चित्तौड़गढ़ जिले में स्थित बेगूं दुर्ग मेवाड़ के गुहिल वंश में उत्पन्न राजकुमार चूण्डा के मुख्य वंशधर (सलूम्बर वालों के पूर्वज) खेंगार के 18 पुत्रों में से दूसरे पुत्र गोविन्ददास और उसके वंशजों का ठिकाणा था। बेगू दुर्ग 16वीं शताब्दी ईस्वी में बना।
गोविन्ददास का पुत्र मेघसिंह, उदयपुर के महाराणा से नाराज होकर मुगल बादशाह जहांगीर (असली नाम सलीम) की सेवा में रहता था। बादशाह की सेवा में रहते समय वह केवल काले कपड़े पहना करता था। इसलिये जहांगीर उसे कालीमेघ कहा करता था। इस प्रकार बेगूं दुर्ग के सरदार का उदयपुर के महाराणाओं से वैमनस्य था जो आगे भी जारी रहा।
उदयपुर के अल्पवय महाराणा हम्मीरसिंह (द्वितीय) (ई.1773-78) के समय मेघसिंह (द्वितीय) बेगूं का जागीरदार था। उसने महाराणा से विद्रोह करके बेगूं के आसपास का काफी क्षेत्र दबा लिया। इस पर महाराणा ने सिंधिया से सहायता मांगी।
जब मराठे बेगूं पर चढ़कर आये तो बेगूं का कथाभट्ट फतहराम जो बहुत ही छोटे कद का था, रावत की तरफ से सिंधिया के पास गया।
सिंधिया ने उससे मजाक की और बोला- ‘आओ वामन।’ फतहराम बोला – ‘कहिये राजा बलि।’
इस पर सिंधिया ने कहा- ‘कुछ मांगो।’
फतहराम बोला- ‘बेगूं दुर्ग का घेरा उठाकर चले जाओ।’
सिंधिया ने कहा- ‘ई.1769 की संधि के अनुसार यदि बेगूं का रावत, मेरी सेना का बकाया खर्च दे दे तो चला जाऊं।’ फतहराम ने सिंधिया की बात स्वीकार कर ली।
रावत मेघसिंह ने सिंधिया की बात मानने से मना कर दिया और कहा कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ जो आशीर्वाद देकर काम चलाऊं। मैं राजपूत हूँ, इसलिये बारूद, गोलों और तलवारों से कर्ज चुकाउंगा।
इस पर सिंधिया ने बेगूं दुर्ग मजबूती से घेर लिया। कई दिनों तक लड़ाई होती रही किंतु मराठे बेगूं दुर्ग को छू भी नहीं सके। एक दिन मेघसिंह का पुत्र प्रतापसिंह, सिंधिया से जा मिला। इस कारण बेगूं की हार हो गई तथा पांच लाख रुपये और कई गांव सिंधिया को देने पड़े।
बाद में मराठों ओर बेगूं के बीच, इन गांवों पर अधिकार को लेकर कई सालों तक युद्ध चला। अंत में मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेण्ट कर्नल टॉड दोनों पक्षों के बीच झगड़ा निबटाने आया। उस समय महासिंह, बेगूं का रावत था।
कर्नल टॉड ने बेगूं के दुर्ग के बाहर कालीमेघ द्वारा बनवाये गये एक दरवाजे के नीचे से हाथी पर हौदे सहित बैठकर निकलना चाहा। महावत ने टॉड को मना किया क्योंकि दरवाजा इतना ऊंचा नहीं था किंतु टॉड नहीं माना और उसने हाथी को आगे बढ़ा दिया। खाई और खंदक के बीच बने पुल पर पहुंचते ही हाथी बिगड़ गया और कर्नल टॉड सहित पुल से गिरकर बेहोश हो गया।
टॉड को उठाकर एक तम्बू में ले जाया गया जहाँ उसका उपचार किया गया। आधी रात बीतने के बाद कर्नल को होश आया। अगले दिन जब टॉड किले में गया तो उसने देखा कि कालीमेघ द्वारा बनवाया गया दरवाजा टूटा पड़ा है। रावत महासिंह ने उसे रातों-रात तुड़वा दिया था ताकि फिर कभी भविष्य में ऐसी दुर्घटना नहीं हो। इस प्रकार बेगूं दुर्ग का इतिहास बहुत रोचक है।