बीकानेर नगर से पश्चिम-उत्तर में कुछ दूरी पर बीकमपुर नामक एक छोटा गांव है। यहाँ परमार कालीन एक दुर्ग के खण्डहर स्थित हैं। इसे बीकमपुर दुर्ग कहा जाता है।
इस दुर्ग के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण उज्जैन के वीर विक्रमादित्य पंवार ने अपने नाम से विक्रम संवत 2 अर्थात् ई.पू. 55 में की थी। यह मान्यता असंगत है क्योंकि परमारों का उदय हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद सातवीं शताब्दी के लगभग हुआ। राजस्थान में उनका शासन 9वीं से 14वीं शताब्दी में रहा। अतः यदि यह परमारों का बनाया हुआ दुर्ग है तो इसी अवधि के बीच किसी समय बना होगा।
यदि इस दुर्ग का निर्माण विक्रम संवत् 2 अर्थात् ई.पू. 55 में उज्ज्जैन के किसी शासक के द्वारा करवाया गया तो यह किसी अन्य वंश का राजा हो सकता है। विश्वसनीय प्रमाणों के अभाव में दुर्ग के निर्माताओं के बारे में निर्विवाद रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
राजा विक्रमादित्य से शनि देव के रुष्ट हो जाने की कथा बहु-प्रचलित है। बीकमपुर गढ़ के मुख्य द्वार की तरफ एक शनिदेव मंदिर बना हुआ है जो अब लगभग 7-8 फुट धरती में धंस गया है। धरती से लगभग 50-60 फुट ऊपर एक टीले पर विक्रमादित्य का विशाल दुर्ग हुआ करता था जिसके चारों ओर गोल चार-दीवारी हुआ करती थी। इसके चारों ओर 84 बुर्ज थे।
अब चार-दीवारी बिखर गई है तथा बुर्ज ढह गये हैं। कहीं-कहीं उसके अवशेष दिखाई देते हैं। चार-दीवारी इतनी चौड़ी थी कि उस पर हाथी आ-जा सकते थे। दुर्ग के भीतर सेना रहती थी एवं नागरिकों के भी आवास बने हुए थे।
दुर्ग में राज प्रासाद, रनिवास तथा बारादरियां भी थीं। साथ ही विष्णु, शिव एवं सूर्य को समर्पित विशाल मंदिर बने हुए थे। ये सभी मंदिर उत्तराभिमुख थे। इन मंदिरों का शिल्प एवं मूर्तियां अनूठी हैं। बहुत सी मूर्तियां तस्करों द्वारा चुरा ली गई हैं।
विष्णु मंदिर जीण-शीर्ण अवस्था में है। मंदिर के ऊपर के गुम्बज भूमिसात् हो चुके हैं। ये मूर्तियां दो हजार वर्ष से अधिक पुरानी मानी जाती हैं। इनमें काली माता, शिव, गणेश एवं अष्टमातृका की मूर्तियां अधिक महत्वपूर्ण हैं।
दुर्ग का मुख्य प्रवेश द्वार अब भी खड़ा हुआ है। कहा जाता है कि गढ़ का निर्माण स्वयं वीर विक्रमादित्य ने बिना किसी चूना, सीमेंट या गारे के किया था। मुख्य द्वार के ऊपर वि.सं.1111 का एक शिलालेख लगा है जिसमें इस दुर्ग के जीर्णोद्धार की बात कही गई है। अंदर का दूसरा द्वार भी राजा विक्रमादित्य द्वारा निर्मित बताया जाता है।
यहाँ एक बारादरी भी है जिसमें वि.सं.1522 का शिलालेख लगा हुआ है जिसके अनुसार इस द्वार पर एक और मंजिल का निर्माण करवाया गया तथा सुंदर कलात्मक झरोखे लगाये गये। दूसरी मंजिल की छत लकड़ी की बनाई गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता