राजस्थान का नामकरण किसी एक दिन में या किसी निश्चित समय पर नहीं हुआ। यह एक युग- युगीन प्रक्रिया थी जिससे गुजरने के बाद राजस्थान को अपना वर्तमान नाम मिला।
जिस प्रदेश को आजकल राजस्थान कहा जाता है, वह स्वातंत्र्योत्तर एकीकरण के पूर्व न तो एक राजनीतिक इकाई था और न ही एक भौगोलिक इकाई। इस प्रदेश में अलग-अलग समयों में अलग-अलग राज्य थे जिनके अलग-अलग समय में अलग-अलग नाम थे।
विभिन्न क्षेत्रों के नाम
महर्षि वाल्मीकि ने राजस्थान प्रदेश को ‘मरुकान्तार‘ कहा है। यह राजस्थान का नामकरण होने की शुरुआत थी। महाभारत काल में इस भू भाग के विभिन्न क्षेत्रों को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता था। वर्तमान बीकानेर क्षेत्र को कुरू जांगलाः तथा जोधपुर क्षेत्र को माद्रेय जांगलाः कहा जाता था।
प्राचीन अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरू देश में, दक्षिणी और पश्चिमी भाग मत्स्य देश में तथा पूर्वी भाग शूरसेन देश में था। भरतपुर, धौलपुर तथा करौली क्षेत्र शूरसेन देश में थे। शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा, मत्स्य की विराट और कुरू की इन्द्रप्रस्थ थी।
उदयपुर राज्य का पुराना नाम शिवि था। इसे बाद में मेदपाट तथा प्रग्वाट कहा जाने लगा। यहाँ के शासक निरंतर म्लेच्छों से संघर्ष करते रहे अतः इसे मेदपाट अर्थात् म्लेच्छों को मारने वाला कहा जाने लगा। मेदपाट बिगड़ कर मेवाड़ हो गया। मेवाड़ में भैंसरोड़गढ़ से लेकर बिजलोलिया तक का क्षेत्र ऊपरमाल कहलाता था। गोगुंदा, धरियावद, इसवाल, राजसमंद एवं कुंभलगढ़ का क्षेत्र भौराट का पठार कहलाता था।
डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा क्षेत्र व्याघ्रवाट कहलाता था जो बाद में वागड़ कहलाने लगा । डूंगरपुर, पूर्वी सिरोही तथा उदयपुर जिलों का अगम्य पर्वतीय क्षेत्र भौमट कहलाता था।
झालावाड़, छबड़ा, पिड़ावा तथा सिरोंज के हिस्से मालव प्रदेश के अंतर्गत थे। अलवर के आसपास का क्षेत्र मेव जाति के नाम पर मेवात कहलाने लगा।
प्रतापगढ़ जिले में माही नदी के आसपास के भूभाग को कांठल कहा जाता था क्योंकि वह माही नदी के कांठे में स्थित था। प्रतापगढ़ तथा बांसवाड़ा के बीच का भाग छप्पन कहलाता था।
सांभर तथा अजमेर के क्षेत्र को सपादलक्ष कहते थे। इस क्षेत्र को शाकंभरी भी कहा जाता था। कोटा और बूंदी जिले के क्षेत्र, जो पहले सपादलक्ष के अंतर्गत थे बाद में चौहानों की हाड़ा शाखा द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती कहलाने लगे। हाड़ौती हारावती शब्द का अपभ्रंश है।
नागौर क्षेत्र को ईसा की पाँचवी शताब्दी के आसपास अहिच्छत्रपुर कहते थे। बाद में चौहानों द्वारा शासित होने के कारण इसे श्वाळक कहा जाने लगा। श्वाळक, सपादलक्ष से अथवा सवा लाख से बना है। माना जाता है कि चौहानों के अधिकार में सवा लाख इकाई वाली धरती थी। यह इकाई कौनसी थी, इसका पता नहीं है।
हनुमानगढ़ को भाटियों द्वारा शासित होने के कारण भटनेर कहने लगे। यहाँ स्थित दुर्ग आज भी भटनेर का दुर्ग कहलाता है। दक्षिणी गंगानगर, दक्षिण पूर्वी हनुमानगढ़, बीकानेर एवं चूरू के मरुस्थलीय भाग थली या उत्तरी मरुभूमि कहलाते थे।
जयपुर क्षेत्र में मिट्टी के ढूह अधिक संख्या में उपस्थित होने से यह क्षेत्र ढूंढाड़ कहलाता था। इसी क्षेत्र से लगता हुआ सीकर झुंझुनूं, खेतड़ी और चूरू आदि क्षेत्र रियासती काल में राव शेखा के वंशजों की पाँच शाखाओं द्वारा शासित होने के कारण पंचपाना और शेखावाटी कहलाने लगा।
जोधपुर क्षेत्र को मरु तथा धन्व भी पुकारा जाता था। जो कालांतर में मरुधन्व, मरुधर, मरुवार तथा मारवाड़ हो गया। डीडवाना से जालोर का क्षेत्र किसी समय गुर्जरात्र कहलाता था। बाद में यह क्षेत्र सारस्वत क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता था।
सिरोही की गणना अर्बुद देश में होती थी। भीनमाल और उसके आस पास का क्षेत्र श्रीमाल कहलाता था।
जैसलमेर राज्य का पुराना नाम माड़ था। इसके आसपास का क्षेत्र वल्ल तथा दुंगल कहलाता था। आबू पर्वत से लेकर जालोर, बाड़मेर, पाली जोधपुर, जैसलमेर आदि तक का क्षेत्र परमारों के काल में नवकोटि कहलाया।
बाद में इस क्षेत्र में से जो हिस्सा राठौड़ों के अधीन रहा उसे नवकोटि मारवाड़ कहने लगे। लूनी बेसिन के अंतर्गत जालोर, पाली तथा बाड़मेर के कुछ भाग गोड़वाड़ कहलाते थे। बाड़मेर जिले का वह क्षेत्र जो राठौड़ मल्लीनाथ एवं उसके वंशजों द्वारा शासित था, मालानी कहलाता था।
मारवाड़, मेवाड़ तथा अजमेर की सीमाओं के बीच मेर के पहाड़ी क्षेत्र में मेर जाति निवास करती थी जिनके नाम पर यह क्षेत्र मेरवाड़ा कहलाता था।
इस प्रकार किसी भू भाग का नाम सदैव एक नहीं रहा अपितु वह भौगोलिक विशेषताओं अथवा शासक वंशों के नाम पर बदलता रहा।
मध्यकालीन नामकरण
प्राचीन काल में इस क्षेत्र में क्षत्रिय जातियां शासन करती थीं। उस काल में राजस्थान का नामकरण नहीं हुआ था। मध्यकाल में इस क्षेत्र के शासक राजपूत कहलाते थे। इस काल में भी राजस्थान का नामकरण नहीं हो पाया।
मध्यकाल में प्रारम्भिक मुसलमान आक्रांताओं ने इस क्षेत्र को राजपूतों द्वारा शासित क्षेत्र के रूप में पहचाना। उस काल में इस क्षेत्र के लिए समग्र रूप से कोई एक नाम नहीं था। विभिन्न राज्यों की पहचान अलग-अलग नामों से ही की जाती रही होगी।
आधुनिक काल में राजस्थान का नामकरण
राजपूताना
मुगल शासक राजपूत जाति को बहुवचन में राजपूतां कहते थे। संभवतः इसी शब्द के आधार पर उनके द्वारा शासित क्षेत्र के लिए ‘राजपूताना’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ई.1800 में जॉर्ज थॉमस ने किया।
विलियम फ्रेंकलिन ने ई.1805 में ‘मिल्ट्री मेमोयर्स ऑफ मिस्टर जॉर्ज थॉमस’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें उसने कहा कि जार्ज थॉमस सम्भवतः पहला व्यक्ति था, जिसने राजपूताना शब्द का प्रयोग इस भू-भाग के लिए किया था।
रायथान
कर्नल जेम्स टॉड ने इस प्रदेश का नाम ‘रायथान’ रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को ‘रायथान’ कहते थे।
राजस्थान
वि.सं. 682 (ई.625) के बसंतगढ़ शिलालेख (सिरोही जिले में) में राजस्थान शब्द का प्राचीनतम प्रयोग ‘राजस्थानीयादित्य’ के रूप में मिलता है। ‘मुहणोत नैणसी की ख्यात’ व वीरभान के ‘राजरूपक’ में भी राजस्थान शब्द का प्रयोग हुआ। उस काल में इस शब्द का प्रयोग वर्तमान राजस्थान नामक प्रांत के लिए नहीं होकर ‘राजा के स्थान’ के लिए हुआ।
कर्नल जेम्स टॉड ने ई.1829 में लिखित ‘एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान ऑर सेंट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इण्डिया में सर्वप्रथम इस भौगोलिक प्रदेश के लिए ‘राजस्थान’ शब्द का प्रयोग किया।
26 जनवरी, 1950 को इस प्रदेश का नाम राजस्थान स्वीकृत किया गया। इस प्रकार राजस्थान प्रांत के राजस्थान नामकरण का श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को जाता है। जेम्स टॉड ने अपनी इस पुस्तक में राजस्थान की सामंती व्यवस्था का विस्तार से उल्लेख किया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता