बालाथल दुर्ग के अवशेष राजस्थान के दक्षिणी भाग में मेवाड़ अंचल के उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित बालाथल गांव के निकट मिले हैं। यह पूर्ण विकसित दुर्ग जैसा प्रतीत नहीं होता अपितु यह एक विशाल भवन की तरह है जिससे इसके दुर्ग होने का अनुमान होता है।
बालाथल सभ्यता ई.पू. 3000 से लेकर ई.पू. 2500 तक की अवधि में विकसित होने वाली ताम्र-पाषाण युगीन सभ्यता थी। इस काल में भारत के पश्चिमी भाग में सिंधु घाटी सभ्यता फल-फूल रही थी तथा इसके समानांतर उत्तरी भूभाग में आर्य सभ्यता की बसावट थी। महाभारत का युद्ध भी इन्हीं सभ्यताओं के काल में हुआ माना जाता है।
बालाथल दुर्ग नुमा भवन है तथा यहाँ से ग्यारह कमरों वाले विशाल भवन प्राप्त हुए हैं। ये संरचनाएं बताती हैं कि बालाथल सभ्यता में मुखिया अथवा राजा जैसी संस्था विद्यमान थी जो दुर्ग एवं प्रासाद जैसे भवनों का प्रयोग करता था।
बालाथल के लोग कृषि, पशुपालन एवं आखेट करते थे। ये लोग मिट्टी के बर्तन बनाने में निपुण थे तथा कपड़ा बुनना जानते थे। यहाँ से तांबे के सिक्के, मुद्रायें एवं आभूषण प्राप्त हुए हैं। आभूषणों में कर्णफूल, हार और लटकन मिले हैं।
पश्चिमी भारत में विकसित सिंधुघाटी सभ्यता को तृतीय कांस्य काल की सभ्यता माना गया है जबकि इसी काल में विद्यमान आर्य संस्कृति को ताम्र-पाषाण संस्कृति कहा जाता है। इस काल में आर्यों की सभ्यता को धार्मिक ग्रंथों की रचना के आधार पर उत्तर-वैदिक सभ्यता कहा जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बालाथल का दुर्ग नुमा महल महाभारत के काल में बना था।
सिंधुघाटी सभ्यता का प्रमुख नगर कालीबंगा भी इस काल में अस्तित्व में था। जबकि हरियाणा से प्राप्त राखीगढ़ी की सभ्यता भी इस काल में अस्तित्व में थी जिसे आर्य सम्यता का केन्द्र माना गया है।
अर्थात् बालाथल दुर्ग के काल में सिंघुघाटी सभ्यता एवं आर्य सभ्यता दोनों अस्तित्व में थीं और अनुमान किया जाता है कि बालाथल सभ्यता आर्य सभ्यता का अंग थी।