राजौरगढ़ दुर्ग अलवर से लगभग 45 किलोमीटर दक्षिण में अरावली पर्वतमाला की एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। इसका मूल नाम राज्यपुर था। इस दुर्ग का निर्माण आठवीं शताब्दी इस्वी में बड़गूजर शासकों ने करवाया। आठवीं से बारहवीं शताब्दी में इस दुर्ग पर बड़गूजरों का ही शासन रहा। इस काल में राजौरगढ़ के शासक कन्नौज के प्रतिहार शासकों के अधीन शासन करते थे।
बड़गूजर सूर्यवंशीय क्षत्रिय हैं। ये श्रीराम के पुत्र लव के वंशज हैं तथा रघुवंशी होने के कारण इन्हें राघव भी कहते हैं। इनका राज्य गुजरात में बडनगर के नाम से विख्यात था।
बड़गूजरों ने राजस्थान में आठवीं से दसवीं शताब्दी के आस-पास राजौरगढ़, देवती, माचेड़ी, टहला, दौसा, भाण्डारेज, तीतरवाड़ा, कोलासर, शंकरगढ़, भानगढ़, राजगढ़, बयाना आदि स्थानों पर अधिकार किया। इन सभी स्थानों पर बड़गूजरों द्वारा निर्मित गढ़ैयाएं किसी न किसी रूप में रही होंगी किंतु अब उन्हें चिह्नित किया जाना अत्यंत कठिन है।
कुछ बड़गूजर भरतपुर जिले की रूपावास तहसील के मदागांव में तथा कुछ बड़गूजर जोधपुर के निकट पोकरण के आसपास के 22 गांवों में निवास करते थे। कच्छवाहों के राजस्थान में आने से पहले, बड़गूजर अलवर जिले के राजौरगढ़ तथा देवती के आसपास के ढूंढ़ाड़ प्रदेश पर शासन करते थे जिनके चारों ओर मीणों के छोटे-छोटे राज्य थे। कही-कहीं पर चौहानों के छोटे-छोट राज्य भी मौजूद थे।
जब ग्याहरवीं शताब्दी के आरम्भ में कच्छवाहा राजकुमार धौलाराय नरवर से ढूंढाढ़ क्षेत्र में आया, तब उसने चौहानों तथा बड़गूजरों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। धीरे-धीरे मीणों के साथ-साथ, चौहानों और बड़गूजरों के क्षेत्र भी कच्छवाहों के अधीन हो गये।
राजौरगढ़ दुर्ग के चारों ओर नदी, नाले, पहाड़, जंगल आदि स्थित होने से यह अत्यंत सुरक्षित एवं दुर्गम दुर्ग माना जाता था।
दसवीं शताब्दी ईस्वी में राजौरगढ़ केे बड़गूजरों में मथनदेव नामक प्रतापी राजा हुआ। उसने इस दुर्ग में नीलकंठ महादेव का मंदिर बनवाया। इसके बाद इस दुर्ग को नीलकंठ दुर्ग भी कहने लगे। नीलकंठ महादेव मंदिर तत्कालीन शिल्प एवं स्थापत्य का अध्ययन करने के लिये विपुल सामग्री उपलब्ध करवाता है। नीलकंठ मंदिर के पास एक शिलालेख मिला है, जो हर्षनाथ शिलालेख से मिलता-जुलता है। इस शिलालेख में गुर्जर-प्रतिहार वंश के बारे में जानकारी दी गई है।
एक शिलालेख के अनुसार संवत् 1208 (ईस्वी 1151) में राजौरगढ़ पर राजा पृथ्वीपालदेव बड़गूजर शासन कर रहा था। इस शिलालेख के अनुसार माचेड़ी के शासक व्याघ्रराज (बाघराज बड़गूजर द्वितीय) ने राजौरगढ़ दुर्ग और चतुर्भुजनाथ मंदिर बनवाया था। उस काल में इसे राज्यपुरा, परगना एवं नीलकंठ भी कहा जाता था।
इस मंदिर की दीवारों, सभा-मण्डप, गर्भ-गृह, तथा स्तम्भों पर हिन्दू देवी-देवताओं एवं उनके अवतारों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इस मंदिर के निर्माण के सम्बन्ध में वि.सं.1101 (ई.1044) का एक शिलालेख, भगवान गणेश की नृत्यलीन मुद्रा की प्रतिमा के नीचे उत्कीर्ण है। यह प्रतिमा अब अलवर के राजकीय संग्रहालय में रखी है।
राजौरगढ़ का दुर्ग सुदृढ़ प्राकार एवं विशाल प्रवेशद्वार से सुरक्षित किया गया है। दुर्ग के भीतर बने सैनिक आवासों एवं सुरक्षा चौकियों से अनुमान होता है कि दुर्ग में हर समय सैनिकों का पहरा रहता था। दुर्ग में शस्त्रागार भी बना हुआ है।
बड़गूजरों के बाद यह दुर्ग चौहानों के अधिकार में तथा उनके बाद मुसलमानों के अधिकार में जाना अनुमानित है। सत्रहवीं शताब्दी में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने यह दुर्ग जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह को दे दिया। जयसिंह ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा परकोटे को भी मजबूत किया। दुर्ग में भगवान पार्श्वनाथ की एक विशाल एवं भव्य प्रतिमा स्थापित है जिसे नौगजा कहा जाता है। इसी प्रतिमा के कारण जैन धर्मावलम्बी, राजौरगढ़ को पारानगरी भी कहते थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता