राजस्थान शासन पर अधिकारियों का कब्जा! यह बात सुनने में अजीब सी लगती है किंतु यह राजस्थान के इतिहास की कड़वी सच्चाई है।
भारत की आजादी के समय राजस्थान को राजपूताना कहते थे। यह क्षेत्र छोटी-छोटी राजपूत रियासतों के रूप में पूरी दुनिया में अपनी अलग संस्कृति के लिए विख्यात था जिसमें शौर्य, वचन पालन, सत्य भाषण, शरणागत को शरण, ब्राह्मणों, गायों, स्त्रियों एवं कमजोरों के संरक्षण की उच्च परम्पराएं प्रमुख थीं।
ये राजपूत रियासतें पांचवी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के बिखर जाने के बाद बननी आरम्भ हुई थीं तथा विगत डेढ़ हजार सालों से अस्तित्व में थीं। राजपूताना में 29 रियासतें तथा तीन बड़े ठिकाने थे।
19 रियासतों में से 16 रियासतों में राजपूत राजा, दो रियासतों में जाट राजा तथा एक रियासत में मुस्लिम नवाब का शासन था। मुगलों के काल से ही इस क्षेत्र को राजपूताना कहा जाता था। अंग्रेजों ने भी इन रियासतों को राजपूताना एजेंसी में रखा।
15 अगस्त 1947 को जब भारत देश स्वतंत्र हुआ तो ये सभी रियासतें स्वतंत्र रूप से भारत सरकार से संधि करके भारत में सम्मिलित हो गईं। इसके बाद देश में रियासतों के एकीकरण का कार्य आरम्भ हुआ। इसी क्रम में राजपूतना की रियासतों को भी एक बड़े प्रदेश के रूप में गठित करने का निर्णय लिया गया जिसके लिए राजपूत राजाओं ने एक-एक करके अपने राज्य वृहद राजस्थान नामक नए प्रदेश को समर्पित कर दिए।
30 मार्च 1949 को नवगठित वृहद राजस्थान की सरकार ने काम संभाल लिया। जयपुर राज्य के प्रधानमंत्री हीरालाल शास्त्री को वृहद् राजस्थान का पहला मुख्यमंत्री बनाया गया। इसी के साथ राजपूताना की समस्त रियासतों का वृहद् राजस्थान में विलय हो गया।
राजपूत राजाओं के राज्य वृहद राजस्थान संघ में मिल तो गए थे किंतु इन राज्यों के प्रशासनिक तंत्र में काम करने वाले अधिकारियों एवं कर्मचारियों की निष्ठाएं रातों-रात नहीं बदली जा सकती थीं। अनुभवहीन नेताओं तथा राजनैतिक अधिकारों से अनभिज्ञ जनता के भरोसे प्रशासन नहीं चलाया जा सकता था। वृहद राजस्थान के अधिकारियों को विशेषज्ञ मार्गदर्शन दिया जाना आवश्यक था।
भारत सरकार को यह भी देखना था कि राज्यों के एकीकरण एवं उनके प्रजातंत्रीकरण की प्रक्रिया पूर्ण गति एवं दक्षता से पूरी हो। इन परिस्थितियों में संघीय इकाईयों के प्रशासन पर भारत सरकार का नियंत्रण आवश्यक हो गया ताकि राजस्थान में लोकतांत्रिक संस्थाओं का समुचित विकास हो सके।
रियासती विभाग के सचिव वी. पी. मेनन यद्यपि स्वयं आई सी एस अधिकारी नहीं थे, तथापि उन्होंने सुझाव दिया कि जब तक राजस्थान की स्थानीय विधान सभा अपने लिए संविधान का निर्माण नहीं कर लेती तब तक राजप्रमुख तथा मंत्रिमण्डल भारत सरकार के सामान्य नियंत्रण में रहें तथा भारत सरकार द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले निर्देशों की पालना करें।
इस व्यवस्था के लागू किए जाने का स्पष्ट अर्थ यह था कि कुछ समय के लिए वृहद राजस्थान सहित अन्रू समस्त नवगठित प्रांतीय इकाइयों का प्रशासन प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा चलाया जाए। इस कारण प्रशासनिक अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को तुरंत मान लिया किंतु नेताओं ने इस प्रस्ताव का विरोध किया।
जवाहर लाल नेहरू आई. सी. एस. अधिकारियों की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे, वे देश में शीघ्र से शीर्घ नेताओं का शासन चाहते थे किंतु सरदार पटेल जानते थे कि नेता लोग कितने स्वार्थी, झगड़ालू, अनुभवहीन तथा अहंकारी हैं। इसलिए सरदार पटेल हर हालत में नव गठित प्रांतीय इकाइयों में आई. सी. एस. अधिकारियों का शासन चाहते थे। लम्बे चौड़े बहस-मुसाहबे के बाद नेताओं को भी वेंकटाचार एवं पटेल का यह प्रस्ताव मानना पड़ा।
जब वृहद राजस्थान बनाया गया था तब उसकी प्रसंविदा में अनिवार्य रूप से यह प्रावधान किया गया था कि राजप्रमुख एक नवीन विलय पत्र अमल में लायेंगे जिसके अनुसार भारत की संविधान सभा द्वारा कर एवं शुल्क को छोड़कर, संघीय एवं राज्य की विधान सभा के विधान की समवर्ती सूची में शामिल किए जाने वाले समस्त विषयों को स्वीकार किया जाना आवश्यक था। इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनुभवी अधिकारियों की आवश्यकता थी। नेता लोग इस काम को नहीं कर सकते थे।
राजस्थान शासन पर अधिकारियों का कब्जा!
इस प्रकार भारत सरकार ने हीरालाल शास्त्री के मुख्यमंत्रित्व में गठित राजस्थान सरकार का काम चलाने के लिए केन्द्र से तीन अनुभवी अधिकारी भेज दिए गए। इन्होंने राजस्थान का प्रशासन अपने नियंत्रण में ले लिया। हीरालाल शास्त्री मंत्रिमंडल के शासन के दौरान भारत सरकार से सलहाकार के रूप में नियुक्त होकर आने वाले इन आई. सी. एस. अधिकारियों का बोलबाला रहा।
भारत सरकार ने इन अधिकारियों को अधिकार दे दिया कि वे मंत्रिमंडल, मुख्यमंत्री एवं मंत्री के किसी भी निर्णय को वीटो कर सकते हैं। इन अधिकारियों की सहमति के बिना मुख्यमंत्री अथवा मंत्री एक चपरासी तक की भी नियुक्ति अथवा स्थानांतरण नहीं कर सकते थे। अतः ये सलाहकार ही राजस्थान शासन के सर्वेसर्वा बन गए।
राजस्थान में आई. सी. एस. अधिकारियों की नियुक्ति के सम्बन्ध में राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री ने लिखा है-
‘मुझ पर राजस्थान के एकीकरण की बड़ी भारी जिम्मेदारी थी। उसे निभाने के लिए तीन अनुभवी आई. सी. एस. अफसर मुझे केन्द्र से दिए गए थे। मेरे पास उन आफिसरों का अच्छा उपयोग हुआ। मेरी राय में वे भले आदमी थे और योग्य भी। मेरी बात को वे मानते थे, तो मैं उनकी बात को मानता था। मेरा उनसे कभी झगड़ा नहीं हुआ, मुझे काम करना था, झगड़ा नहीं।
केवल एक बार मैंने आग्रह किया कि वित्त सचिव बाहर से नहीं आएगा, अमुक स्थानीय व्यक्ति को मैं वित्त सचिव बनाऊंगा। वह झगड़ा दिल्ली तक पंहुचा। बड़ी बदमजगी भी हुई पर उसमें हार जीत नहीं हुई।
सरदार तक कोई बात जाती तो अवश्य ही मेरा समर्थन करते जैसा कि एक बार हुआ। सरदार एक तरफ बैठे थे, और मैं दूसरी तरफ श्री वी. पी. मेनन से बात कर रहा था। सवाल यह था कि मैं अपने एक कांग्रेसी साथी को पब्लिक सर्विस कमीशन का सदस्य बना सकता हूँ या नहीं। मेनन इसका विरोध कर रहे थे।
सरदार के कान तक हमारी आवाज पहुंची तो उन्होंने दूर से ही पूछा- क्या बात है?
मैंने कहा- यह मेनन अमुक को पब्लिक सर्विस कमीशन का सदस्य बनाने का विरोध कर रहा है।
सरदार बोले- नहीं कुछ नहीं, आप तो बनाओ। ‘
आई. सी. एस. अधिकारियों द्वारा प्रशासन के वृहद राजस्थान के हर अंग पर शिकंजा कसा जाने लगा। उनके निर्देशन में विभिन्न राज्यों के अधिकारियों की सेवाओं का राजस्थान सरकार द्वारा एकीकरण किया गया। विभिन्न राज्यों में अधिकारियों के पदनाम तथा उनके वेतनमान के अंतर के कारण भारी विसंगतियां उत्पन्न हो गईं। कुछ बड़े राज्यों ने राजस्थान बनने से पहले कर्मचारियों एवं अफसरों के वेतन मनचाही रीति से बढ़ा दिए जिससे बहुत से अधिकारियों के मध्य असंतोष तथा वैमनस्य उत्पन्न हो गया।
राजस्थान शासन पर अधिकारियों का कब्जा – हर अंग पर कब्जा
हीरालाल शास्त्री वृहद राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने से पहले जयपुर रियासत के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने लिखा है कि दो-एक दूसरे बड़े राज्यों में राजस्थान बनने से पहले कर्मचारियों एवं अफसरों के वेतन मनचाही रीति से बढ़ा दिए गए। मैंने ऐसा नहीं किया इससे जयपुर के अफसर घाटे में रह गए।
जोधपुर राज्य के क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी गणेशदत्त छंगाणी, जो उन दिनों राज्य के पैट्रोल राशनिंग ऑथोरिटी तथा जोधपुर राज्य के लोकसेवा आयोग के सचिव भी थे, ने अन्य राज्यों द्वारा कर्मचारियों के वेतनमानों में की गई वृद्धि का तुलनात्मक चार्ट बनाकर जोधपुर राज्य के मुख्यमंत्री जयनाराण व्यास के सम्मुख प्रस्तुत किया किंतु व्यास ऐसा नहीं कर सके जिससे जोधपुर राज्य के कर्मचारी अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़ गए।
अराजकता की स्थिति
बी. एल. पानगड़िया ने लिखा है- आई.सी.एस. अधिकारियों ने राज्य सेवाओं में ऐसी धांधली मचायी कि तहसीलदार राजस्थान प्रशासनिक सेवा में आ गए और रियासतों में रहे विभागाध्यक्ष तहसीलदार बना दिए गए। एक बड़ी इकाई का चीफ इंजीनियर, असिस्टेंट इंजीनियर बना दिया गया, जबकि उसके अधीन रहे असिस्टेंट इंजीनियर को एक्जीक्यूटिव इंजीनियर बना दिया गया।
कुछ लिपिकों को सहायक सचिव एवं सहायक सचिवों को लिपिक बना दिया गया। सचिवालय में सचिवों, उपसचिवों एवं विभागाध्यक्षों के प्रायः सभी स्थानों पर केंद्र अथवा अन्य राज्यों के अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर लाकर नियुक्त कर दिया गया। फलस्वरूप विभिन्न रियासतों से आए हुए अधिकारियों एवं कर्मचारियों में भयंकर असंतोष फैल गया। सभी स्तरों पर राज्यकार्य ठप्प सा हो गया।
कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ता स्वतंत्रता आंदोलन में दिए गए सहयोग के बदले में सरकारी नौकरियां मांगने लगे। मेवाड़ राज्य की स्टेट गैरेज का एक मैकेनिक नौकरी छोड़कर प्रजामण्डल में सम्मिलित हो गया था। जब राजस्थान बना तो उसने प्रधानमंत्री माणिक्यलाल वर्मा से मांग की कि उसे राजस्थान स्टेट गैरेज का अधीक्षक बना दिया जाए।
स्थानीय कांग्रेस सेवा दल के एक कमाण्डेण्ट ने मांग की कि उसे पुलिस अधीक्षक बनाया जाए। जिला कांग्रेस समिति के सचिव ने मांग की कि उसे जिले का कलक्टर बनाया जाए। इनमें से किसी को नौकरी पर नहीं लिया गया। केवल एक व्यक्ति को उसके ओहदे से काफी बड़ा पद दिया गया।
टोंक रियासत के एक माली को नवाब से अलग होने के उपहार के रूप में तहसीलदार बनाया गया। उसके उच्च वेतनमान को देखते हुए ऐसा किया गया। वह पूर्णतः अशिक्षित था। माली ने तहसीलदार की नौकरी छोड़ दी तथा सरकार से मांग की कि उसे माली ही रहने दिया जाए। उसे फिर से माली बना दिया गया किंतु टोंक नवाब के वायदे का सम्मान करने के लिए उसका वेतनमान तहसीलदार वाला रखा गया।
इस प्रकार काफी समय तक केन्द्र से आए आई. सी. एस. अधिकारी राजस्थान का शासन चलाते रहे तथा राजस्थान के नेता उनसे किसी ने किसी बात पर लगातार झगड़ा करते रहे किंतु सरदार पटेल के व्यक्तित्व से प्रभावित हीरालाल शास्त्री ने इस समस्या का सामना करने का प्रयास किया किंतु वे नेताओं को संतुष्ट नहीं कर पाए।
हीरालाल शास्त्री से नाराज नेताओं ने इतना हो-हल्ला मचाया कि भारत सरकार ने हीरालाल शास्त्री से कहा कि वे त्यागपत्र देकर सरकार से अलग हो जाएं।
5 जनवरी 1951 को हीरालाल शास्त्री को सरकार से त्यागपत्र देना पड़ा। लगभग 6 साल तक रानजीतिक सन्नाटे में बिताने के बाद शास्त्री को 1957 के चुनावों में लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया और वे राजस्थान से दिल्ली चले गए। यद्यपि शास्त्री 1974 तक जीवित रहे किंतु वे राजस्थान की राजनीति से सदा के लिए बाहर हो गए।
शास्त्री सरकार के पतन के बाद आई. सी. अधिकारी सी. एस. वेंकटाचारी को ही राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया गया। वे 6 जनवरी 1951 से 25 अप्रेल 1951 तक राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे। यह एकमात्र उदाहरण है जब किसी सरकारी अधिकारी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। अब नेताओं ने वेंकटाचारी के विरुद्ध हो-हल्ला मचाया।
इस पर जयनारायण व्यास को मुख्यमंत्री बनाया गया। शास्त्री के विरुद्ध हो-हल्ला मचाने वालों में जयनारायण व्यास ही सर्वप्रमुख थे।
इस प्रकार राजस्थान शासन पर अधिकारियों का कब्जा! कोई काल्पनिक बात नहीं है अपितु इतिहास की सच्चाई है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता