राजस्थान पर सातवाहन अधिकार कहाँ से कहाँ तक और कब से कब तक रहा, इसके बारे में कोई निश्चित जानकारी अब तक नहीं मिल सकी है किंतु राजस्थान के कुछ हिस्से पर तथा कुछ समय के लिए सातवाहनों का अधिकार अवश्य ही रहा था, इसके पुष्ट संकेत मिलते हैं।
सातवाहनों का उत्कर्ष कण्व वंश के पतन के पश्चात् हुआ। दक्षिण में प्रतिष्ठान नगर इनकी राजधानी था। शातकर्णि (प्रथम) के पश्चात् और गौतमीपुत्र शातकर्णि के उदय के पूर्व शासन करने वाले सातवाहन नरेश दुर्बल थे। इस कारण इस काल में राजस्थान, मालवा और गुजरात में शक जाति अधिक शक्तिशाली हो गई।
शक वंशों में प्रथम स्थान क्षहरात वंश का था। इस वंश के दो ज्ञात नरेश भूमक और नहपान है। राजस्थान के कुछ भागों पर इनका निश्चित रूप से अधिकार था। भूमक के सिक्के राजस्थान के अजमेर क्षेत्र के अलावा गुजरात तथा महाराष्ट्र से प्राप्त हुए हैं। [1]
नहपान की मुद्राएं उत्तर में अजमेर (पुष्कर) से लेकर दक्षिण में नासिक तक प्राप्त होती हैं। [2] इन मुद्राओं से नहपान के राज्य का विस्तार अजमेर से उत्तरी महाराष्ट्र तक संकेतित होता है। नहपान का जमाता उषवदात था जो नासिक एवं पूना का प्रांतपति था। उसने ‘भट्टारक’ के आदेशानुसार राजस्थान में निवास करने वाले उत्तमभद्रों की, जिन्हें मालवों ने घेर लिया था, सहायतार्थ मालवों को पराजित करके पुष्कर तीर्थ में स्नान किया तथा भूमि एवं गौ आदि का दान दिया था। इन तथ्यों से क्षहरातों का राजस्थान के कुछ भागों पर अधिकार निश्चित रूप से प्रमाणित होता है। [3]
क्षहरात वंश का शासन कब प्रारम्भ हुआ इस सम्बन्ध में विवाद है। [4]नहपान की प्रथम ज्ञात तिथि 41 व अन्तिम ज्ञात तिथि 46 है। अनेक विद्वान इन तिथियों को शक संवत् की मानते हैं। [5] जैन परम्परानुसार नहपान ने 40 या 42 वर्ष राज्य किया। 46वें वर्ष को शक संवत् की तिथि मानने और उपयुक्त जैन परम्परा को सही मानने पर नहपान का राज्य 42 या ईस्वी 84 में प्रारम्भ हुआ मानना पड़ेगा। [6]
इससे 5 या 7 वर्ष पूर्व भूमक ने राज्य किया होगा। भूमक किसी के अधीन राज्य कर रहा था, अथवा स्वतन्त्र नरेश था, यह निश्चित नहीं है। [7] इसी समय कुषाणों का उत्कर्ष हुआ और ईस्वी 78 में कनिष्क (प्रथम) ने राज्य करना प्रारम्भ किया। इस समय कच्छ में हम चष्टन को राज्य करता पाते हैं। उसका अन्धौ अभिलेख 11वें वर्ष का है। [8]
कच्छ के आस-पास के कुछ भाग पर भी यदि चष्टन का अधिकार रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। सम्भवतः चष्टन के वंश का उदय भी स्वतंत्र रूप से हुआ। उसके 11वें वर्ष और नहपान के 41 व 46 वर्ष को शक संवत् की तिथियां मानने पर यह निश्चित हो जाता है कि इन राजवंशों ने कुषाणों का आधिपत्य मान लिया था। कुषाणों के सिक्के राजस्थान में भी प्राप्त हुए हैं और राजस्थान की तत्कालीन कला पर भी उनका प्रभाव स्पष्ट है। अतः यह सिद्ध होता है कि राजस्थान पर शासन करने वाले क्षहरात एवं कार्दमक, कुषाणों के अधीन राज्य कर रहे थे। [9]
कुषाण नरेश हुविष्क के काल में, जिसने लगभग ईस्वी 106 से 138 तक राज्य किया था, दक्षिण में सातवाहनों का पुनः उत्कर्ष हुआ। इसी समय गौतमीपुत्र शातकर्णि ने अपने वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त किया। बलश्री के नासिक गुहालेख में गौतमीपुत्र को ‘खखरात-वस-निरवसेसकरस’ अर्थात् क्षहरात वंश को निरवशेष करने वाला कहा गया है। उसे शक, पह्लव, यवन निसूदन अर्थात शकों, पहलवों, यवनों का नाश करने वाला भी कहा गया है। [10]
क्षहरात वंश के शासक नहपान पर गौतमी पुत्र शातकर्णि की विजय मौद्रिक एवं साहित्यिक साक्ष्य से प्रमाणित होती है। नासिक जिले के जोगलथम्बी नामक स्थान से प्राप्त नहपान के चाँदी के सिक्कों से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र ने उन्हें पुनः टंकित करवाया था। [11]
जैन ग्रन्थ ‘निशीथ चूर्णि’ में भी नहपान के पराजित होने का उल्लेख है। अतः गौतमीपुत्र शातकर्णि का राजस्थान के उन प्रदेशों पर भी अधिकार हुआ जहाँ पहिले क्षहरातों का राज्य रहा था। गौतमीपुत्र शातकर्णि के राजस्थान पर अधिकार की पुष्टि अभिलेखों से भी होती है। उसके अभिलेख में जिन पर्वतों के नाम गिनाये गये हैं उनमें ‘पारियात्र’ अर्थात् विन्ध्य पर्वतमाला का पश्चिमी भाग और अरावली पर्वत-माला का भी उल्लेख है। [12]
गौतमीपुत्र शातकर्णि ने ‘कुकुर’ प्रदेश को भी जीता जिसका तादात्म्य पश्चिमी राजस्थान से किया जाता है। डी. सी. सरकार ने ‘कुकुर’ को उत्तरी काठियावाड़ में आनर्त के पास बताया है, पं. गौरी शंकर हीराचन्द ओझा इसे मन्दसौर के उत्तर-पूर्व में स्थित कुकरेश्वर से अभिन्न माना है और डी. आर. भाण्डारकर ने आधुनिक गुजरात से। भगवानलाल इन्द्रजी ने कुकुर को पूर्वी राजस्थान में स्थित माना है और आर. जी. भाण्डारकर ने इसकी पहिचान हुएनत्सांग के कि-चो-लो से की है जो राजस्थान में था। यही मत सत्य के निकट प्रतीत होता है। इस साक्ष्य से प्रमाणित होता है कि चाहे कितने ही अल्पकाल के लिये सही, क्षहरातों के बाद राजस्थान पर सातवाहन अधिकार कुछ सीमित भागों पर अवश्य ही हो गया था।
राजस्थान के ये प्रदेश गौतमीपुत्र शातकर्णि के हाथ से शीघ्र ही निकल गये। नहपान की पराजय के समय कुषाण शासक अपने अधीन शासकों की कुछ भी सहायता नहीं कर सका, अतः चष्टन भी स्वतन्त्र हो गया। अब तक यह धारणा रही है कि उसे कुषाणों ने ही अपने खोये हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त करने के लिये नियुक्त किया था परन्तु उसके 11वें वर्ष के अन्धौ अभिलेख के मिलने से यह धारण निर्मूल हो चुकी है। [13]
इतना अवश्य माना जा सकता है कि चष्टन ने शीघ्र ही सातवाहन राज्यों के उत्तरी प्रदेशों को छीन लिया था। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि गौतमीपुत्र के काल में सातवाहनों के राज्य को क्षति नहीं हुई थी। वे वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के काल में सातवाहनों के प्रदेशों की क्षति हुई मानते हैं किंतु यह मान्यता सही नहीं है क्योंकि वे प्रदेश गौतमीपुत्र के शासन काल में ही सातवाहनों के हाथ निकल गये थे।
बाद में रुद्रदामा (प्रथम) ने अपनी विजयों से राजस्थान के एक बहुत बड़े भाग पर पुनः अधिकार कर लिया। रुद्रदामा (प्रथम) के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामा (प्रथम) ने अवन्ति, अनूप, निवृत, आनर्त, सुराष्ट्र, श्वभ्र, मरु, सौवीर कुकुर, अपरान्त और निषाद आदि प्रदेशों पर विजय प्राप्त की तथा यौधेयों को पराजित किया। [14]
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राजस्थान पर सातवाहन अधिकार क्षहरातों के अन्त और कार्दमकों के उत्थान के बीच में कुछ समय के लिए रहा था। राजस्थान पर सातवाहन अधिकार अल्पकालिक सिद्ध हुआ।
सन्दर्भ
[1] दशरथ शर्मा, (सम्पा.), राजस्थान थ्रू दी एजेज, पृ. 54; मजूमदार व पुसाल्कर (सम्पा.), एज ऑफ इम्पीरियल यूनिटी पृ. 179.
[2] ए. इ. यू., पृ. 180.
[3] प्रोसिडिंग्स ऑफ राजस्था हिस्ट्री कांग्रेस, पाली अधिवेशन, पृ. 1-4.
[4] एस. चट्टोपाध्याय, दि शक्स इन इण्डिया
[5] ए. ई. यू. पृ. 180.
[6] सोहनकृष्ण पुरोहित, राजस्थान पर सातवाहन आक्रमण, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स।
[7] ए. ई. यू., पृ. 179.
[8] जर्नल ऑफ एन्शियेण्ट इण्डियन हिस्ट्री, 1, पृ. 100-11.
[9] दशरथ शर्मा, पूर्वोक्त, पृ. 55-57; ए. इ. यू., पृ. 180-1; भण्डारकर, इण्डियन एण्टिक्वरी, 26, पृ. 153.
[10] इ. आई., 8, पृ. 59-62.
[11] च. भा. पाण्डेय, आन्ध्र-सातवाहन साम्राज्य का इतिहास, पृ. 57.
[12] डी. सी. सरकार, सलेक्ट इन्स्क्रिप्शस, पृ. 205, ए. इ. यू., पृ. 202.
[13] शोभना गोखले, जे. आई. एच., 2, पृ. 104-11.
[14] डी. सी. सरकार, पूर्वोक्त, पृ. 178, इ. आई., 8, पृ. 178.