जोधपुर की भटियाणी रानी उमादेवी, इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है। वह कभी अपने ससुराल जोधपुर में नहीं रही किंतु जब जोधपुर राज्य पर संकट आया तो उसने सेना लेकर शत्रु का रास्ता रोका।
इस स्वाभिमानी रानी की कहानी आज भी भारतीय नारियों के रक्त में स्वाभिमान और वीरत्व का संचरण करती है।
16वीं शताब्दी ईस्वी में जब हुमायूं का आधार खिसकता जा रहा था और बिहार से शेरशाह सूरी का सूर्य चमकने लगा था तब मारवाड़ नरेश मालदेव के झण्डे लूनी नदी के विकराल रेगिस्तान से बाहर निकलकर गंगा-यमुना के किनारों तक लहराने लगे थे और हुमायूं जैसे बादशाह उसकी शरण प्राप्त करने को लालायित थे।
उन्हीं दिनों मारवाड़ नरेश मालदेव का विवाह जैसलमेर की राजकुमारी उमा दे भटियाणी से हुआ। दैववश विवाह की पहली रात को जब रानी उमादे अपने महलों में मालदेव की प्रतीक्षा कर रही थी तब मालदेव अपने सरदारों के साथ बैठा हुआ मदिरापान में व्यस्त हो गया।
बहुत रात बीतने पर रानी उमादे ने अपनी रूपवती दासी भारमली को राव मालदेव को बुला लाने के लिए भेजा।
मदिरा के नशे में राव धुत्त राव मालदेव ने भारमली को ही रानी उमादे समझ लिया और उसी में रम गया। जब रानी को यह बात ज्ञात हुई तो उसने क्रोधित होकर पति के लिये सजाया गया आरती का थाल उलट दिया।
सुबह नशा उतरने पर राव मालदेव ने रानी उमादे से मिलकर रात की घटना के लिए खेद व्यक्त करना चाहा किंतु रानी ने राव मालदेव से मिलने से मना कर दिया।
इस पर राव मालदेव ने कवि आसा बारहठ को रानी को मनाने के लिए भेजा किंतु रानी का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर कवि आसा बारहठ ने रानी को समझाते हुए कहा-
मान रखे तो पीव तज, पीव तजे रख मान।
दो दो गयंद न बंधई, हैके खंभू ठांण।
अर्थात् कवि ने कहा कि पति और स्वामिभान दो हाथी हैं, इन्हें एक साथ नहीं बांधा जा सकता। इनमें से किसी एक को चुन ले। इस पर रानी ने स्वाभिमान को चुन लिया और कवि को खाली हाथ भेज दिया।
इस पर राव मालदेव क्रोध में भरकर जैसलमेर से जोधपुर के लिए रवाना हो गया तथा आते समय जैसलमेर के राजकीय उद्यान के बहुत से वृक्ष काट आया जिसे बड़ा बाग कहा जाता था।
जैसलमेर नरेश लूणकर्ण ने अपने जंवाई से इस घटना का बदला लेने के लिये पूगल के ठाकुर जैसिंह को जोधपुर भेजा। ठाकुर जैसिंह जोधपुर आया और तीन दिन तक मण्डोर उद्यान में रुका रहा। उसे जोधपुर के राजा से जैसलमेर के राजकीय उद्यान के पेड़ों को काटने का बदला भी लेना था किंतु यह भी नहीं भूलना था कि जोधपुर का राजा जैसलमेर के राजा का जंवाई है।
तीसरे दिन ठाकुर जैसिंह ने एक ऐसा उपाय सोचा जिससे जोधपुर के राजा को अपनी गलती का अहसास हो और उसके स्वाभिमान को भी ठेस नहीं पहुंचे। उसने मण्डोर उद्यान के पेड़ों को गिनवाया तथा लुहारों को बुलाकर, पेड़ों की संख्या के बराबर कुल्हाड़ियां बनवाईं।
उसने हर पेड़ के नीचे एक-एक कुल्हाड़ी रखी और जैसलमेर लौट गया। मानो ऐसा करके उसने संदेश दिया कि बदला लेना तो हम भी जानते हैं किंतु हम तुम्हारे जैसे नहीं हैं।
रानी उमादे, अपने ननिहाल चित्तौड़ जाकर रहने लगी। चित्तौड़ राज्य में उसका महल रूठी रानी का महल कहलाने लगा। आज भी यह महल देखा जा सकता है।
कुछ समय बाद रानी उमादे, अपने पति राव मालदेव के निमंत्रण पर अजमेर चली आई और तारागढ़ की पहाड़ी पर बने दुर्ग में रहने लगी जिसे इतिहास में बीठली दुर्ग भी कहा जाता है।
जब मुगल बादशाह हुमायूं परास्त होकर ईरान भाग गया तब जनवरी 1544 में शेरशाह सूरी ने 80 हजार घुड़सवार सैनिक लेकर जोधपुर के राजा मालदेव के विरुद्ध अभियान किया। उसने सबसे पहले अजमेर नगर को घेरा। मालदेव की रानी उमादे उस समय गढ़ बीठली में ही थी। जब मालेदव को शेरशाह के अभियान के सम्बन्ध में ज्ञात हुआ तो उसने अपने सामंत ईश्वरदास को लिखा कि वह रानी को लेकर जोधपुर चला आये।
जब रानी उमादे को इस आदेश के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने ईश्वरदास से कहा कि शत्रु का आगमन होने की बात जानने के बाद मेरा इस तरह दुर्ग छोड़कर चले जाना उचित नहीं है। इससे मेरे दोनों कुलों पर कलंक लगेगा।
इसलिये आप रावजी को लिख दें कि वह यहां का सारा प्रबंध मुझ पर छोड़ दें। रावजी विश्वास रखें कि शत्रु का आक्रमण होने पर मैं शत्रु को मार भगाऊंगी और यदि इसमें सफल न हुई तो क्षत्रियाणी की तरह सम्मुख रण में प्रवृत्त होकर प्राण त्याग करूंगी।
जब राव मालदेव को पत्र द्वारा इस बात की जानकारी हुई तो उसने ईश्वरदास को लिखा कि तुम हमारी तरफ से रानी से कह दो कि अजमेर में हम स्वयं शेरशाह से लड़ेंगे। इसलिये वहां का प्रबंध तो हमारे ही हाथ में रहना उचित होगा। जोधपुर दुर्ग का प्रबंध हम रानी उमा दे को सौंपते हैं। अतः रानी जोधपुर आ जाये।
रानी उमा दे ने अपने पति की इस आज्ञा को मान लिया और वह अजमेर का दुर्ग राव के सेनापतियों को सौंपकर स्वयं जोधपुर के लिये रवाना हो गई।
मार्ग में मालदेव की अन्य रानियों ने उमादे को जोधपुर न आने देने का षड़यंत्र रचा। इससे रानी कोसाना में ही ठहर गई तथा मालदेव से कहलाया कि मैं यहीं रहकर जोधपुर की रक्षा करूंगी। आप मुझे यहीं सेना भिजवा दें।
मालदेव ने वैसा ही किया। इसके बाद मालदेव 50 हजार सैनिकों के साथ अजमेर के लिये रवाना हुआ किंतु बाद में गिर्री को लड़ने के लिये अधिक उपयुक्त स्थान मानकर गिर्री चला गया तथा वहां से अपने सेनापतियों पर शक हो जाने के कारण बिना लड़े ही युद्ध का मैदान छोड़कर जोधपुर चला गया।
जोधपुर के सेनापतियों ने बिना राजा के ही यह युद्ध लड़ा और वीरगति को प्राप्त हुए। गिर्री-सुमेल का युद्ध जीतने के पश्चात् शेरशाह ने जोधपुर दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।
जब रानी ने देखा कि राजा युद्ध नहीं लड़ रहा है तो वह भी संभवतः अपने ननिहाल चित्तौड़ चली गई और कई वर्ष बाद राव मालदेव के निधन के बाद चिता के अग्नि रथ पर आरूढ़ होकर इस लोक से गमन कर गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता