रूप से प्रयोग होने से कवि की प्रतिभा परिलक्षित होती है। लेख में प्रयुक्त प्राकृत बोली में साधारण शौरसेनी के अतिरिक्त शशिप्रभा द्वारा आर्य छन्दों में महाराष्ट्री का प्रयोग किया गया है। बन्दी तथा तुरुष्क गुप्तचर द्वारा मागधी प्रयुक्त की गई है। नाटक में जिन पात्रों द्वारा जो-जो प्राकृत बोलियां बुलवाई गई हैं वे हेमचन्द्र द्वारा निर्धारित नियमों के अधिक निकट होने से पर्याप्त रुचिकर हैं।
प्रस्तरांकित नाटक महीपति के पुत्र तथा गोविन्द (राजा भोज के परम प्रियजन) के प्रपौत्र भास्कर द्वारा उत्कीर्ण किया गया है जो भारत में नियुक्त हुए सेनापति के परिवार से सम्बन्धित हैं। नाटक संस्कृत भाषा तथा अनेक प्राकृत बोलियों से युक्त है।
ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटकों की महत्ता
(1) ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटक इतिहास लेखन की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं।
(2) ललित विग्रह नाटक से विग्रहराज का भारत पर आक्रमणकारियों से युद्ध करने का आभास मिलता है जिसकी पुष्टि दिल्ली के सिवालिक लेख से होती है। यह नाटक तत्कालीन राज्यप्रणालियों में प्रचलित षड्यंत्र, गुप्तचर एवं संदेश-वाहकों तथा राजाओं की विशाल सेनाओं आदि की सूचना देता है उस काल में प्रचलित गूढ़-मंत्ररणा तथा मंत्रियों की सम्मति आदि का भी संकेत मिलता है।
(3) वीसल देव अथवा विग्रहराज चतुर्थ महान् शासक, वीर, उद्भट विद्वान तथा प्रतिभावान् कवि था। इस नाटक से साहित्य शास्त्र की गरिमा का बोध होता है। वह अपने राज्य में शिक्षा एवं ज्ञान को आश्रय देने वाला था। जो राजा सदैव मुस्लिम आक्रमणकारियों से घिरा रहता था, उसमें काव्य तथा शिक्षा के प्रति अनुरक्ति होना एवं सोमदेव आदि कवियों को सम्मान देना, उसकी योग्यता को प्रकट करता है।
(4) दोनों नाटकों में प्रयुक्त पात्रों के अनुसार प्राकृत बोली, संस्कृत भाषा, देवनागरी लिपि आदि से उस समय की भाषाओं, बोलियों एवं शिक्षा आदि पर प्रकाश पड़ता है।
(5) नाटक ऐसे स्थान से प्राप्त हुए हैं जो भवन एवं शिल्प कला की दृष्टि में उन्नत कला का परिचायक है। नाटकों के लिपियुक्त होने से भवन निर्माण के काल निर्णय में भी सहायता मिलती है जो ई.1153 के आसपास की होनी चाहिये। नाटकों के उत्कीर्णन तथा इस प्रकार के भवन में उनकी स्थापना भवन के संस्कृत पाठशाला के रूप में उपयोग होना भी सिद्ध करता है। इस पाठशाला का साम्य परमार राजा भोज की राजधानी धार में स्थित सरस्वती पाठशाला से है।
ललित विग्रहराज तथा हरकेलि नाटकों का भाषा-लालित्य तथा अर्थ-गौरव संस्कृत साहित्य की गरिमा से ओत-प्रोत है। नाटक में सरस पद्य प्रयुक्त हुआ है जो अलंकारों एवं सुंदर छन्दों से युक्त है। इस कारण ये दोनों नाटक केवल राजस्थान के साहित्य का गौरव हैं अपितु संस्कृत साहित्य एवं सम्पूर्ण साहित्य जगत् में प्रतिष्ठित हैं।
REFERENCES
[1] ओमप्रकाश शर्मा, राजपूताना संग्रहालय के प्रस्तरांकित नाटक, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस 1968, पृ. 247.
[2] वसन्तलाल नामक किसी राजा का 12वीं शती में उल्लेख नहीं मिलता। संभवतः यह दिल्ली का कोई तोमर शासक होगा। डॉ. कीलहोर्न, इंडियन एन्टीक्वेरी वोल्यूम 20, पेज नं. 201.
[3] अमीर खुसरो शाह (ई.1153-60) को संस्कृत शब्दावली से साम्य बैठाने के लिए हम्मीर कहा गया है।