Tuesday, September 17, 2024
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राजस्थान के शिलांकित ग्रन्थ

राजस्थान के शिलांकित ग्रन्थ

मनुष्य ने जब लिपि का आविष्कार किया तो उसने अपने विचारों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए ताड़पत्र, भोजपत्र, चमड़ा, कपड़ा, मिट्टी की पट्टिकाओं, ताम्रपत्रों तथा पत्थरों पर संदेश लिखने आरम्भ किए। मध्य एशिया से ऐसे तूणीर एवं बाण प्राप्त हुए हैं जिन पर आर्य राजाओं एवं ऋषियों के नाम एवं छोटे-छोटे संदेश उत्कीर्ण हैं। सम्पूर्ण विश्व में हाथीदाँत, पत्थर एवं मिट्टी तथा हड्डियों से बनी हुई अभिलेखयुक्त मुद्राएं (सील) प्राप्त हुई हैं।

राजस्थान में शिलांकित अभिलेखों की परम्परा अशोक के समय से प्राप्त होनी आरम्भ होती है। आज से लगभग दो हजार साल पहले मौर्य सम्राट अशोक ने अपने अभिलेख शिलाखंडों, स्तम्भों तथा गुफाओं पर उत्कीर्ण कराए। प्राचीन अभिलेख तत्कालीन राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास की भी जानकारी देते हैं। सती अभिलेख एवं मंदिरों के अभिलेख सामान्यतः शिलांकित किए जाते थे। मंदिरों के सूत्रधारों द्वारा भी कुछ अभिलेख उत्कीर्ण कर दिए जाते थे।[1]

भारत भर के तीर्थस्थलों, मंदिरों एवं किलों में धर्म-ग्रन्थों के विविध उद्धरण एवं समूचे ग्रन्थ शिलोत्कीर्ण मिलते हैं। हीरानन्द शास्त्री ने कसिया (गोरखपुर) से एक ताम्रपत्र खोजा था, जिस पर संस्कृत भाषा में अत्यंत प्राचीन लेख उत्कीर्ण है जिसे हरिबल ने कुशीनगर (कसिया) स्थित भगवान् बुद्ध को प्रस्तुत किया था।[2] शिलांकित ग्रंथां की दृष्टि से मध्य प्रदेश और राजस्थान महत्वपूर्ण हैं।

राजस्थान में प्राचीनतम लेख सिंधुघाटी सभ्यता अथवा हड़प्पा सभ्यता के मिले हैं किंतु वे लेख शिलाओं पर उत्कीर्ण न होकर बर्तनों एवं मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं तथा उन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सकता है।

राजस्थान से प्राप्त प्राचीनतम शिलालेख अशोक कालीन हैं। जयपुर से लगभग 12 मील दूर बैराठ से अशोक के दो लघु शिलालेख मिले हैं। [3]  इनमें से भब्रू (बैराठ) की चट्टान पर उत्कीर्ण लेख को कैप्टन बर्ट ई.1840 में कलकत्ता ले गये जहाँ वह बंगाल एशियाटिक सोसाइटी भवन में प्रिंसेप की मूर्ति के सामने सुरक्षित है। अशोक का यह लघु शिलालेख ‘कलकत्ता-भब्रू-बैराठ’ शिलालेख के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें अशोक ने बौद्ध धर्म के त्रिरत्न-बुद्ध, धर्म और संघ में अपनी निष्ठा, भक्ति और श्रद्धा का उल्लेख किया है।

इसी शिलालेख में उसने बौद्ध-धर्म ग्रन्थों के सात ग्रंथ गिनाये हैं जिन्हें भिक्षु भिक्षुणियों तथा गृहस्थ उपासक-उपासिकाओं को बार बार श्रवण कर मन में धारण करने का आग्रह किया गया है- (1) विनय समुकस (विनय समुत्कर्ष) (2) अलिय वसानि (आर्य वंशानि) (3) अनागत भयानि (4) मुनि गाथा (5) मौनेय-सूते (मौनेय-सूत्र) (6) उपतिस-पसिने (उपतिष्य प्रश्न) तथा (7) लाघुलोवादे (राहुलवाद)। [4]

नागौर जिले के गोठ-मांगलोद के दधिमाता मंदिर से प्राप्त (गुप्त) संवत् 289 के शिलालेख की 11-12 वीं पंक्ति में मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य के 10वें अध्याय का 9वां श्लोक उत्कीर्ण है-

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमो स्तुतेः।

यह स्पष्ट नहीं है कि इस अभिलेख की तिथि किस सम्वत् की है, परन्तु लिपि के आधार पर यह गुप्त सम्वत्  289 अर्थात् 7वीं शताब्दी ईस्वी की प्रतीत होती है। जालोर जिले के सांचोर कस्बे की कचहरी में दो प्राचीन स्तम्भ लगे हैं जिन पर चाहमान प्रतापसिंह के राजत्व में उत्कीर्ण वि.सं. 1444 के लेख अंकित हैं!’ [5]  इसके पहले श्लोक में शिव का स्तवन किया गया है जिसके उपरान्त महाकवि कालीदास की अमर कृति शाकुन्तलम् (1.1.) का निम्न लिखित श्लोक अक्षरशः उद्धृत है-

या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री,

ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुरणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।

ययाहुः सर्वभूतप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः,

प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुरभिरवतु व स्ताभिरष्टाभिरीशः।।

इस शिलालेख से स्पष्ट है कि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में कालीदास मरूप्रदेश में लोकप्रिय कवि के रूप् में विख्यात थे।

टोंक जिले के नगर नामक प्राचीन स्थल के मांडकिला ताल के किनारे स्थित विष्णु मन्दिर में 35 पंक्तियों की वि. सं.1043 की एक संस्कृत-प्रशस्ति पत्थर पर खुदी है जो सुकवि विमलमति की कृति है।[6]  

विमलमति ने स्वयं को हर्षकालीन बाणभट्ट का वंशज कहा है। इस प्रशस्ति की भाषा, वर्णन-शैली, अलङ्कार-योजना आदि में बाण की छाप स्पष्ट है। वास्तव्य-ब्राह्मण कुल में जन्मे रोहतक निवासी विमलमति के पितामह बाणभट्ट की वंश-परम्परा में पांचवीं पीढ़ी में हुए थे, ऐसा उक्त प्रशस्ति के 35वें श्लोक में कहा गया है-

आसीद्धान्तो द्विजो बारणत्पंचमो यो महाकवेः।

यह प्रशस्ति चित्र-काव्य का सुन्दर उदाहरण है जिसके श्लोक सं. 39-40 में चक्रबंध के माध्यम से कविनामागर्भ की व्याख्या की गयी है।

राजस्थान प्राचीन काल से ही जैन धर्म का प्रमुख गढ़ है।[7]  11-12वीं शताब्दी में विधि-चैत्य आन्दोलन के प्रमुख आचार्य जिनवल्लभ सूरि (मृत्यु सं. 1167। ई.1110) ने मठों एवं मंदिरों में रहने वाले चैत्यवासिन जैन साधुओं एवं साध्वियों को धार्मिक वृत्ति अपनाते हुए आदर्श जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी। इस उद्देश्य से उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें भ्रष्ट सप्त टीका, संघपट्टक व धर्मशिक्षा प्रमुख हैं। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि इन तीनों ग्रंथों को शिलाओं पर खुदवाकर चित्तौड़, नागौर, मारोठ आदि के विधि चैत्य जैन मंदिरों में लगवाया गया था [8]

ताकि अधिक से अधिक लोग अपने व्यवहार को सुधार सकें। जिनवल्लभ सूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि की ‘अपभ्रंश काव्यत्रयी’ में कहा गया है-

वि. सं. 1164 वर्षेषु चानेन जिनवल्लभगणिना

निजाष्टसप्ततिका-संघपट्टक – धर्मशिक्षाऽऽदि

चित्रकूट – नरवर – नागपुर – मरुपुरादिषु स्वप्रष्ठित

वीर विधि चौत्यादिषु प्रशस्तिरूपेणोत्कीर्ण

कारितमासीदिति श्रूयते।  [9]

इन्हीं जिनदत्त सूरि की चित्तौड़ प्रशस्ति ग्रंथरूप में प्राप्त हुई है जो चित्तौड़ के जैन मंदिर में लगी रही होगी। इसी प्रकार तपागच्छ के आचार्य श्री चारिर्त्यरत्नगरिए की सं. 149′ (सन् 1438 ई.) में रची ‘चित्रकूटीय महावीर प्रशस्ति’ भी ग्रंथरूप में मिली है जो भी चित्तौड़ के महावीर स्वामी मन्दिर में शिलाङ्कित हुई।

अजमेर और शाकम्भरी के चौहान नरेशों का शिलाङ्कित ग्रंथों के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। बीसलदेव अथवा विग्रहराज चतुर्थ (ई.1153-64) को कवि-बांधव की उपाधि प्राप्त थी।[10]  वह स्वयं भी कवि था। उसने अजमेर में सरस्वती मंदिर नामक पाठशाला बनवायी जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक और शम्सुद्दीन अल्तमश के काल में मस्जिद बना दिया गया।[11] बाद में इसे अढ़ाई दिन का झोंपड़ा कहा जाने लगा। विग्रहराज ने इस पाठशाला में दो महत्वपूर्ण संस्कृत-नाटक- ‘हरकेलि’ तथा ‘ललित विग्रहराज’ काले पत्थर पर उत्कीर्ण करवाकर लगवाए। इन नाटकों के चार शिलाङ्कित फलक ई.1875-76 में खोजे गए तथा अजमेर के राजपूत म्यूजियम में रखे गये। [12]

‘हरकेलि नाटक’ के रचयिता स्वयं शाकंभरी नरेश महाराजाधिराज परमेश्वर विग्रहराज देव थे। इस नाटक के कुछ भाग दो शिलाखंडों पर उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं। पहली शिला पर द्वितीय और तृतीय अंकों के कुछ भाग अंकित हैं और दूसरी पर ‘क्रौंच विजय’ नामक पांचवे अंक का उत्तरार्द्ध खुदा है। भारवि की ‘किरातार्जुनीयम्’ की परम्परा में लिखे इस नाटक में अर्जुन की तपस्या और उनसे शिव के साथ हुए संघर्ष का वर्णन है। रावण की शिव-पूजा का भी उल्लेख हुआ है। इस नाटक की रचना से प्रसन्न होकर शिव गौरी से कहते हैं कि कवि रूप में विग्रहराज की कीर्ति सदा अक्षुण्ण रहेगी। नाटक की तिथि मार्ग सुदी पंचमी सं. 1210 (22 नवम्बर 1153) दी गयी है और इसे गोविन्द के पौत्र तथा महीपति के पुत्र भास्कर ने देवनागरी लिपि में शिलाफलकों पर उत्कीर्ण किया था।

‘ललितविग्रहराज’ नाटक की रचना का श्रेय विग्रहराज चतुर्थ के राजकवि सोमदेव को है। इसमें कवि ने विग्रहराज और इंद्रपुर के वसन्तपाल की राजकुमारी देसलदेवी की प्रेमकथा को लिपिबद्ध किया है। इसी प्रसंग में विग्रहराज और गजना के तुरुष्क अमीर [13] के बीच संघर्ष की स्थित उत्पन्न होने का भी संकेत दिया गया है। यह नाटक त्रुटित रूप में दो शिलाफलकों पर उत्कीर्ण मिला है। पहले पर प्रथम अंक का अत्यधिक अंश तथा द्वितीय अंक का प्रारंभिक भाग अंकित है जब कि दूसरे शिलाखण्ड पर तीसरे अंक का अन्तिम अंश एवं चतुर्थ अंक का अधिकांश भाग उत्कीर्ण है।

अढ़ाई दिन के झोंपड़े से प्राप्त चौहानों के किसी ऐतिहासिक काव्य (दुर्भाग्यवश जिसका नाम नहीं दिया गया है) की पहली शिला भी नजमेर म्यूजियम में प्रदर्शित है जिसमें विभिन्न देवताओं की वंदना के उपरान्त सूर्य की स्तुति की गयी है जिससे चौहानों का उद्भव बताते हुए इस राजवंश के आदि पुरुष चाहमान से विग्रहराज चतुर्थं तक के चौहान-नरेशों की गौरव गाथा शिलांकित है।

विग्रहराज के अनुज तथा सुप्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर थे। मेवाड़ के बिजोलिया (प्राचीन विन्ध्यवल्ली) की चट्टानों पर सोमेश्वर के दो अभिलेख उत्कीर्ण हैं जिनकी तिथि वि. सं. 1226 (ई.1169) है। उनमें एक तो सोमेश्वर की वृहत् प्रशस्ति[14] है जिसमें चाहमानों की वंशावली और इतिहास दिया गया है।

इस महत्वपूर्ण प्रशस्ति के रचयिता माथुर संघ के जैन महामुनि गुणभद्र हैं जिन्हें ‘कवियों के गले के आभूषण’ की संज्ञा दी गयी है। इस अभिलेख के श्लोक सं. 90 में स्थानीय पार्श्वनाथ मंदिर के निर्माता सूत्रधार हरसिंग, उनके पुत्र पाल्हण और पौत्र आहड़ का भी उल्लेख है। प्रशस्ति को खोदने का काम नानिग पुत्र गोविन्द तथा पाल्हण पुत्र देल्हण द्वारा सम्पन्न हुआ था। पास की चट्टान पर पोखाड़-सेठ लोलिंग (प्राग्वाट श्रेष्ठी लोलार्क) जो श्रीधर के पुत्र थे, ने सिद्धसूरि विरचित ‘उत्तम शिखर पुराण’ नामक जैन दिगम्बर ग्रंथ को वि. सं. 1226 में चित्रसुत केसव द्वारा शिलांकित करवाया जो अद्यावधि अप्रकाशित है। इस ग्रंथ में पांच सर्ग और 293 श्लोक हैं। [15]

राजस्थान में हिन्दू राजवंशों एवं उनके राजाओं की प्रशस्तियां शिलाओं पर उत्कीर्ण मिलती हैं जो संस्कृत भाषा और साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनके रचयिता काव्य-शास्त्र में पारंगत कवि थे जिन्होंने अपनी नयी उभावनाओं और अलङ्कारों के माध्यम से कविता की मंदाकिनी ही प्रसारित की।[16]

इस प्रकार की प्रशस्तियों की संख्या दर्जनों में है। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा (ई.1433-38) की तीन शिलांकित प्रशस्तियाँ ज्ञात हैं। कुम्भलगढ़ के कुम्भस्वामी (मामदेव) मंदिर से प्राप्त वि. सं. 1517 मार्ग शीर्ष वदि 5 सोमवार को उत्कीर्ण विशाल प्रशस्ति श्यामवर्ण की पांच बड़ी शिलाओं पर अंकित है जिनमें से प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ शिला-खण्ड पूर्णरूप से तथा द्वितीय का एक छोटा सा खंड प्राप्त हुए हैं और उदयपुर म्यूजियम (शिलालेख सं. 5) में प्रदर्शित हैं। [17]

पहली पट्टिका में मेवाड़ के मंदिरों, जलाशयों तथा अन्य पवित्र स्थानों का वर्णन है। तृतीय एवं चतुर्थ पट्टिकाओं में गुहिल नरेशों की वंशावली दी गयी है और चतुर्थ पट्टिका के सं. 233 से महाराणा कुम्भा का बृत्तान्त प्रारम्भ होता है जो पाँचवी अप्राप्य शिलापट्टिका में पूर्ण हुआ रहा होगा। इसी तिथि की एक अन्य प्रशस्ति भी कुंभलगढ़ से प्राप्त हुई है जो कम से कम दो बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण रही होगी। इसकी पहली शिला मात्र ही प्राप्त हो सकी है जो उदयपुर म्यूजियम (संख्याः 6) में है। इसमें 64 श्लोक हैं और महाराणा कुम्भा के वर्णन का थोड़ा सा अंश ही प्राप्य है और अंत में लिखा है कि आगे का वर्णन शिलाओं के अंक-क्रम से जानना चाहिए। [18]

इन्हीं महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़गढ़ में सुप्रसिद्ध कीर्तिस्तम्भ भी बनवाया था जो भारतीय मूर्तिकला का कोश है।[19]  इस महत्वपूर्ण निर्माण-कार्य के अवसर पर वि. सं. 1517 में कीर्तिस्तम्भ की बड़ी शिला-प्रशस्ति भी उत्कीर्ण हुई जिसकी दो मूल शिलाएं कीर्तिस्तम्भ की छतरी में बच रही हैं जिनमें प्रारम्भ व अंत के पूर्व के कुछ अंश खुदे हैं।[20] उनमें मेवाड़ नरेशों की वंशावली के बाद कुम्भा की विजयों व निर्माण-कार्यों की चर्चा है। इस प्रशस्ति की रचना का महत् कार्य अत्रि को सौंपा गया था परन्तु उक्त काव्य के पूर्वार्द्ध की रचना कर वह मर गया; अतः उसके पुत्र महेश ने आगे का भाग लिखा जिससे प्रसन्न होकर महाराणा कुम्भा ने उसे दो मदमत्त हाथी, सोने की डंडी वाले दो चंवर और एक श्वेत छत्र पुरस्कार में दिया।

इस प्रशस्ति में स्पष्ट उल्लेख है कि महाराणा कुम्भा ने संगीतराज, सूडप्रबंध और चार नाटक रचे जिसमें उन्होंने महाराष्ट्री, कर्णाटकी व मेवाड़ी भाषाओं का प्रयोग किया।[21] 

इतना ही नहीं, महाराणा कुम्भा के आदेश से देवताओं के निमित्त बनने वाले स्तम्भों के सम्बन्ध में किसी वास्तुशास्त्रीय संस्कृत ग्रंथ को भी शिलांकित करवाया गया। सौभाग्य से इसकी पहली शिला का प्रारंभिक अंश चित्तौड़ दुर्ग से डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने खोजकर उदयपुर संग्रहालय (शिलालेख सं. 10) में सुरक्षित कर दिया। इस शिलांकित ग्रंथ के प्राप्य अंश में कहा गया है कि इंद्र (शक्र), विष्णु और ब्रह्मा के निमित्त बने स्तम्भ क्रमशः 65, 108 तथा 8611 हस्त होने चाहिए। [22]

भारत का सबसे बड़ा शिलांकित ग्रंथ भी राजस्थान में ही विद्यमान है। यह उदयपुर से 45 मील दूर स्थित कांकरोली के राजसमुद्र तालाब की बांध पर पच्चीस शिलापट्टों पर उत्कीर्ण ‘राज प्रशस्ति महाकाव्य’ है। [23]

तैलंग ब्राह्मण रणछोड़ भट्ट द्वारा वि. सं. 1732 (1675 ई.) में विरचित 24 सर्गों के इस ऐतिहासिक महाकाव्य में मेवाड़ के गौरवपूर्ण इतिहास के वर्णन के पश्चात् महाराणा राजसिंह प्रथम (1653-80 ई.) के व्यक्तित्व व कृतित्व की गुणगाथा लिपिबद्ध है जिन्होंने चार मील लम्बे सुप्रसिद्ध ‘राजसमुद्र’ का लगभग 1 करोड़ 6 लाख रुपये की लागत से 14 वर्षों की लम्बी अवधि में निर्माण करवाया। रणछोड़ भट्ट ने इस काव्य की रचना महाराणा राजसिंह के आदेशानुसार अपने अनुज लक्ष्मण को काव्य-शिक्षा प्रदान करते हुए की थी।[24]  इसे महाराणा राजसिंह के पुत्र महाराणा जयसिंह द्वारा 25 शिलापट्टों पर उत्कीर्ण करवाया गया। [25]

राजसमुद्र प्रशस्ति में चौबीस शिलाओं पर 24 सर्ग उत्कीर्ण किए गए हैं। प्रथम शिलापट्ट पर विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति लिखी गई है। यह शिलोत्कीर्ण ग्रंथ मेवाड़ के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास की विश्वसनीय जानकारी देता है। इसमें मेवाड़ के तीर्थों, मंदिरों, किलों आदि का विशद् वर्णन है। राजसमुद्र के निर्माता सूत्रधारों- गजधर मुकुंद, अर्जुन, सुखदेव, केशव, सुन्दर, लाल, भूधर आदि का नाम भी उत्कीर्ण हैं।

इस प्रशस्ति में वायुपुराण, एकलिङ्ग माहात्म्य तथा पृथ्वीराज रासो आदि ग्रंथों का भी प्रासंगिक रूप में उल्लेख हुआ है। सत्तहरवीं शताब्दी में प्रचलित मुद्राओं, तोल, माप आदि की जो बहुमूल्य सामग्री इस शिलांकित ग्रंथ में सुरक्षित है वह तत्कालीन आर्थिक इतिहास को समझने में बड़ी सहायक है। [26] 

राजप्रशस्तिकार ने बड़े गर्व के साथ प्रथम सर्ग (श्लोक सं. 1617) में घोषणा की है कि संस्कृत वाणी में रचित यह ग्रंथ महाभारत, रामायण आदि की भांति अमर रहेगा जब कि देशज भाषात्रों में रचे गए काव्य मनुष्यों की भांति क्षणभंगुर होते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इतिहास लेखन की दृष्टि से राजस्थान के शिलांकित ग्रन्थ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये इतिहास लेखन के लिए विश्वसनीय सामग्री उपलब्ध करवाते हैं।


[1] रत्नचन्द्र अग्रवाल, मेवाड़ के कुशल सूत्रधार एवं प्रमुख शिल्पी, सम्मेलन पत्रिका, कला विशेषांक, पृ. 283-298 तथा इन्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली भाग 33, अंक 4, दिसम्बर 1957, पृ. 321-333; रत्नचन्द्र अग्रवाल, मेवाड़ के अज्ञात प्रशस्तिकार एवं कवि, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष 62, अंक 2-3 संवत् 2014, पृ. 123-144.

[2] दयाराम साहनी, वैराठ उत्खनन रिपोर्ट, पृ. 18 तथा चित्र फलक सं. 20 जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख, पब्लिकेशन्स डिवीजन (भारत सरकार), सन् 1957, पृ. 119 तथा 124.

[3] रामकरण आसोपा, इपिग्राफिया इन्डिका, भाग 11, पृ. 303 तथा दत्तात्रेय रामकृष्ण भंडारकर, प्राग्रेस रिपोर्ट आर्केलाजिकल सर्वे, वेस्टर्न सर्किल, वर्षान्त 1906-7, पृ. 31.

[4] विजयशंकर श्रीवास्तव, राजस्थान के शिलांकित ग्रन्थ, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स, वर्ष 1967, पृ. 201.

[5] डॉ. डी. आर. भंडारकर, इपिग्राफिया इन्डिका, भाग 11, पृ. 64-67.

[6] डॉ. बहादुरचन्द छाबड़ा, इपिग्राफिया इन्डिका, भाग 34, अंक 20 पृ. 77-90.

[7] डॉ. कैलासचंद्र जैन, जैनिज्म इन राजस्थान (जीवराज जैन ग्रंथमाला सं. 15), शोलापुर 1963.

[8] लालचंद्र भगवान दास गाँधी, अपभ्रंश काव्यत्रयी, गायकवाड ओरियेंटल सिरीज सं. 37, 1927, पृ. 8 उक्त संकलन में संघपट्टक पृ. 81-86 पर प्रकाशित है।

[9] डॉ. डी. आर. भंडारकर, चित्तौड़गढ़ महावीर प्रशस्ति, जनरल बाम्बे ब्रांच ऑफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1908, भाग 23, पृ. 42-60.

[10] जयानक ने पृथ्वीराज विजय महाकाव्यम् में इस नरेश के लिए कवि बांधव विशेषण प्रयुक्त किया है।

[11] अढ़ाई दिन के झोंपड़े में लगे एक अभिलेख में उल्लेख है- श्री विग्रहराज देवेन कारितमायतनमिदं। ई.1199 से 1213 के बीच अहमद और उसके पुत्र अबू बकर के निर्देशन में इस मंदिर को मस्जिद में बदल दिया गया।

[12] कीलहार्न, इंडियन एंटीक्वेरी, भाग 20, सन् 1891, पृ. 201-212.

[13] अमीर खुसरो शाह (ई.1153-60) का संस्कृत रूप जिसमें अमीर को हम्मीर कहा गया है।

[14] अक्षयकीर्तिव्यास, इपिग्राकिया इंडिका, भाग 26, पृ. 105.

[15] गौरीशंकर हीराचंद ओझा, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, काशी, वर्ष 1, अंक 1, नवीन संस्करण, संवत 1977, पृ. 9 तथा प्राचीन भारतीय लिपि माला, द्वितीय संस्करण, अजमेर, संवत 1975, पृ. 150, पाद टिप्पणी सं. 6.

अभिलेख के अन्तिम अंश इस प्रकार है-

बति सिद्ध सूरि रचितै उत्तम शिखर पुराणे पंचमः सर्गः।

लिखायितं श्रेष्ठि पुत्र लोलार्केन लिखितं श्री चित्रसुत केसवेनं।

[16] रत्नचंद्र अग्रवाल, मेवाड़ के अज्ञात प्रशस्तिकार एवं कवि, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, काशी, वर्ष 62 अंक 2-3, संवत 2014, पृ. 123-144.

[17] पहली और तीसरी पट्टिकाओं के लेख के लिए दृष्टव्य अक्षयकीर्ति व्यासि, एपिग्राफिया इंडिका, भाग 24, पृ. 304-328; द्वितीय पट्टिका के लिए डॉ गोपीनाथ शर्मा, प्रोसीडिन्ग्स इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस 14वां जयपुर अधिवेशन, ई.1961, पृ. 367-72 तथा प्रोसीडिंग्स इण्डियन हिस्टोरिकल रिकॉर्ड्स कमीशन उदयपुर अधिवेशन, सन् 1944, पृ. 73-74 एवं चतुर्थ पट्टिका के लिए रामरतन हलदार, इपिग्राफिया इंडिका, भाग  21, पृ. 277-78.

[18] ओझा, राजपूताना का इतिहास, भाग 2 लेख सं. 8; पृ. 632; हरविलास शारदा, महाराणा कुम्भा, लेख सं. 18, पृ. 186.

[19] गोएट्ज (मार्ग, राजस्थानी मूर्तिकला विशेषांक, भाग 12 अंक 2, मार्च, 1959 पृ. 44) ने तो इसे वरिटेबिल टैस्ट बुक ऑव हिन्दू आईकोनोग्राफी कहा है। कीर्तिस्तम्भ की मूर्तिकला के लिए द्रष्टव्य-ओझा, निबंध संग्रह, प्रथम भाग पृ. 222-228 तथा मनोरमा, वर्ष 3, भाग 2, संख्या 5, फरवरी 1927, पृ. 554-558 तथा विजय शंकर श्रीवास्तव, मंदिर निर्माता रूप में महाराणा कुंभा, राजस्थान भारती, बीकानेर, कुम्भा विशेषांक, भाग 8, अंक 1, पृ. 51-52.

[20] कनिंघम, आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग 23, चित्र सं. 20-21; ओझा, राजपूताना का इतिहास, भाग 2, लेख सं. 6, पृ. 630-31; हरविलास शारदा महाराणा कुम्भा, लेख सं. 17, पृ. 181-86 तथा 212-22.

[21] आलोड्या खिल भारती विलसितं संगीतराजं व्यधात्।

श्रधत्यावधिरंजसा समतनोत्सूडप्रबंधाधिपं।। 157।।

श्री करर्णाटक भेयपाट सुमहाराष्ट्रादिके योदय द्वाणीगु फमयं

चतुष्टयमयं सन्नाटकानां व्यधात्।। 158।।

[22] रत्न चंद्र अग्रवाल, जनरल ओरियन्टल इंस्टीच्यूट, बड़ोदा, भाग 8, अंक 1, सितम्बर 58 पृ. 73-74 तथा मरुभारती, जनवरी 1958, पृ. 36-37; ओझा राजपूताने का इतिहास, भाग 2, पृ. 627 तथा अजमेर म्यूजियम रिपोर्ट, 1921, पृ. 5.

[23] डॉ. एन. पी. चक्रवर्ती तथा डॉ. बहादुरचन्द्र छाबड़ा, इपिग्राफिया इन्डिका भाग 29 व 30 में परिशिष्ट रूप में प्रकाशितय कविराज श्यामलदास, वीरविनोद, भाग 2.

[24] कुर्वे राजसमुद्र नामक जलाधार प्रशस्तिं त्वहं सोदर्य रणछोड़ एष भरथा (ता) द्यं लक्ष्मणं शिक्षयन् (सर्ग 1, श्लोक सं. 9)

[25] राजसिंहोस्य वा पुत्रः श्री जयसिंह एष कृतवान्प्रस्तराऽऽलेखितं वीरांकं रणछोड़ भट्ट रचितं

[26] रत्नचन्द्र अग्रवाल, राजप्रशस्ति महाकाव्य में मुद्रा सम्बन्धी सामग्री, शोध पत्रिका, भाग 9, अंक 3, मार्च; 1958, पृ. 1-13 तथा राजप्रशस्ति महाकाव्य में ढब्बुक मुद्रा, शोध पत्रिका, भाग 10, अंक 1-2, सितम्बर-दिसम्बर 1958, पृ. 22-24.

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