आम्बेर के कच्छवाहों की खंगारोत शाखा के सामंतों ने बोराज गांव के निकट बोराज दुर्ग बनवाया। यह जयपुर से 45 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में साधारण ऊंचाई की पहाड़ी पर स्थित है। इस दुर्ग में प्राचीर का भाग कम है किंतु सीधी खड़ी अर्द्ध गोलाकार बुर्जें चारों ओर फैली हुई हैं तथा प्राचीर का काम देती हैं।
किसी समय बोराज दुर्ग जैसे छोटे-छोटे दुर्ग राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक हजारों की संख्या में स्थित थे। इनमें से अब बहुत से दुर्ग नष्ट हो गए हैं अथवा उपेक्षित अवस्था में खण्डहरों के रूप में पड़े हैं।
बोराज दुर्ग के भीतर विस्तुत मैदान है जिसमें अनके महल एवं स्थान बने हुए हैं। इस दुर्ग में राव खंगार की रानियां रहती थीं। दुर्ग के भीतर एक गोल चबूतरे पर स्थापित एक शिलाखण्ड पर राव खंगार से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण शिलालेख है जिससे ज्ञात होता है कि राव खंगार वि.सं.1640 (ईस्वी 1583) में माण्डल की लड़ाई में काम आया। उसकी मृत्यु पर चार रानियां सती हुईं।
बोराज दुर्ग के भीतर गोल चबूतरे पर एक शिलाखण्ड है। इस पर हाथ में तलवार लिए एक अश्वारूढ़ योद्धा की प्रतिमा बनी हुई है। इसके आगे चार स्त्रियां हाथ जोड़े खड़ी हैं जिन्हें देखने से अनुमान होता है कि इस स्थान पर एक रानी और तीन पासवानें सती हुईं। इसी के पार्श्व में पत्थर का एक हाथी खड़ा है।
संवत् 1843 (ई.1786) में रावजी पटेल के नेतृत्व में मराठों ने बोराज दुर्ग पर आक्रमण किया। इस युद्ध में बहुत से खंगारोत सैनिक मारे गये तथा मराठे विजयी रहे। ठाकुर जवारसिंह का एक स्मारक शिलालेख बोराजगढ़ के सामने एक बड़े चबूतरे पर श्वेत संगमरमर की शिला पर उत्कीर्ण है।
बोराज का दुर्ग आज भी अपेक्षाकृत अच्छी दशा में है। नीचे के भाग में अनेक कोठरियां बनी हुई हैं। ऊपरी भाग में दुर्ग के बाहर कुछ आधुनिक काल के आवास बने हुए हैं। दुर्ग का प्रवेश द्वार अत्यंत छोटा एवं संकरा है। बुर्जें सीधी खड़ी हैं और प्राचीर का काम देती हैं। आकार में छोटा होने पर भी यह दुर्ग काफी सुदढ़ प्रतीत होता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता