भोपालगढ़ दुर्ग कई सौ वर्ष पुराना है। इस दुर्ग के मूल निर्माणकर्ता एवं निर्माण समय की अब कोई जानकारी नहीं मिलती। भोपालगढ़ दुर्ग पूरी तरह खण्डहरों में बदल गया है तथा प्राचीन अवशेष इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। स्थापत्य एवं शिल्प की दृष्टि से बहुमूल्य सामग्री गत वर्षों में तस्करों द्वारा चुरा ली गई है। रियासत काल में यह दुर्ग जोधपुर राज्य के अंतर्गत स्थित था।
यह दुर्ग ऊंची प्राचीरों से रक्षित था जिसके भीतर चारों कोनों पर छोटी सुरक्षा चौकियां स्थापित थीं। किले का एक भाग शाही महल तथा दूसरा भाग राजसेवा कुटिया के नाम से जाना जाता है। राजसेवा कुटिया में राजा के अधिकारी अंगरक्षक, सैनिक तथा घोड़े रहते थे जबकि शाही महल में राजा तथा उसका परिवार रहता था।
भोपालगढ़ दुर्ग को किसी समय बड़लू गढ़ कहा जाता था। इसमें प्रवेश के लिये विशाल द्वार पर मचानें बनी हुई हैं। दुर्ग में प्रवेश के लिये इसके अतिरिकत और कोई रास्ता नहीं है। द्वार के सामने लम्बा-चौड़ा दालान पड़ा हुआ है। मुख्य किले में जाने के लिये दो छोटे-छोटे गेट हैं। इन दोनों गेटों पर सीढ़ियां बनी हुई हैं तथा अन्दर एक-दो जगह विभिन्न आकृतियों की स्थापत्य कला की आकर्षक मूर्तियां लगी हुई हैं, जो अब खंडित स्थित में हैं।
मुख्य द्वार से अंदर घुसने पर सामने टूटी हुई घोड़ों की ठाणें, छतरियां आदि खंडहर स्थिति में दिखाई देते हैंर्। थोड़ा आगे चलने पर खंडहर हो चुके महल तत्कालीन समय की याद दिलाते हैं। किले में एक कुआं भी है, जो अब पूरी तरह पत्थर एवं रेत से भर गया है। इसके पास ही एक कतार में कुछ कमरे एवं स्नानघर है।
भोपालगढ़ दुर्ग के ऊपरी भाग में झरोखों एवं खंभों से युक्त एक सुन्दर भवन बना हुआ है जिसका स्थापत्य देखते ही बनता है। दुर्ग में एक शिव मंदिर दर्शनीय है। मंदिर के सामने एक सुरंग का मुंह खुलता है।
यह सुरंग एक बंगले के सामने निकलती है। यह बंगला दुर्ग से लगभग एक किलोमीटर दूर शिम्भेश्वर तालाब पर स्थित है। पहाड़ी पर बने इस बंगले में सैंकड़ों झरोखे बने हुए हैं। तालाब के किनारे पर भी एक शिव मंदिर बना हुआ है। दुर्ग में एक प्राचीन शिलालेख लगा हुआ है किन्तु अब पढ़ने में नहीं आता है।