Tuesday, September 17, 2024
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मारवाड़ में पंचायत व्यवस्था

मारवाड़ में पंचायत व्यवस्था अत्यंत प्राचीन काल से अस्तित्व में थी। वैदिक काल में ये पंचायतें पूरे जन की होती थीं किंतु उत्तर वैदिक काल में इन्होंने जाति आधारित पंचायतों का रूप ले लिया। मारवाड़ में पंचायत व्यवस्था आजादी के समय तक चलता रहा तथा कुछ जातियों में यह अब भी उसी रूप में प्रचलित है।

ऋग्वेद में वर्णित आर्य-जन अर्थात् आर्यों के समूहों में सभा एवं समिति जैसी कुछ नागरिक संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। इन संस्थाओं में प्रजा को अपना मत रखने का अधिकार होता था। ऋग्वैदिक काल में इन संस्थाओं की उपस्थिति भारतीय समाज में वर्तमान पंचायती संस्थाओं का आभास कराती है। उत्तरवैदिक काल में भारत में आर्यजन जनपदों में बदल गए जो बाद में महाजनपदों में संगठित होते हुए मगध, उज्जैनी एवं गांधार साम्राज्यों में बदल गए। भारत भूमि पर प्रत्येक काल में राज्यों के साथ-साथ गणतंत्रीय व्यवस्था वाले राज्यों का अस्तित्व रहा।

प्राचीन भारत में गांवों एवं नगरों में वृद्धों या सद्गृहस्थों की एक सभा होती थी, जिसे महाजन सभाकहते थे। [1] महाजन सभा के अधिकार बड़े विस्तृत थे। उसे अपने गांव या नगर में कर या चुंगी लगाने के अधिकार थे। ‘महाजन सभा’ जनसामान्य के जीवन तथा धन-सम्पत्ति की सुरक्षा के लिये स्थानीय पुलिस का कार्य करती थी। सार्वजनिक कार्यों की व्यवस्था के लिये तथा स्थानीय समस्याओं को सुलझाने के लिये उस सभा के सदस्य समय-समय पर विचार-विमर्श किया करते थे। महाजन सभा में सदस्यों को संख्या अधिक होती थी। इस सभा में से ही कुछ सदस्यों की एक समिति बनाई जाती थी जिसे ‘पंचकुल’ कहा जाता था। [2] ये संस्थाएं मौर्यकाल से पहले से भारत में विद्यमान थीं। पंचकुलों का उल्लेख मैगस्थनीज के पाटलीपुत्र सम्बन्धी विवरण में भी मिलता है। धीरे-धीरे महाजन सभा का स्थान पंचकुलों ने ले लिया। ये पंचकुल उन्नीसवीं शताब्दी में, मारवाड़ में पंचायतों के रूप में कार्य कर रहे थे।[3]

पंचायतों का संगठन

साधारणतः किसी भी पंचायत में पंचों की संख्या पांच होती थी फिर भी जनसंख्या के अनुपात से उनकी संख्या कम या अधिक हो सकती थी। उच्च जातियों की पंचायत में, विभिन्न जातियों के गोत्रों का पृथक-पृथक प्रतिनिधित्व होता था।[4] मेड़तिया सिलावटों में पांच घरों के पीछे एक पंच होता था। मोचियों में चार पंच और एक चौधरी होता था। खटीक, कुम्हार, मुसलमान, छींपे एवं लोहार आदि जातियों के पंच महत्तर कहलाते थे। [5]

जाति के सभी पंच मिलकर अपने मुखिया अर्थात् सरपंच का चुनाव करते थे। भांभी, मोची, माली, आदि जातियों में ‘चौधरी’ का स्तर एवं पद सरपंच के तुल्य होता था। सीरवी जाति का मुखिया ‘दीवान’ कहलाता था जो उनका धर्मगुरु भी होता था।[6] गिरासियों का प्रधान ‘सेलोत’ कहलाता था। जाटों में गांव ईदाणा, खियाला, डांगावास, कालू, और भंवर के जाट ‘सरपंच’ होते थे।[7]

पंचों का चुनाव

पंचों का चुनाव उनकी योग्यता, सच्चाई, अनुभव, प्रतिष्ठा एवं पद के आधार पर होता था। आयु का प्रश्न गौण था। कुछ जातियों में वंशानुगत पंच भी होते थे। मोची कुम्हार, भांभी एवं माली यादि जातियों के चौधरियों की नियुक्ति राज्य द्वारा होती थी।[8] जाति पंचायत में एक जाति विशेष के पंच होते थे परन्तु ग्राम पंचायतों में विभिन्न सवर्ण जातियों के पंचों एवं राज्य का प्रतिनिधित्व होता था। पंच एक बार चुने जाने पर जीवन पर्यन्त अपने पद पर रहते थे परन्तु राज्य द्वारा नियुक्त पंच शुल्क की अवधि समाप्ति के पश्चात् बदले जा सकते थे। [9]

बैठक

आवश्यकता होने पर एवं किसी व्यक्ति द्वारा जाति के नियमों के पालन में शिथिलता बरतने पर पंच लोग पंचायत की बैठक बुलवाते थे ताकि उन नियमों में समुचित परिवर्तन किया जा सके। [10] पारस्परिक झगड़ों में वादी द्वारा पंचों के घर जाकर प्रार्थना करने पर पंचायत अर्थात् जाति की बैठक बुलाई जाती थी। [11] पंचायत की बैठक सामान्यतः किसी व्यक्ति के मकान, नौहरे, मन्दिर या खुले स्थान में किसी पेड़ के नीचे होती थी। जाट अपनी पंचायत गाँव की चौपाल में करना पसन्द करते थे। [12]

पंचायत के समय पंचों के बैठने की व्यवस्था विभिन्न जातियों में पृथक्-पृथक् उच्च जातियों के पंच विद्यायतके ऊपरी भाग पर बैठा करते थे, तो जाटों के पंच अर्द्धचन्द्राकार पंक्ति में बैठते थे। भंवर के जाट न्याय करते समय एक पत्थर की शिला पर बैठते थे। उन्हें यह विश्वास था कि पूर्वजों के वरदान से उस शिला पर बैठने वाला समुचित ढंग से न्याय कर सकेगा।[13] बालदिये, खटीक, कालबेलिये आदि जातियों के पंच भूमि पर गोल कुण्डल बनाकर आमने-सामने बैठ कर पंचायत किया करते थे।[14]

न्याय करते समय पंचों की भाषा मारवाड़ी रहती थी। चढवों के पंच आपस में तो मुलतानी भाषा में बातचीत करते थे परन्तु दूसरों से मारवाड़ी या मारवाड़ी-मिश्रित उर्दू में बातचीत करते थे।[15]

निम्न जातियों में वादी और प्रतिवादी दोनों पंचों के सम्मुख निर्णय प्राप्त करने के लिये अपनी लाठियां डाल देते थे। यह उनकी एक प्रकार से पंचों द्वारा किये जाने वाले न्याय से सहमति की सूचक थी।[16]

पंचों को पंचायत की बैठक तक लाने की करनी पड़ती थी। उस समय होने वाले खर्च का भार भी इन्हीं लोगों को उठाना पड़ता था जो मुख्यतः शराब, अफीम एवं तम्बाखू पर होता था। [17]

कार्य प्रणाली

सरपंच या अन्य कोई पंच प्रतिवादी को उसके विरुद्ध लगाए गये वादी के आरोपों को सुनाता था। यदि प्रतिवादी अपने विरुद्ध लगाये गये आरोपों को स्वीकार कर लेता था तो पंच अपने निर्णय में उस पर लगाये जाने वाले दण्ड का निश्चय करते थे। प्रतिवादी के द्वारा उस पर लगाये गये आरोपों के अस्वीकृत किये जाने पर वादी तथा प्रतिवादी दोनों अपने पक्ष में साक्षी एवं साक्ष्य उपस्थित करते थे। इस प्रकार एक लम्बा वाद-विवाद उठ खड़ा होता था। [18] सच्चाई जानने के लिये पंच साक्षियों से विवाद से सम्बन्धित कुछ प्रश्न करते थे। साक्षियों को सत्य वृत्तांत कहने की शपथ दिलवाई जाती थी। शपथ पुत्र की भुजा पर हाथ रखकर, या गीता हाथ में देकर या किसी मन्दिर में मूर्ति को साक्षी रखकर दिलवाई जाती थी। राजकीय न्यायालयों में ‘गद्दी की आन’ की शपथ दिलवाई जाती थी।[19]  लोग झूठी शपथ खाने से डरते थे। अतः शपथ वस्तुस्थिति की सच्चाई को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त समझी जाती थी। पंच लिखित प्रमाण पत्रों की सत्यता की जांच करते थे और अपना निर्णय अधिकतर उन्हीं के आधार पर देते थे।[20] 

निर्णय देते समय पंच एकमत होकर ही निर्णय देते थे परन्तु एकमत न होने पर, बहुमत के आधार पर भी निर्णय दिया जाता था।

पंचों के न्याय से सन्तुष्ट न होने वाला व्यक्ति राजकीय न्यायालयों की शरण ले सकता था। राजकीय न्यायालय भी पंचायतों द्वारा न्याय करवाते थे। [21] वादी तथा प्रतिवादी दोनों पंचायत के लिये अपनी-अपनी ओर के पंचों को कोतवाली चबूतरे या अन्य किसी निर्धारित स्थान पर एकत्रित करते थे। इस पंचायत की अध्यक्षता राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारी करता था।[22]  पंचायत की कार्यवाही प्रारम्भ होने के पहिले वादी तथा प्रतिवादी दोनों एक मुचलका भरते थे। पंचायत के निर्णय से सन्तुष्ट न होने वाला व्यक्ति राज्य में मुचलके के पैसे भर कर दूसरी पंचायत बुला सकता था। इस तरह एक व्यक्ति मुचलके के पैसे भर कर दो या तीन बार पंचायत की बैठक बुलवा सकता था। [23]

गांवों के चारागाहों, तालाबों इत्यादि के झगड़ों में जहाँ एक से अधिक व्यक्तियों का स्वार्थ रहता था, निर्णय सम्बन्धित गांवों के पंचों पर छोड़ दिया जाता था। कभी-कभी स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये दो या उससे भी अधिक गांवों के पंचों द्वारा पंचायत कराई जाती थी। खेडूली एवं पोलावास गांवों के लोगों के बीच पशु चराने के चारागाह झगड़े को ग्यारह गांवों के पंचों ने मिलकर तय किया था। [24]

सभी प्रयासों के असफल हो जाने पर सच्चाई जानने के लिये दिव्य परीक्षा का सहारा लिया जाता था। इसमें वादी या प्रतिवादी किसी मन्दिर में जाकर ईश्वर को साक्षी मानकर अपने सच्चे होने की शपथ लेता था। सच्चाई की परीक्षा के लिये कुछ दिनों की अवधि निश्चित कर दी जाती थी। उस अवधि में शपथ लेने वाले को किसी प्रकार की हानि हो जाती तो वह झूठा माना जाता था। [25]

ई.1988 में बिराई एवं कासटी गाँवों के पंचों के बीच गांव की सीमा (सींव कांकड़) का विवाद था। विवाद को परस्पर बातचीत से शान्त न होता देख, उन्होंने उसका निर्णय ईश्वर पर छोड़ दिया। बिराई के पंचों ने समझौता इस शर्त पर स्वीकार किया कि कासटी के पंचों में से कोई, जिसे वे चुनें, विवादग्रस्त भूमि में खड़ा होकर आला ओढ़ कर‘ (ईश्वर के दण्ड का भागी होकर) जो सीमा रेखा खींच देगा वही उन्हें स्वीकार होगी। परन्तु पन्द्रह दिन की अवधि में शपथ खाने वाले के जीवन में निम्न लिखित घटनाओं घटना घट गई तो वे उन्हें झूठा और दोषी करार देंगे-

(1) उसके घर में किसी व्यक्ति या पशु की मृत्यु हो जाय।

(2) चलते फिरते के चोट लग जाय और उसके हाथ पैर या सिर फट जाय।

(3) वह पानी में डूब जाय।

(4) उसके घर में चोरी हो जाय।

(5) उस पर चोरी का अभियोग लग जाय।

(6) यदि उसने कोई चोरी पहले की हो परन्तु वह इन दिनों में प्रकट हो जाय।

(7) आकाश से ओले गिरें और उसके लग जाय।

(8) अधिक अफीम के प्रयोग से उसकी मृत्यु हो जाय।

बिराई गांव के पंच पन्द्रह दिन तक अपने सभी कार्यों से मुक्ति पाकर कासटी के पंचों के घर केवल यही जानने के लिए रहे कि ईश्वर को क्या स्वीकार है। [26]

पवित्र प्राणियों का वध या धर्मनिषिद्ध कार्य करने वाला व्यक्ति स्वतः ही अपने अपराध स्वीकार कर लेता था। उसके अन्तःस्थल में प्रायश्चित की भावना रहती थी। लोगों का विश्वास था कि यदि इस लोक में उन्होंने अपने पापों का प्रायश्चित नहीं किया तो उनको दूसरे लोक में यमराज के हाथों कठोर दण्ड भोगना पड़ेगा। [27]

पंचायतों का कार्य मौखिक होता था परन्तु राज्य की ओर से बुलाई गई पंचायत के कार्य का विवरण एवं निर्णय राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारी द्वारा लिपिबद्ध किया जाता था। [28] पंचायत के निर्णय से सहमत हो जाने पर वादी तथा प्रतिवादी दोनों आपस में ‘राजीनामा’ लिखते थे। पंचायत द्वारा किये गये किसी न्याय की ‘ढूंढ़ी’ (ढौंढी) समस्त जाति या गांव के लोगों में भी पिटवा दी जाती थी, जिससे जनसाधारण अपराध एवं उस पर मिलने वाले दण्ड से अवगत हो जाता था। [29]

कार्य क्षेत्र

पंचायतों का कार्य-क्षेत्र बहुत विस्तृत था। उन्हें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका सम्बन्धी बहुत से अधिकार प्राप्त थे। जाति-पंचायतें अपनी जाति की उन्नति के लिये समय-समय पर नियम बनाती थीं। जोधपुर के मालियों ने संवत् 1947 में इकट्ठे होकर सगाई, विवाह, नाता, गोद, तलाक, खानपान, वेशभूषा इत्यादि के लिये कुछ नियम बनाये। जाति के सभी लोगों ने, ‘जो वहाँ उपस्थित थे इन नियमों का पालन करने की शपथ खाई और कहा कि उनके वंशजों में से किसी ने इन नियमों का पालन किया तो उन्हें चौहत्तर गायें मारने का पाप लगेगा और वे ईश्वर और गंगाजी से विमुख होंगे।  [30]

संवत् 1918 में घाँचियों ने अपनी जाति के आपसी झगड़ों की हिंसावृति को मिटाने के लिये यह निश्चय किया कि वे अपने आपसी झगड़ों में कभी भी कानून हाथ में लेकर, लड़ाई-झगड़ा नहीं करेंगे और यदि उनमें से कोई ऐसा करेगा तो वह जाति और राज्य दोनों के दण्ड का भागी होगा। [31]

इसी तरह मेणों एवं भीलों के पंचों ने मिलकर गाय का वध न करने की शपथ खाई और भविष्य में गाय का वध करने वालों को सदा के लिये जाति से बहिष्कृत करने का नियम बनाया। [32] संवत् 1940 में मेहरों की जाति ने किसी स्त्री को अपने पति के जीवित रहते किसी दूसरे के घर नाते जाने के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाये। [33]

कार्यपालिका के रूप में पंचायत अपनी जाति के नियम एवं मर्यादाओं का पालन जाति के लोगों से करवाती थी। जाति-भोज का आयोजन पंचों की अनुमति से ही होता था। ऐसे भोज की सारी व्यवस्था पंचों द्वारा की जाती थी। जाटों में पेड़ा उघाड़ मौसर जिसमें गांव-गांव के लोग निमंत्रित होते थे, भोज की व्यवस्था दूसरे गांवों के पंच किया करते थे। [34]

जाति भोज में जाति शिष्टाचार के पालन का पंच बड़ा ध्यान रखते थे। ब्राह्मणों के पंच निर्धारित वेशभूषा पहिन कर न आने वाले को भोज में सम्मिलित नहीं होने देते थे। उच्च जातियों में जिनमें दस्सोंऔर बिस्सोंका भेद होता था, पंच दस्सों की पंक्ति अलग लगवाते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि कहीं दस्से‘, ‘बिस्सोंकी पंक्ति में आकर न बैठ जायं। पंच स्वयं सबके खाना खाने के पश्चात् भोजन करते थे। उनके भोजन करने के उपरांत यदि कोई भूखा रह भी जाता तो उसकी कोई सुनवाई नहीं होती थी। [35]

विवाह आदि अवसर पर बनने वाले भोज में पंच, साधारणतः किसी भी प्रकार के परिवर्तन की आज्ञा नहीं देते थे। यदि कोई व्यक्ति किसी भोज में विशेष सामग्री बनवा भी देता तो पंच उसका उपभोग जाति के लोगों को नहीं करने देते थे, और उस भोज का पूर्ण बहिष्कार करवा देते थे। पंचों की भावना रीति-रिवाजों में होने वाले व्यय को न बढ़ने देने की रहती थी, जिससे जाति में ऊँच-नीच की भावना उत्पन्न न हो, और गरीब से गरीब का निर्वाह भी अच्छी तरह से हो सके। [36]

कुछ जातियों में सगाई, विवाह, गोद, नाता, तलाक इत्यादि कार्य पंचों की उपस्थिति में ही सही माने जाते थे। कुछ मुसलमान जातियों में विवाह की तिथि पंच निश्चित करते थे। [37] गिरासियों के पंच और सेलोत मिलकर वधू के पिता को पेरावणा एवं तारणना विवाह की रस्में दिलवाते थे। [38] बाँडा कुम्हारों में घर-जँवाई यदि निर्धारित अवधि से पहिले श्वसुर का घर छोड़ कर जाना चाहता तो उसका मेहनताना पंच ही तय करते थे।[39]

पंच अपनी जाति के लोगों से कुछ धन कर-स्वरूप प्राप्त कर पंचायत कोष में जमा करवा देते थे। इस कोष में कुछ जातियां विवाह, सगाई, गोद, इत्यादि के अवसर पर आने वाली पंचों की लागतजमा करवाती थी। होली के अवसर पर होने वाली बच्चों की ढूंढ एवं डण्डिया गेर में भाग लेने वालों पर की गई न्यौछावर की धनराशि तथा अपराधियों से दण्ड स्वरूप प्राप्त धन भी पंचायत कोष में जमा होता था। किसी विशेष अवसर पर पंचायत कोष में कमी देख, पंच लोगों से चन्दा प्राप्त कर उसे पूरा करते थे। इस प्रकार से अर्जित धन राशि का उपयोग सार्वजनिक कार्यों के लिये किया जाता था। निम्न जातियां इसका उपयोग राज्य का कर भरने में भी करती थीं। पंचायत कोष के आय-व्यय का पूरा लेखा रखा जाता था।[40]

पंच सार्वजनिक स्थान, मन्दिर, स्कूल, धर्मशाला एवं औषधालय इत्यादि के निर्माण एवं उनकी व्यवस्था का प्रबन्ध करते थे। कुछ लोग किसी मन्दिर या धर्मशाला का निर्माण करवाकर उसकी व्यवस्था का कार्य पंचायतों को सौंप देते थे। जाति कार्य के लिये खरीदे बर्तन, जाजमें इत्यादि की देख-रेख पंच ही किया करते थे। [41]

पंच अपनी जाति के लोगों के सुख-दुख में हाथ बटांते थे। वे बीमार व्यक्तियों की देख-रेख एवं सार-संभाल करते थे। जाति में यदि किसी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती तो वे उसके जीवन निर्वाह के लिये कुछ प्रबन्ध करते थे। गरीब लड़कियों की शादियाँ एवं असहाय विधवाओं के भरण-पोषण की व्यवस्था में भी पंच हाथ बंटाते थे। [42]

मेणें, भील एवं बावरी जाति के मुखिया गोडवाड़ के गांवों में पुलिस का कार्य करते थे। वे लोगों के जान एवं माल की रक्षा करते थे। इसके लिये वे राजा और जागीरदार के रहते हुये भी गांव के लोगों से चौथप्राप्त करते थे। चौथ देने वाले गाँवों में साधारणतः चोरी होती ही नहीं थी। यदि कहीं चोरी हो जाती तो वे उसका पता लगाते थे। भाद्राजूण के मेणे अहमदाबाद से आने वाले माल पर बोलावा की लाग सामान न लुटने की लेते थे। वे सामान के साथ स्वयं नहीं जाते थे परन्तु उनके नाम का बोलावा सुनकर ही लुटेरे डर जाते थे और सामान लूटने का साहस नहीं करते थे। यदि इस पर भी कहीं सामान लुट जाता तो वे उसका पता लगाकर चोर को पकड़वा देते थे। [43]

न्याय के लिये पंचायतों के समक्ष खान-पान, सगाई, नाता, तलाक, गोद, औसर-मौसर, व्यभिचार, अपहरण इत्यादि के झगड़े आते थे। लेन-देन, भाई-बँटा, भूमि या खेतों का बँटवारा, गाँवों का सीमा विवाद तालाब एवं पोखरों में पानी की सीर एवं उनके उपयोग के झगड़े भी पंचायत द्वारा तय होते थे। बनजारे, कालबेलिये एवं कुछ अन्य जातियों की पंचायतें चोरी के अभियोग की सुनवाई करती थीं। [44]

अपराध और दण्ड

पंचायतों द्वारा दिया जाने वाला दण्ड अपराध के प्रकार पर निर्भर करता था। विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिये पृथक-पृथक दण्ड-विधान था। सबसे कठोर दण्ड जाति-बहिष्कार था। यह दण्ड अधिकतर उन व्यक्तियों को दिया जाता था जो कि पंचों की आज्ञा नहीं मानते थे।

श्रीमाली ब्राह्मण खान-पान के नियमों को भंग करने वाले या किसी हत्या के अपराधी को सदा के लिए जाति से बहिष्कृत कर देते थे किंतु यदि वे किसी और कारण से किसी को जाति से बहिष्कृत करते तो उसे अपमानित करके पुनः जाति में सम्मिलित कर लेते थे। उनका अपमानित करने का ढंग बड़ा विचित्र था। वे उस व्यक्ति के मुंह और सिर के सभी बाल कटवा देते थे। इस क्रिया को मूंडकाकहते थे। मूंडकाकरने के पश्चात् वे उसके सिर पर एक चौमुखा दीपक रखते थे। दीपक की चारों बत्तियों को जलाकर उसे जाति के सभी घरों में क्षमा याचना करने के लिये घुमाया जाता था। प्रदर्शन के समय लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित करने के लिये एक या दो व्यक्ति उसके आगे घण्टे की ध्वनि करते हुए चलते थे। प्रदर्शन के उपरांत वह उससे कुछ दण्ड लेकर, जाति भोज में अपने साथ पंक्ति में बैठा लेते थे। पंक्ति में एक साथ भोजन कर लेने से वह व्यक्ति जाति में पुनः सम्मिलित समझा जाता था। [45]

सांचोरा ब्राह्मण मृतक का बारहवां दिन नहीं करने वाले को जाति के बाहर कर देते थे। जब वह बावन ब्राह्मणों को भोज देने की स्थिति में हो जाता, तब उससे पूतलविधिकरवाकर, जाति में पुनः सम्मिलत कर लेते थे। [46]

कालबेलिये चोरी या व्यभिचार करने वाले व्यक्ति को उसके समस्त परिवार सहित दो या चार वर्षों के लिये जाति से बहिष्कृत कर देते थे। जाति में सम्मिलित करते समय वे उसका सभी सामान जलवा देते थे, और उससे सवा रुपये का गांजा मंगवाते थे। जाति के सभी लोग उसके साथ बैठजर गांजा पीते थे। इसके पश्चात् उसे एक एक कपड़ा ओढ़ने-बिछाने एवं पहनने का देकर उसका घर फिर से बंधवा देते थे।[47]

साँसी अपनी जाति की किसी स्त्री का अपहरण करने वाले व्यक्ति को जाति से बाहर कर देते थे। जाति में पुनः सम्मिलित होने के लिये उसे अपनी जाति के लोगों को भोज का निमन्त्रण देना पड़ता था। इस अवसर पर पंच उसके सिर पर जूतों का गट्ठर रखकर उसे दौड़ाते थे। पंच लोग दौड़ते हुए व्यक्ति के पीछे से, उसकी पीठ पर सेके हुये आटे के रोठ फेंकते थे। ये रोठ चूरमे के लिये बनाये जाते थे। इसके पश्चात् उसी के कपड़ों में वे चूरमा कुटवाते थे। इसको दोहरा कूटकहा जाता था। इस जाति में यदि कोई व्यक्ति अपने सगे-सम्बन्धियों की स्त्री का अपहरण कर लेता तो कोई अपराध नहीं माना जाता था। यदि उस स्त्री का पति जीवित होता तो पंच वह स्त्री पुनः उसके पति को दिलवा देते थे।[48]

पंच लोग जाति-बहिष्कृत व्यक्ति का हुक्का-पानी बन्द कर देते थे। जाति का कोई व्यक्ति उसको निमन्त्रण या उसके साथ बैठकर भोजन नहीं कर सकता था। उसके लड़के एवं लड़कियों के साथ जाति का कोई भी व्यक्ति शादी-व्यवहार नहीं रखता था। उसका बहिष्कार न केवल उसके गाँव में ही होता था, वरन् दूसरे गांवों में भी जहाँ-जहाँ इसकी सूचना पहुंच जाती थी, उसका बहिष्कार हो जाता था। पंच अपने पत्रों द्वारा दूसरे गांवों में अपनी जाति के पंचों को धर्म और ईमान की शपथ दिलाकर उससे कोई सम्बन्ध न रखने का दबाव डालते थे। जाति से बहिष्कृत व्यक्ति से सम्बन्धित सम्बन्ध रखने वाला व्यक्ति भी जाति से बाहर कर दिया जाता था। इतना ही नहीं जाति पंचायत ऐसे व्यक्ति के पूर्ण बहिष्कार के लिये ब्राह्मण, नाई, धोबी एवं भंगी इत्यादि दूसरी जातियों के लोगों पर भी नैतिक दबाव डालती थी जिससे जाति-बहिष्कृत व्यक्ति का जीवन नरक के समान हो जाता था।[49]

जाति बहिष्कार के अतिरिक्त दण्ड, अर्थ या धर्म-पुण्य के रूप में दिया जाता था। उच्च जातियां यदि अपनी जाति के किसी व्यक्ति का अपमान करना चाहतीं तो उस पर एक टके (दो पैसों) का दण्ड लगाती थी, जिससे उस व्यक्ति की इज्जत दो पैसों के बराबर समझी जाती थी। [50] अर्थदण्ड अपराधी की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर लगाया जाता था। [51]

लोगों के जूते सिर पर रखवाना जैसे अपमानजनक दण्ड प्रायः सभी जातियाँ दिया करती थीं, परन्तु निम्न जातियों में शारीरिक दण्ड की भी व्यवस्था थी। बालढिये अपने पंचों का कहना नहीं मानने वाले को डंडे से पीटकर ठीक कर देते थे। [52] कुछ स्थानों पर जाटों में भी सरपंच जाति की आज्ञा लेकर अपराधी को शारीरिक दण्ड दिया करता था।

गौ-हत्या या अन्य धर्म से सम्बन्धी अभियोग में अपराधी को जाति बहिष्कार के अतिरिक्त, प्रायश्चित स्वरूप, गायत्री पुरश्चरण, तीर्थयात्रा पर जाने एवं ब्राह्मणों को भोजन कराये जाने का भी दण्ड दिया जाता था।

बड़े शहरों में मोहल्ले के पंच किसी व्यक्ति को मोहल्ले का अनुशासन भंग करने पर या सार्वजनिक कार्यों में योगदान न देने पर मोहल्ला बाहरकर देते थे। मोहल्ला बाहर व्यक्ति को मोहल्ले के किसी भी सार्वजनिक भोज या उत्सव में निमन्त्रण नहीं दिया जाता था। किसी व्यक्ति को मोहल्ला बाहर करते समय यदि किसी सार्वजनिक भोज का आयोजन नहीं होता तो पंच कुछ मिठाई मंगवाकर मोहल्ले में अपनी जाति के सभी घरों में बंटवाते थे परन्तु उस अभियोगी का घर टाल देते थे। इस प्रकार मोहल्ला बाहर करने का कार्य पूरा होता था। मोहल्ले में पुनः सम्मिलित करते समय क्षमा-याचना करवा कर उससे अर्थ दण्ड लेते थे।[53]

राज्य और पंचायत

मारवाड़ में पंचायत व्यवस्था पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण था। पंचायतें राज्य की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थीं। पंचायती न्याय से असन्तुष्ट व्यक्ति राजकीय न्यायालयों की शरण ले सकता था। राज्य अपने आदेशों द्वारा जाति नियमों को भंग करने वाले को संरक्षण प्रदान कर सकता था।[54]  उसे पंचों की नियुक्ति में बाधा डालने[55]  एवं पंचायत के लिये नियुक्त स्थान को बदलने का अधिकार प्राप्त था।[56] पंचायत के कार्यक्षेत्र में आने वाला कोई भी विषय ऐसा नहीं था जिस पर राज्य हस्तक्षेप न कर सकता हो परन्तु राज्य कभी अनुचित हस्तक्षेप नहीं करता था।[57]

राज्य में पंचों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था। गांवों किसी कार्यवश लिखे जाने वाले पत्रों की पहली पंक्ति अमुक गांव के पंच महाजनां चौधरियों लोका दीसे‘, से प्रारम्भ होती थी, जो राज्य में पंचों के सम्मान की सूचक थी। जातिगत विवादों में राज्य, अधिकतर पंचायत के निर्णय को ही मान्यता देता था। राजकीय कर्मचारी द्वारा सताये जाने पर या और किसी कार्यवश आये, जाति पंचों की ओर से दिलासा की पागेंबंधवाई जाती थीं। सम्वत् 1866 में नागौर के महाजनों को स्थानीय अधिकारियों ने जब अधिक कर एवं बैठ-बैगार देने के लिये बाध्य किया तब उन्होंने इसका विरोध राजा के समक्ष प्रकट किया। राजा ने अपने आदेश द्वारा उन अधिकारियों को आज्ञा दी कि वे भविष्य में महाजनों एवं उनकी औरतों को तंग न किया करें। संवत् 1866 में जालोर के सालविया दरजियों ने जब केवा की बहू को सामरण होने के नाते जाति से बहिष्कृत कर, उसके लड़के को पुनः जाति में सम्मिलित कर लिया तो कोतवाल ने उनके इस कार्य में हस्तक्षेप किया और उन्हें भाकसी में बैठा दिया। इसकी सूचना मिलते ही राजा ने तुरन्त सालवियों को भाकसी से छोड़ने की आज्ञा प्रदान की। गिरासियों के सेलोत से राज्य में किसी प्रकार का कर नहीं लिया जाता था। [58]

स्थानीय प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के किये राज्य गांवों के पंचों का सहयोग प्राप्त करता था। सती प्रथा, एवं जीवित समाधि लेना मारवाड़ में सदियों से प्रचलित प्रथायें थीं। इन प्रथाओं के मूल में लोगों की धार्मिक भावना होने के कारण उन पर नियंत्रण पाना कठिन था। जब अंग्रेजों ने सती प्रथा पर रोक लगा दी तो राज्य के आदेश से राजकीय कर्मचारियों ने पंचों का सहयोग लेकर सतीप्रथा को रोकने की चेष्टा की। [59] फसलों को कूता कराते समय या व्यावसायिक जातियों से कबूलायत निश्चित कराते समय राज्य पंचों को साक्षी रखना आवश्यक समझता था। राज्य की दीवानी अदालतों में चलने वाले अधिकांश अभियोग पंचायतों के माध्यम से ही तय कराये जाते थे।

राज्य का दोषी पंचों का भी दोषी माना जाता था। हत्या के अपराधी को राज्य की ओर से दण्ड तो मिलता ही था पर जाति के पंच भी उसे दण्ड देकर जाति बहिष्कृत कर देते थे। राज्य में नियमित कर नहीं भरने वाले को भी जाति पंचायतें जाति-बहिष्कृत कर देती थीं।[60]  जोधपुर के नाई राज्य की बैठ-बैगारे नहीं देने वाले को जाति-बहिष्कृत कर शहर में कहीं भी कार्य नहीं करने देते थे। [61]

सामान्यतः पंचों का नैतिक स्तर उच्च होता था किंतु सभी पंचों का नैतिक स्तर उच्च नहीं था। कुछ पंच न्याय करते समय पक्षपात करते थे। संवत 1912 में पाली के छींपे अली एवं आउवे के छींपे रमजान के व्यावसायिक झगड़े में पंचों ने अली का पक्ष लेकर पंचायत करने से इन्कार कर दिया। [62] जालोर के श्रीमाली रामकरण एवं सिंघवी हंसाराम के बीच दुकानों के किराये के झगड़े में पंचों ने सिंघवी हंसाराम का पक्ष लेकर अपना निर्णय दिया और रामकरण द्वारा प्रस्तुत लिखित प्रमाण-पत्रों को देखना तक आवश्यक नहीं समझा। [63] पंचों द्वारा किए जाने वाले पक्षपात के प्रकरण यदा-कदा ही होते थे। [64]

सारांशतः कहा जा सकता है कि मारवाड़ में पंचायत व्यवस्था मजबूत थी और पंचों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। पंचों का निर्णय परमेश्वर की आज्ञा के रूप में स्वीकार्य होती थी। उनके निर्णय को समाज एवं राज्य दोनों ही स्वीकार करते थे। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् जब मारवाड़ राज्य का राजस्थान में विलय हो गया, तब भी जातीय पंचायतें बनी रहीं तथा कुछ जातियों में तो ये पंचायतें अब भी मजबूती से कार्य कर रही हैं।इनमें अधिकतर ऐसी जातियों की पंचायतें हैं जिन जातियों के लोग अपने मुकदमों का निर्णय करवाने के लिए कोर्ट का व्यय नहीं उठा सकते।

REFERENCES


[1] दशरथ शर्मा, अर्ली चौहान डायनास्टीज, पृ. 203.

[2] वही, पृ. 204.

[3] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[4] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 154.

[5] सनद परवाना सं. 1858 (पुरालेखा विभाग राजस्थान) पृ. 372; मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 548.

[6] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 103.

[7] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[8] फुटकर बही कब्लीयत सं. 1904-1906 (पुरा लेखा विभाग राजस्थान)।

[9] वही, पृ. 1.

[10] फुटकर बही राजीनावा, न्याय इन्साफ सं. 1913 पृ. 2.

[11] व्यासजी के मुकदमें की मिसल, हमकूत नागोर सं. 1906 (हाई कोर्ट रेकार्ड)।

[12] आज भी पंचायतों की बैठक इन्हीं स्थानों पर होती है।

[13] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 49.

[14] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[15] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[16] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[17] आज भी खर्च पंचायत बुलाने वाले को ही देना पड़ता है।

[18] व्यासजी के झगड़े की मिसल, हकुमत नागौर स.1906 (हाई कोर्ट रेकार्ड)।

[19] मुकदमों की फाइल सं. 1899-1903 (पु. ले. बि.) पृ. 16.

[20] व्यासजी के मुकदमों की मिसल सं. 1907, नागौर।

[21] वही।

[22] सबद परवाना बही, 1858, पृ. 52.

[23] मुकदमे की फाइल, सन् 1890-1903, पृ. 16.

[24] सनद परवाना बही सं. 1858, पृ. 44.

[25] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[26] फाइल अदालत के फैसले सन् 1899-1903 (पु. ले. वि. राज.)

[27] सेंसज रिपोर्ट आफ इण्डिया, 1911, पृ. 497.

[28] व्यासजी के झगड़े की मिसल, हकूमत नागौर, सं. 1906.

[29] अदालत दिवाणी बही, सं. 1912 पृ. 33 (पुस्तक प्रकाश) जोधपुर।

[30] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 32.

[31] फुटकर बही, सं. 1913, पृ. 2

[32] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 121.

[33] हथ बही, 1948 स., पृ. 3.

[34] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 45.

[35] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 45.

[36] यह प्रथा एवं इसके अधिकार का उपयोग पंच सन् 1928-30 तक करते थे।

[37] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 484.

[38] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 6.

[39] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[40] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[41] सनद परवाना बही, सं. 1858, पृ. 77 (जोधपुर अभिलेखागार)

[42] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 45.

[43] वही पृ. 123.

[44] तत्कालीन अदालत की बहियें।

[45] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 155.

[46] फुटकर बही, सं. 1916, पृ. 10 (जोधपुर अभिलेखागार)।

[47] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[48] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[49] सेन्सेज रिपोर्ट आफ इण्डिया, सन् 1911, पृ. 499.

[50] वही।

[51] सनद परवाना बही, 1858, (जोधपुर अभिलेखागार) पृ. 39.

[52] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 445.

[53] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[54] सनद परवाना बही, 1858 पृ. 39.

[55] फुटकर बही, सं. 1912 (पु, प्रकाश जोधपुर)।

[56] सनद परवाना बही, 1858, पृ. 52 (जोधपुर अभिलेखागार)।

[57] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

[58] मारवाड़ मर्दमसुमारी रिपोर्ट 1891, पृ. 132.

[59] न्याय इन्साफ बही, सं. 1913 पृ. 3, (जोधपुर अभिलेखागार)।

[60] सनद परबाना बही, सं. 1859 पृ. 57.

[61] न्याय इन्साफ वही, सं. 1918.

[62] अदालत बही, सं. 1912 (पुस्तक प्रकाश जोधपुर)।

[63] दीवानी अदालत की बही सं. 1906 (हाईकोर्ट रिपोर्ट जोधपुर)।

[64] आसू लाल भिवानी, उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ की पंचायतें, राजस्थान हिस्ट्री प्रोसीडिंग्स, 1968, पृ. 244.

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