जिस समय राजा पृथ्वीराज चौहान, दक्षिण में चौलुक्यों, उत्तर में जम्मू एवं कांगड़ा के राजाओं, पूर्व में चंदेलों एवं उत्तर-पूर्व में गाहड़वालों से उलझा हुआ था, उस समय पश्चिम दिशा में अफगानिस्तान से आए बर्बर तुर्क भारत में बड़ी तेजी से अपना विस्तार कर रहे थे।
भारत में तुर्कों के आक्रमणों के इतिहास में प्रवेश करने से पहले हमें तुर्कों के इतिहास पर एक दृष्टि डालनी चाहिए। तुर्कों के पूर्वज हूण थे तथा वे चीन की पश्मिोत्तर सीमा पर रहते थे। जब तुर्की कबीले चीन से निकलकर मध्य एशिया में फैलने लगे तो उनमें शकों तथा ईरानियों के रक्त का भी मिश्रण हो गया। जिस समय अरब में इस्लाम का उदय हुआ, उस समय तक बर्बर तुर्क लड़ाका जाति के रूप में संगठित थे तथा उनका सांस्कृतिक स्तर अत्ंयत निम्न श्रेणी का था।
वे खूंखार और लड़ाकू थे। युद्ध से उन्हें स्वाभाविक प्रेम था। जब अरब में इस्लाम का प्रचार आरंभ हुआ तब बहुत से तुर्कों को पकड़ कर गुलाम बना लिया गया तथा उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिये बाध्य किया गया।
लड़ाकू होने के कारण गुलाम तुर्कों को अरब के खलीफाओं का अंगरक्षक नियुक्त किया जाने लगा। बाद में वे खलीफा की सेना में उच्च पदों पर नियुक्त होने लगे। जब खलीफा निर्बल पड़ गये तो तुर्कों ने खलीफाओं से वास्तविक सत्ता छीन ली। खलीफा नाम मात्र के शासक रह गये।
जब खलीफाओं की विलासिता के कारण इस्लाम के प्रसार का काम मंदा पड़ गया तब बर्बर तुर्क ही इस्लाम को दुनिया भर में फैलाने के लिये आगे बढ़े। 10वीं शताब्दी में तुर्कों ने बगदाद एवं बुखारा में अपने स्वामियों अर्थात् खलीफाओं के तख्ते पलट दिये।
ई.943 में तुर्की गुलाम अलप्तगीन ने मध्य-एशिया के अफगानिस्तान में स्थित गजनी नामक एक छोटे से दुर्ग पर अधिकार कर लिया जिसका निर्माण यदुवंशी भाटियों ने किया था।
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इस प्रकार ई.943 में गजनी दुर्ग में तुर्कों के पहले स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई। ई.977 में अलप्तगीन का गुलाम एवं दामाद सुबुक्तगीन गजनी का शासक बना। सुबुक्तगीन का वंश गजनी वंश कहलाने लगा। गजनी से बर्बर तुर्क, भारत की ओर आकर्षित हुए। भारत में इस्लाम का प्रसार इन्हीं तुर्कों ने किया। माना जाता है कि अरबवासी इस्लाम को अरब से कार्डोवा तक ले आये। ईरानियों ने उसे बगदाद तक पहुंचाया और बर्बर तुर्क उसे दिल्ली ले आये।
सुबुक्तगीन ने एक विशाल सेना लेकर पंजाब के राजा जयपाल पर आक्रमण किया। जयपाल ने उससे संधि कर ली तथा उसे 50 हाथी देने का वचन दिया किंतु बाद में जयपाल ने संधि की शर्तों का पालन नहीं किया। इस पर सुबुक्तगीन ने भारत पर आक्रमण करके लमगान को लूट लिया। ई.997 में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई।
सुबुक्तगीन के उत्तराधिकारी महमूद गजनवी ने गजनी के छोटे से राज्य को विशाल साम्राज्य में बदल दिया जिसकी सीमाएं लाहौर से बगदाद तथा सिंध से समरकंद विस्तृत थीं।
ई. 1030 में महमूद की मृत्यु हो गई किंतु उसके उत्तराधिकारी पंजाब के काफी बड़े हिस्से को अपने अधीन बनाये रखने में सफल रहे। ई.1115 में बहराम शाह गजनी का शासक हुआ। उसने 6 दिसम्बर, 1118 को मुहम्मद बाहलीम को अपने हिन्दुस्तानी प्रान्तों का प्रान्तपति नियुक्त किया। ईस्वी 1119 में बाहलीम ने अपने सुल्तान बहराम शाह से विद्रोह करके स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया।
तबंकात-ए-नासिरी तथा तारीख-ए-फरिश्ता में लिखा है कि बाहलीम ने पंजाब से दक्षिण की ओर बढ़कर नागौर पर अधिकार कर लिया। उसने नागौर दुर्ग में कुछ निर्माण करवाया तथा अपनी स्थिति मजबूत की। उस समय नागौर चौहान शासक अजयराज के अधीन था जो कि पृथ्वीराज (प्रथम) का पुत्र था। राजा अजयराज चौहान को अपने कई क्षेत्र बहरामशाह तथा बाहलीम के हाथों खोने पड़े।
बाहलीम ने अपना खजाना और अपनी सेना नागौर में केन्द्रित कर लिये तथा यहाँ से वह आसपास के भू-भाग पर चढ़ाइयां करने लगा। छोटी-मोटी सफलताओं से बाहलीम के हौंसले बुलंद हो गये तथा उसने अपने स्वामी बहरामशाह पर चढ़ाई कर दी। बहरामशाह ने विशाल सेना लेकर बाहलीम का सामना किया। मुल्तान के निकट बाहलीम परास्त हो गया तथा अपने दस पुत्रों के साथ युद्ध क्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ। भागता हुआ बाहलीम अपने पुत्रों सहित दलदल में फंस गया और वह तथा उसके सभी साथी दलदल में मर गये।
बाहलीम से छुटकारा पाकर बहरा शाह ने इब्राहीम अलवी के पुत्र सालार हुसैन को अपने हिन्दुस्तानी प्रांतों का गवर्नर बनाया। इन प्रांतों में नागौर भी सम्मिलित था। आगे चलकर जब अजयराज चौहान का पुत्र अर्णोराज चौहान राज्य का स्वामी हुआ तब अर्णोराज ने सालार हुसैन को परास्त करके नागौर पुनः अपने अधीन कर लिया।
इस प्रकार बर्बर तुर्क लड़ाके चीन से मध्य एशिया और अफगानिस्तान होते हुए भारतीय क्षेत्रों को पददलित कर रहे थे किंतु भारतीय शासक संगठित होकर इन तुर्कों से लड़ने के स्थान पर एक दूसरे से लड़-कट कर मरे जा रहे थे।
यह भारत भूमि का दुर्भाग्य था कि इस काल में देश और राष्ट्र की परिभाषा केवल अपने स्वामी द्वारा शासित क्षेत्र में संकुचित थीं और धर्म का तात्पर्य अपने स्वामी के लिए लड़ते हुए मर जाने तक सीमित था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता