बांकीदास री ख्यात अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में मारवाड़ राज्य में चारण कवि बांकीदास द्वारा लिखा गया था। इस ग्रंथ से उस काल की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक घटनाओं एवं तथ्यों की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
बांकीदास का जन्म ईस्वी 1781 में जोधपुर राज्य में हुआ था। ये अठारहवीं सदी के राजपूताना में विख्यात कवि एवं इतिहासकार के रूप में प्रसिद्ध थे। यद्यपि उन्होंने विपुल साहित्य की रचना की तथापि इनकी लिखी हुई ख्यात अत्यधिक प्रसिद्ध है जिसे ‘बांकीदास री ख्यात’ कहा जाता है।[1]
ख्यात शब्द की व्युत्पित्ति ‘ख्याति’ से हुई है। उस काल के राजपूताना में ख्यात शीर्षक से लिखे गए ग्रंथों में लोक में विख्यात बातों को लिखने की परम्परा थी। कहा जा सकता है कि बांकीदास के काल में इतिहास लेखन की परम्परा ‘ख्यात’ के रूप में विख्यात थी।
उस काल में राजपूताना के हिन्दू शासकों की राजसभा में मुगल शासकों के अनुकरण पर राजकीय कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे जो राजा के जीवन से सम्बन्धित उल्लेखनीय तथ्यों एवं घटनाओं को बहियों एवं ख्यातों आदि में लिखते थे। मुगलों के भारत में आने से पहले हिन्दू राजा अपना इतिहास नहीं लिखवाते थे। अठ्ठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में राजपूत राज्यों में कई व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से भी ख्यात लिखते थे। इनमें मुंहता नैणसी, दयालदास और बांकीदास के नाम उल्लेखनीय हैं।
बांकीदास ईस्वी 1803 में जोधपुर नरेश मानसिंह के सम्पर्क में आये। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर महाराजा ने इन्हें अपना भाषागुरु बनाया। राजपूताना के अन्य राजाओं की राजसभाओं में भी बांकीदास का अच्छा सम्मान था। ईस्वी 1833 में जोधपुर में बांकीदास का निधन हुआ।
बांकीदास री ख्यात में कालक्रम के अनुशासन का अभाव
‘बांकीदास री ख्यात’ राजस्थानी गद्य में लिखी गई है। इस ख्यात में लगभग 2000 घटनाओं एवं तथ्यों का संग्रह है। ये घटनाएं राजपूत राजाओं के इतिहास से सम्बन्ध रखती हैं। बांकीदास ने इन घटनाओं एवं तथ्यों का संग्रह कालक्रम के अनुसार नहीं किया। इस कारण घटनाओं का शृंखलाबद्ध अध्ययन नहीं हो पाता। बांकीदास को जब कभी भी कोई महत्वपूर्ण घटना या तथ्य की जानकारी मिलती थी, उसे वे अपने ग्रंथ में लिख देते थे।
नरोत्तमदास स्वामी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन करते समय इस ग्रंथ की घटनाओं को क्रमबद्ध करने का प्रयास किया किंतु बांकीदास का लिखने का ढंग ही ऐसा रहा कि नरोत्तमदास स्वामी को अपने प्रयास में पूर्ण सफलता नहीं मिली। [2]
बांकीदास री ख्यात का ऐतिहासिक महत्व
कालक्रम सम्बन्धी दोष के होते हुए भी इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक महत्व कम नहीं होता। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने बांकीदास री ख्यात के महत्व का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘पुस्तक बड़े महत्व की है, ग्रन्थ क्या है इतिहास का खजाना है। राजपूताना के तमाम राज्यों के इतिहास सम्बन्धी अनेक रत्न उसमें भरे पड़े है उसमें राजपूताना के बहुधा प्रत्येक राज्य के राजाओं, सरदारों, मुत्सद्दियों आदि के सम्बन्ध की अनेक ऐसी बातें लिखी है जिनका अन्यत्र मिलना कठिन है। उसमें मुसलमानों, जैनों आदि के सम्बन्ध की भी बहुत सी बातें हैं। ‘ [3]
प्रसिद्ध पुरातत्व शास्त्री पुरातत्वविद् एवं इतिहासकार मुनि जिन विजय ने भी इस ग्रंथ के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करते हुए लिखा है- ‘राजस्थान का पूर्ण क्रमिक इतिहास तैयार करने में यह रचना एक आधार ग्रन्थ के रूप में सहायक सिद्ध हो सकती है।‘[4]
डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है- ‘लेखक के घटनाओं के समकालीन होने के कारण अधिक विश्वास किया जा सकता है।‘ [5]
बांकीदास री ख्यात में वर्णित प्राचीन इतिहास
यद्यपि इस ग्रंथ में लेखक ने समकालीन घटनाओं का अधिक वर्णन किया है तथापि उन्होंने प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं को भी लिखा है। बांकीदास री ख्यात में प्राचीन वंशावलियों, रीति-रिवाजों, विभिन्न पंथों एवं उनके विश्वासों, भारत के विभिन्न भूभागों से सम्बन्धित भौगोलिक स्थिति का भी उन्होंने अपनी ख्यात में वर्णन किया है।
बांकीदास री ख्यात में वर्णित पंथ एवं मत
‘बांकीदास री ख्यात’ ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि लेखक को तत्कालीन सामाजिक जीवन की अच्छी जानकारी थी। इस ख्यात में राजस्थान के प्रमुख मतों, पंथों एवं धार्मिक विश्वासों तथा उस समय के जातिगत वर्गों का वर्णन मिलता है। उस काल की प्रमुख जातियों में ब्राह्मण, राजपूत, ओसवाल, माहेश्वरी एवं अग्रवाल वैश्य थे।
उस काल के हिन्दू तथा जैन धर्मावलम्बियों का भी वर्णन किया गया है। जो उस काल में सर्वाधिक संख्या में थे। जोगी, बैरागी आदि साधुओं का भी वर्णन है। बांकीदास ने इस्लाम के उद्गम और मजहबी बातों को भी इस ग्रन्थ में स्थान दिया है जिससे ज्ञात होता है कि उस काल में राजपूताने में मुसलमान आकर बस गए थे।
बांकीदास री ख्यात में वर्णित क्षत्रिय समाज
इस ग्रन्थ के अनुसार उस काल में क्षत्रिय (राजपूत) वर्ग शासक वर्ग था। लेखक ने इस ग्रन्थ में राठौड़, गहलोत, यादव, कच्छवाहा, प्रतिहार और चौहान वंशों का वर्णन किया है साथ ही उनकी शाखाओं और उप-शाखाओं का सविस्तार वर्णन किया है जिन्हें खांप कहा जाता था। बांकीदास री ख्यात में वर्णित ‘राठोड़ा री बातां’ में राठौड़ों की 69 खांपों की एक लम्बी सूची दी गई है। साथ ही सींधल, महेचा, कोटड़िया, जैतावत, कूपावत, चांपावत, करनोत, बालावत, वरसिंहोत, मेड़तिया, करमसोत, उदावत, पातावत आदि खांपों और उनके प्रमुख राजाओं एवं सामन्तों का विस्तार से वर्णन किया गया है। [6]
बांकीदास री ख्यात में भाटी राजपूतों की 46 खांपों का वर्णन किया गया है। गहलोत तथा चौहानों की भी 24-24 शाखाओं की सूचि दी गई है तथा कुछ प्रमुख शाखाओं का विस्तार से वर्णन दिया गया है। [7]
इस प्रकार बांकीदास री ख्यात में तत्कालीन राजपूत वंशों, खांपों तथा शाखाओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। बांकीदास ने लिखा है कि बीकानेर के महाराजा रत्नसिंह ने वि. सं.1885 में गयाजी तीर्थ में अपने सामन्तों की सभा कर उन्हें शपथ दिलाई कि वे अपनी कन्या-शिशुओं का वध नहीं करेंगे।[8]
बांकीदास री ख्यात में वर्णित ब्राह्मण समाज
ब्राह्मण वर्ण समाज का एक अन्य प्रमुख वर्ग था। राजा अपनी सभा में अपने वाले विद्वान ब्राह्मणों का सम्मान करते थे। ब्राह्मण राजाओं के यहा धार्मिक कथावाचन करते थे। प्राणनाथ पारीक ब्राह्मण द्वारा बीकानेर दरबार के यहाँ कथा वाचन का उल्लेख किया गया है- ‘गंगाराम रो बेटो पारीक हरदेव ज्यारां वंश में प्राणनाथ बीकानेर दरबार में कथा करे हमे।‘ [9]
इस ग्रंथ में ब्राह्मण वर्ण की श्रीमाली, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, पल्लीवाल, पारीक, व्यास, पोखरणा इत्यादि जातियों और उप-जातियों का वर्णन किया गया है। श्रीमाली ब्राह्मणों में प्रचलित एक आकर्षक रिवाज का वर्णन करते हुए बताया गया है-
‘श्रीमालियां रे च्यार फेरा वींद वींदणी साथ परणै जिण दिन फिरें दूजे दिन कसाररा लाडू रा कवा सात वींद वींदणी रा मुख में दिये, इता ही कवा वींदणी वींद रा मुख में देवे छे। वींदणी नू कलायां माथा लेने च्यार फेरा फिरें।‘[10]
इस उल्लेख से उस समय श्रीमाली ब्राह्मणों में प्रचलित वैवाहिक रीति-रिवाज की एक रस्म का पता चलता है।
बांकीदास री ख्यात में जैन मत का उल्लेख
बांकीदास री ख्यात में जैन मत, जैन साधुओं और जैनों के अन्तर्गत ओसवाल समाज का विस्तार से वर्णन किया गया है। उस काल में ओसवास जाति तत्कालीन वैश्य समाज की एक सम्पन्न जाति थी जिसका प्रमुख कार्य व्यापार करना था। बांकीदास री ख्यात में जैनों की दो शाखाओं- तपोगच्छ और खतरगच्छ का विस्तार से वर्णन हुआ है जिनकी क्रमशः 13 एवं 11 उप-शाखायें थीं।
बांकीदास ने लिखा है कि तपोगच्छ शाखा में हीर विजय सूरि और खतरगच्छ में जिनचन्द्र सूरी नामक प्रसिद्ध सन्त हुए थे। खतरगच्छ शाखा के लोग अधिक विद्वान होते हैं और तपोगच्छ के अधिक धनी, ऐसा उन्होंने जैन समाज को देखकर लिखा है। अपने समय से पूर्व की एक बात का उल्लेख करते हुए बांकीदास ने लिखा है कि तपगच्छ वर्ग के मुनि ज्ञानविजय जोधपुर महाराजा अजीतसिंह के गुरु थे।
बांकीदास ने एक जैन मुनि वीरम विजय का जो ज्ञान विजय का शिष्य था एक स्त्री से अनुचित सम्बन्ध का उल्लेख किया है। बांकीदास ने बीकानेर शहर में खतरगच्छ श्रावकों के 700 घरों का वर्णन किया है- ‘बीकानेर में सात सौ घर खतरगच्छ रा सावकारा है। ‘ [11]
इस ख्यात से ज्ञात होता है कि जैन मुनि बड़े विद्वान होते थे। समाज में उनका बड़ा सम्मान था। कुछ जैन मुनि जोधपुर के राजाओं के गुरु रह चुके थे। बांकीदास री ख्यात के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन राजस्थान में जैन धर्म एक लोकप्रिय धर्म था। इसका प्रचार एवं प्रसार व्यापक था।
बांकीदास ने तातेड़, बापणा, कर्णावट, श्री श्रीमाल, संचेती, चोरड़िया इत्यादि प्रमुख ओसवाल गोत्रों का उल्लेख किया है। बांकीदास ने इस वर्ग के विविध स्थानों के धनी एवं कुछ प्रमुख दानकर्ताओं का भी उल्लेख किया है जिनमें सोम सुराणा (सांभर), भैंरू लोढ़ा (आगरा), रणधीर कोठारी (मेड़ता), जयमल मुहणोत-जालोर, आसकरण कोठारी मेहता, रतनसी गांधी जालोर, भण्डसाली (जैसलमेर), करमचन्द (बीकानेर) उल्लेखनीय हैं जिनकी स्मृति जनता में जागृत थी। [12] इस प्रकार इस ख्यात से पता चलता है कि ओसवाल वर्ग के सम्पन्न व्यक्ति दान-पुण्य में रुचि रखते थे ।
एक प्राचीन घटना का वर्णन करते हुए बांकीदास ने लिखा है कि सुराणा ने संवत् 1115 (1058) में नागौर बसाया था। एक अन्य उल्लेख में लेखक ने लिखा है कि संतीदास सुराणा नामक ओसवाल वैश्य की पुत्री जिसकी सगाई दुग्गड़ परिवार में की गई थी, विवाह से पूर्व ही बीकानेर के गांव मोरखाना में धरती में प्रवेश कर गई जहाँ इसका एक बड़ा देवल बना हुआ है। इस देवल की पूजा बांकीदास के समय तक सुराणा और दुग्गड़ दोनों करते थे।
एक और पूर्व घटना का उल्लेख करते हुए बांकीदास ने लिखा है कि वस्तुपाल और तेजपाल नामक ओसवाल वैश्यों ने देलवाड़ा के जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया जिन पर अठारह करोड़ रुपया व्यय हुआ। आबू के पास देलवाड़ा गांव में ही विमलशाह ने जैन मन्दिर का निर्माण करवाया जिस पर नौ करोड़ से अधिक रुपया व्यय हुआ। [13]
ग्राम सूजासर के वणिक भण्डसाली द्वारा करणीमाता के दर्शन के लिये आने का उल्लेख है। देशनोक में माताजी के मन्दिर के खजाने की चाबिया इन्हीं के वंशजों के पास रहती थी- ‘गांव भूजासर रो वाणियो जात भंडसाली करणी रे दरसण आयो………।‘ [14] इस उल्लेख से स्पष्ट है कि बीकनेर के करणीमाता मन्दिर के प्रति हिन्दुओं के साथ-साथ जैन मतावलम्बी भी श्रद्धा रखते थे।
बांकीदास ने जैन धर्म के प्रसद्धि तीर्थ स्थान ऋषभदेव केसरियानाथ, देलवाड़ा के जैन मन्दिरों तथा जैन धर्मावलम्बियों का भी उल्लेख किया है।
नागा साधुओं का वर्णन
बांकीदास री ख्यात से स्पष्ट होता है कि राजपूताना के राजवंशों पर नागापंथी साधुओं का बड़ा प्रभाव था। जनसामान्य भी इनके प्रभाव में था। ये साधु चमत्कार प्रदर्शन करने, जादू-टोना करने एवं भूत-प्रेत आदि बाधाएं भगाने की क्रियायें करते थे। नंदीनाथ नामक योगी के सवा लाख हिन्दू शिष्य थे। आयसजी नामक जोगी ने सम्वत् 1884 में 25 हाथी विभिन्न व्यक्तियों को दिये थे, जिनका बांकीदास ने उल्लेख किया है। [15] इससे स्पष्ट होता है कि उस काल में नागा साधु हाथी रखते थे। संतोषनाथ नामक एक जोगी द्वारा एक व्यक्ति का कोढ़ दूर किए जाने का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में किया गया है। धूणीनाथ नामक संन्यासी बीकानेर महाराजा सूरतसिंह का गुरु था।
वैरागी साधुओं का भी एक बड़ा वर्ग था। शिक्षित वैरागी टकसाली कहलाते थे और अनपढ़ अड़बंगी। इनके बड़े-बड़े ठाकुरद्वारे थे, जहाँ से सदाव्रत बंटता था।
चारणों, भाटों एवं उनकी वंशावलियों का वर्णन
बांकीदास री ख्यात में चारण तथा भाटों की वंशावालियों का वर्णन हुआ है। चारण तथा भाट राजा-महाराजाओं के विरुद (प्रशस्तियाँ) गाकर उन्हें प्रसन्न रखते थे। कई चारण बड़े विद्वान थे। इन्हें राजाओं द्वारा जागीरें एवं गांव दान में दिए जाते थे। ख्यात से पता चलता है कि कई चारण बहुत धनी हो गए थे। [16]
बांकीदास री ख्यात में हिन्दू धर्म का वर्णन
बांकीदास री ख्यात के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ईस्वी 1781 से 1833 की अवधि में राजस्थान का प्रमुख धर्म हिन्दू धर्म था। बांकीदास री ख्यात में हिन्दू धर्म के प्रमुख धर्म ग्रन्थों पुराण, पूर्व मीमांसा, वेदान्त और उनकी दार्शनिक विचारधाराओं का वर्णन है। बांकीदास ने अद्वैत दर्शन का भी उल्लेख किया है। उन्होंने प्रसिद्ध दार्शनिक कुमारिल भट्ट का भी उल्लेख किया है। बांकीदास के समय में हिन्दू जिन देवी-देवताओं की पूजा करते थे, उनका भी वर्णन बांकीदास री ख्यात में किया गया है।
बांकीदास री ख्यात के ‘भोगोलिक बातां’ अध्याय से विदित होता है कि उस काल में भैंरूजी एक प्रमुख देवता थे। मण्डोर में भैंरूजी का प्रसिद्ध मन्दिर था। सिरोही के पास अम्बादेवी की पूजा का उल्लेख भी किया गया है। शिव हिन्दुओं में प्रमुख देवता माने जाते थे। बांकीदास ने देश में अनेक स्थानों पर स्थापित शिव मन्दिरों एवं शिवलिगों का भी वर्णन किया है जिनकी पूजा की जाती थी। प्रयाग के पास स्थित तीन शिव मन्दिरों, केदारनाथ और काशी के प्रसिद्ध शिवमंदिरों का भी उल्लेख किया है।[17] इन मन्दिरों के दर्शन के लिये राजा-महाराजा तथा राजस्थान के श्रद्धालु व्यक्ति जाते थे। ये उल्लेख शैव मत की प्रतिष्ठा के सूचक हैं।
मारवाड़ में उस समय मेड़ता के चारभुजाजी के मन्दिर की बहुत प्रतिष्ठा थी। [18] आज भी राजस्थान में चारभुजाजी के मन्दिर पाये जाते हैं। लोकदेवताओं में पाबूजी प्रमुख देवता थे। बांकीदास ने कांकरोली के प्रसिद्ध वैष्णव मन्दिर और उनके पुजारियों का भी उल्लेख किया है। गुजरात के तीर्थ स्थानों में उस समय द्वारिकापुरी की यात्रा महत्वपूर्ण मानी जाती थी।
बांकीदास ने आधुनिक उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों गढ़मुक्तेश्वर, वृन्दावन और काशी का भी उल्लेख किया है। काशी में उदयपुर के राजाओं ने खानपुरा नामक स्थान बनवाया था। जहाँ सम्भवतः काशी यात्रा के समय मेवाड़ के राणा और अन्य प्रतिष्ठित जागीरदार ठहरते होंगे। काशी में बूंदी के राव द्वारा बनवाये गये एक महल का भी उल्लेख किया है जो राजमन्दिर नाम से विख्यात था।
बांकीदास के काल में होली राजस्थान का प्रमुख त्यौहार था।
बांकीदास री ख्यात में गुजरात का वर्णन
बांकीदास ने गुजरात के प्रमुख स्थानों का वर्णन भी ‘भोगोलिक बातां’ अध्याय में किया है। द्वारिकानाथ गुजरात का प्रमुख तीर्थ था। नाडोल, भावनगर, अहमदाबाद, पाटण, सूरत आदि गुजरात के प्रसिद्ध नगर थे।
बांकीदास को गुजरात में तेल के कुएँ होने का भी ज्ञान था। गुजरात की बड़ी नदियों में माही एवं साबरमती थी। गुजरात के कुछ सामाजिक रीतिरिवाजों की भी ख्यात से जानकारी मिलती है। गुजरात में आम, महुआ, इमली के पेड़ पवित्र माने जाते थे। बांकीदास ने गुजरात के प्रसिद्ध गरबा गीत एवं नृत्य का भी उल्लेख किया है- ‘गुजरात में गरबो गावै‘
विभिन्न वस्तुओं का वर्णन
बांकीदास री ख्यात में उस समय की प्रसिद्ध वस्तुओं का भी वर्णन हुआ है। मिठाईयों में मथुरा का पेड़ा प्रसिद्ध था। अभ्रक, कपूर, लोबान इत्यादि हवन और पूजन सामग्री यूनानी देशों (यूरोपीय देशों) से आती थी। मारवाड़ के धातु से बने प्रसिद्ध कांसे और पीतल के बर्तन सिंध को भेजे जाते थे। जैसलमेर का भूरा पत्थर प्रसिद्ध था। जैसलमेर के एक बाग के मीठे आमों तथा मुलतान के आमों का भी उल्लेख हुआ है। बांकीदास के काल में कच्छ के ऊँट विख्यात थे। गुजरात की चन्द्रकला साड़ियाँ तथा पूना की सूंघने की तम्बाखू भी प्रसिद्ध थी। [19]
ऐतिहासिक स्थलों का वर्णन
बांकीदास री ख्यात में लेखक ने राजस्थान, मालवा, गुजरात, दक्षिण के राज्यों, सिंध, पंजाब, दिल्ली और पूर्वी राज्यों की भौगोलिक स्थिति तथा वहाँ के प्रमुख स्थानों का वर्णन किया है। राजस्थान की भौगोलिक स्थिति का वर्णन करते हुए, दर्शनीय, ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थलों का विस्तार से वर्णन किया है।
बांकीदास ने उदयपुर की प्राकृतिक सुन्दरता का बहुत ही अनुपम वर्णन किया है। ‘भोगोलिक बातां’ अध्याय से ज्ञात होता है कि उस समय जोधपुर, मेड़ता, बाड़मेर, फलोदी, जैसलमेर, बीकानेर, उदयपुर, कांकरोली, सिरोही इत्यादि प्रमुख नगर थे। [20] बांकीदास ने उस समय के कुछ प्रमुख दुर्गों आमेर, ग्वालियर, चित्तौड़, चांपानेर, माण्डू, रणथम्भौर आदि का भी उल्लेख किया है।
बांकीदास री ख्यात में मुसलमानों का वर्णन
बांकीदास री ख्यात में मुसलमानों का जो वर्णन किया गया है उससे पता चलता है कि बांकीदास को इस्लाम और उसके प्रवर्तक मुहम्मद के बारे में अच्छा ज्ञान था। [21] इस ग्रन्थ में इस्लाम के सिद्धांतों एवं नियमों का वर्णन हुआ है- ‘कुरान में कहै है रोजा राखे, नमाज पड़े, नित खुदारौ जिकर करें सो खुदा कहे, म्हारो बंदौ।‘
बांकीदास ने मुस्लिम विवाह विधि का उल्लेख करते हुए कहा है कि मुस्लिम स्त्री विधवा होने पर चार माह दस दिन बाद पुनः विवाह कर सकती है। साथ यह भी बताया है कि मुसलमानों में चित्र बनाने और मूर्ति पूजा करने की मनाही है- ‘चित्र लिखणो, मूरत बणावणी मुसलमानांरै मनै है।‘ [22]
बांकीदास री ख्यात में प्रमुख मुस्लिम तीर्थ स्थानों का भी उल्लेख मिलता है जिनमें मक्का और मदीना प्रमुख थे। [23] बांकीदास ने मुसलमानों के दो प्रमुख फिरकों शिया और सुन्नी का उल्लेख किया है। उन्होंने गुजरात में रहने वाले सभी तुर्क बोहरों को शिया सम्प्रदाय का बताया है। उनके समय गुजरात में महदवी मुसलमान बड़ी संख्या में रहते थे जो कपड़े का व्यापार करते थे। बांकीदास ने तुरकों की बारह जातियों का भी उल्लेख किया है।
इस ग्रन्थ में ऐसे राजपूतों का वर्णन है जिन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण कर लिया था- ‘परमार, पड़िहार, खीची, तुवंर, सोलंकी, भुट्टा, सम्मा, जोइया, दहिया, मोहिल, जझा, चहुवाण इत्यादि राजपूत मुसलमानों में हैं।‘
मुसलमानों के विस्तृत वर्णन से स्पष्ट है कि बांकीदास के जीवन काल में मुसलमान बड़ी संख्या में राजपूताने में बस चुके थे।
मुस्लिम ग्रंथों का वर्णन
बांकीदास ने मुस्लिम इतिहासकारों के कुछ ऐतिहासिक ग्रन्थों- तवारीख साहबुद्दीनी, जफरनामा, अकबरनामा, तबाकत अकबरी, जहांगीरनामा, तवारीख आलमगीरी इत्यादि का भी उल्लेख किया है इन ग्रंथों में मुद्रा के लिये रुपया, फिरोजशाही आलमशाही, नारंगशाही आदि का उल्लेख किया गया है। [24]
बांकीदास री ख्यात में वर्णित इन विविध विषयों से ज्ञात होता है कि बांकीदास अपने समय के प्रमुख विद्वान थे। इन्हें राजपूताने की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति, समाज, धर्म, भूगोल आदि विषयों की अच्छी जानकारी थी।[25]
[1] लेख का आधार 1956 में राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मन्दिर द्वारा राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला क्रम के अन्तर्गत प्रकाशित ‘बांकीदास री ख्यात’ है।
[2] गोविंद सहाय व्यास, बांकीदासरी ख्यातः एक सांस्कृतिक अध्ययन, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस, वोल्यूम 9, वर्ष 1976, पृ. 42-49.
[3] बांकीदास ग्रन्थावली भाग 3 से उद्धत पुरोहित हरि नारायणजी के नाम ओझाजी के पत्र का अंश
[4] मुनि जिनविजय- बांकीदासरी ख्यात का प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य
[5] डा. गोपीनाथ शर्मा-ए बिबलियोग्राफी ऑफ मेडिवल राजस्थान, पृष्ठ 80
[6] बांकीदास री ख्यात- राठौड़ां री खापां, पृष्ठ 1, 2
[7] उपरोक्त।
[8] डॉ. गोपीनाथ शर्मा- ए बिबलियोग्राफी ऑफ मेडिवल राजस्थान, पृष्ठ 80
[9] (ब) बांकीदास री ख्यात पृष्ठ 178/2158
[10] वही, पृष्ठ 177/2148
[11] वही, पृष्ठ 173/2085
[12] वही, पृष्ठ 174/2095
[13] वही, पृष्ठ 174/2103
[14] वही, पृष्ठ 175/2113, 14
[15] वही, पृष्ठ 176/2127
[16] वही, पृष्ठ 172/2073
[17] वही, पृष्ठ 185/2265 मुसलमानां री बातां
[18] वही, पृष्ठ 208/2603, 2608, 2611, 2615, भौगोलिक बातां
[19] वही, पृष्ठ 209/2625 से 2637 विविध स्थाना री प्रसिद्ध वस्तुवां।
[20] वही, पृष्ठ 201 से 204, भौगोलिक बातां राजस्थान।
[21] वही, पृष्ठ 180/2190, 91 चारणां री बातां
[22] वही, पृष्ठ 183/2232 से 36, अध्याय मुसलमानां री बातां
[23] वही, पृष्ठ 184/2260 मुसलमानां री बातां
[24] वही, पृष्ठ 212/2678 से 2680, इतिहास
[25] गोविंद सहाय व्यास, बांकीदासरी ख्यातः एक सांस्कृतिक अध्ययन, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस, वोल्यूम 9, वर्ष 1976, पृ. 42-49.