माधोराजपुरा दुर्ग जयपुर नरेश सवाई माधवसिंह (प्रथम) (ई.1750-68) ने मराठों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था। यह जयपुर नगर से 59 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में, दूदू से लालसोट जाने वाली सड़कर स्थित है। फागी से 9 किलोमीटर पूर्व में जाने पर माधोराजपुरा दुर्ग आता है। सवाईमाधोपुर की तरह माधोराजपुरा को भी जयपुर की अनुकृति पर बसाया गया था तथा इसे ‘नवां शहर’ भी कहा जाता था।
माधोराजपुरा दुर्ग की श्रेणी
माधोराजपुरा दुर्ग स्थल दुर्ग, पारिघ दुर्ग तथा पारिख दुर्ग की श्रेणी में आता है।
दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था
दुर्ग दोहरी प्राचीर से घिरा हुआ है जिसमें स्थान-स्थान पर बुर्ज बनी हुई हैं। दुर्ग के चारों ओर 20 फुट चौड़ी तथा 30 फुट गहरी परिखा बनी हुई है। दुर्ग में वि.सं.1815 का एक शिलालेख लगा हुआ है जिसमें इस नहर के पानी को गंदा करने वालों को चेतावनी दी गई है।
दुर्ग में प्रवेश
दुर्ग का मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है। दुर्ग के भीतर पहुंचने के लिये एक के बाद एक करके तीन विशाल दरवाजे पार करने होते हैं।
माधोराजपुरा दुर्ग का स्थापत्य
दुर्ग के भीतर बाईं ओर छोटे-बड़े कई महल हैं तथा एक पाताल तोड़ कुआं भी है। बाईं तरफ वाली बुर्ज में अन्न भण्डार बना हुआ है जिसमें कई हजार मन अनाज आ सकता था। दुर्ग परिसर के मध्य में करणसिंह नरूका भोमियाजी का स्थान है जो इस दुर्ग की रक्षा करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था। इसके निकट बारादरी और जनाना महल हैं।
एक महल में पुष्पलताओं का सुन्दर अलंकरण है। रानी का महल अब खण्डहर हो चला है। दुर्ग में शिव मंदिर, पानी का टांका, स्नानागार, डावड़ियों (दासियों) के निवास, सुरक्षा प्रहरियों के कक्ष, कारागृह, चक्कीपाड़ा, शस्त्रागार, अश्वशाला आदि बने हुए हैं।
माधोराजपुरा दुर्ग का इतिहास
जयपुर नरेश जगतसिंह ने माधोपुरा दुर्ग अपनी महारानी राठौड़ी जो कि जोधपुर नरेश मानसिंह की पुत्री थी, को जागीर में प्रदान किया। कुछ समय बाद लदाणा के ठाकुर भारतसिंह नरूका ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस घटना के साथ इतिहास की एक रोचक घटना जुड़ी हुई है।
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में लावा के निकट जयपुर तथा पिण्डारी अमीर खां की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में पिण्डारी अमीरखां ने नरूकों को बहुत क्षति पहुंचाई तथा हनुमंतसिंह नरूका को धोखे से मार डाला। भारतसिंह नरूका, पिण्डारियों से इसका बदला लेना चाहता था तथा सदैव अमीर खां की ताक में रहता था। उसे यह अवसर शीघ्र ही मिल गया।
अमीर खां के श्वसुर अय्याज खां की, टोरडी के ठाकुर विजयसिंह से अच्छी मित्रता थी। दोनों आपस में पगड़ी बदलकर भाई बने हुए थे। एक बार अय्याज खां अपनी बेगम तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ टोरडी ठाकुर से मिलने आया तथा उनके यहाँ मेहमान की तरह रहा। अय्याज खां की पुत्री अर्थात् अमीरखां की बेगम भी उसके साथ थी।
लदाना जागीरदार के पुत्र भारतसिंह को इस बात का पता लग गया। उसने धाभाई शम्भु से राय मांगी। शम्भु ने भारतसिंह को एक योजना सुझाई। भारतसिंह इस योजना से सहमत हो गया तथा तुरंत ही उसका क्रियान्वयन कर दिया गया। योजना के अनुसार धाभाई शम्भु ने रात के समय बहुत से बैलों के सींगों पर मशालें बांधकर उन्हें टोरडी गांव में घुसा दिया तथा उसके आदमी गांव में घुसकर हो-हल्ला मचाने लगे। उस समय अय्याज खां और ठाकुर मर्दाने महलों में बैठकर औरतों का नाच-गाना देख रहे थे।
अय्याज खां तथा टोरडी ठाकुर महलों से बाहर निकलकर गांव में हो रही हलचल को देखने के लिये निकले। अंधेरे में चमकती मशालों तथा बहुत से आदमियों द्वारा किये जा रहे हो-हल्ले से ऐसा आभास हुआ मानो डाकुओं ने गांव पर हमला कर दिया है। अय्याज खां ने सोचा कि मेरे पिण्डारी ही गांव को लूटने आये होंगे। उसने अपने आदमियों को गांव की ओर भेजा ताकि वे पिण्डारियों को समझायें कि गांव में लूटपाट नहीं करें और वापस आकर नाच-गाना देखने लगे।
जिस समय अय्याज खां तथा ठाकुर गांव की हलचल को समझने में व्यस्त थे, उस समय भारतसिंह नरूका ने टोरडी ठाकुर के जनाना महलों पर आक्रमण किया तथा अय्याज खां के परिवार की स्त्रियों को उठाकर चला गया। अमीर खां की पत्नी भी इनमें शामिल थी। भारतसिंह ने महल के सारे पहरेदारों को भी मार डाला ताकि कोई टोरडी ठाकुर को घटना के बारे में वास्तविक समाचार नहीं दे सके। जब देर रात नाच-गाना समाप्त हुआ और अय्याज खां अपने डेरे पर वापस आया तो उसे वहाँ कोई नहीं मिला।
धाभाई शम्भुसिंह पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पिण्डारी बेगमों को माधोराजपुरा दुर्ग में ले आया और वहीं बंधक बना लिया। काफी समय तक तो अमीर खां को बेगमों के बारे में कुछ पता ही नहीं चला और वह बेगमों को ढूंढता ही रहा। अंत में उसे पूरी घटना की जानकारी हो गई तथा बेगमों का ठिकाना भी मिल गया। वह अपनी विशाल सेना लेकर माधोराजपुरा आया और 21 नवम्बर 1816 को दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। उसने भारतसिंह नरूका के पास संदेश भिजवाया कि औरतों को छोड़ दिया जाये।
भारतसिंह नरूका अमीर खां के आदमियों को बातों में उलझाये रहा और नई-नई शर्तें लगाकर औरतों को छोड़ने में विलम्ब करता रहा। जब खेतों में फसलें पक गईं और दुर्ग में खाने-पीने की पर्याप्त सामग्री एकत्रित हो गई, तब भारतसिंह ने औरतों को छोड़ने से मना कर दिया। भारत सिंह ने अय्याज खां की पत्नी को अपनी बहन बना लिया तथा पूरे परिवार को राजसी सुखों के बीच रखा। अमीरखां को इस बात से अनभिज्ञ रखा गया।
अंततः अमीर खां ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया तथा दुर्ग की चारों तरफ से नाकाबंदी कर दी। कई महीनों के प्रयास के बाद भी भारतसिंह ने दुर्ग के द्वार नहीं खोले। अमीरखां ने दुर्ग की एक दीवार तोड़ने की योजना बनाई। अमीरखां की सेना में काबुल से आये सिपाहियों की भी एक टुकड़ी थी, वह हिन्दी भाषा नहीं जानती थी। जब दीवार तोड़ी जा रही थी, तब इस टुकड़ी को एक आदेश दिया गया। काबुल से आये सिपाही इस आदेश को ढंग से नहीं समझ पाये और उन्होंने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया।
उस समय तक दीवार टूटी नहीं थी। इसलिये दुर्ग के भीतर नरूकों की सेना सतर्क हो गई और उन्होंने अमीरखां की सेना पर दुर्ग के भीतर से गोलाबरी की। कुछ समय बाद अमीरखां ने फिर से दीवार तोड़ने की योजना बनाई। इस पर अमीर खां के परिवार की औरतों ने अमीर खां को संदेश भिजवाया कि दीवार नहीं तोड़ें अन्यथा हम स्वयं ही उस स्थान पर पहुंच जायेंगे जहाँ हमें मारने के बाद ही आप भारतसिंह को मार सकेंगे। इस तरह एक साल बीत गया और अमीरखां अपने तथा अपने श्वसुर के परिवार को प्राप्त नहीं कर सका।
इसी बीच अंग्रेजों ने उत्तर भारत से पिण्डारियों को नष्ट करने का अभियान आरम्भ कर दिया। अमीर खां भारी मुसीबत में पड़ गया। उसने भारतसिंह के पास संधि का प्रस्ताव भेजा तथा उसे विपुल धन देकर अपने तथा श्वसुर के परिवार की औरतों को छुड़ाया और दुर्ग से घेरा उठा कर दूर चला गया।
रूपा बडारण को कैद
महाराजा सवाई जयसिंह (तृतीय) (ई.1819-35) की धाय रूपा बडारण को उसके कुचक्रों की सजा देने के लिये इसी दुर्ग में नजरबंद रखा गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता