जब दिल्ली पर बहलोल लोदी का शासन था, तब कायमखानी नवाब फतेह खाँ अपने चाचा मुहम्मद खाँ के साथ हांसी से भागकर शेखावाटी के इलाके में चला आया तथा जाटों के एक गांव पर कब्जा करके वहाँ रहने लगा। कुछ समय बाद उसने फतहपुर दुर्ग एवं कस्बे की स्थापना की।
फतहपुर दुर्ग के निर्माता
फतेहपुर दुर्ग ई.1453 में नवाब फतेह खाँ ने बनवाया। उसने किले का अंतःभाग तथा प्राचीर का ही निर्माण करवाया। बाद में नवाब जलाल खाँ ने इस दुर्ग का परकोटा बनवाया तथा दुर्ग में अनेक निर्माण करवाये।
फतहपुर दुर्ग की श्रेणी
यह रेतीले टीलों के बीच एक मैदान में बनवाया गया था जिसके चारों ओर सघन पेड़ खड़े थे। इसलिये यह धान्वन तथा ऐरण श्रेणी का दुर्ग है। खाई एवं परकोटे से घिरे हुए होने के कारण यह पारिख एवं पारिघ श्रेणी का भी दुर्ग है। सैनिकों की निरंतर उपस्थिति के कारण यह सैन्य श्रेणी का दुर्ग था।
फतहपुर दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था
दुर्ग के प्राकार की मोटाई 20 फुट एवं ऊंचाई 50 फुट है। दुर्ग 60 फुट व्यास के वृत्ताकार क्षेत्र में निर्मित किया गया है। जलाल खाँ ने इस दुर्ग के चारों ओर 12 कोस तक के जंगलों में वृक्ष काटने पर पाबंदी लगा दी जिससे दुर्ग को सुरक्षा, जलाऊ लकड़ी एवं पशुओं के लिये चारा मिलता रहा।
किले की प्राचीर 20 से 25 फुट मोटी तथा 50 फुट ऊंची है। इस प्राचीर के बाहर लगभग 20 फुट की दूरी पर एक चौड़ी खाई खोदी गई थी। इस खाई और प्राचीर के बीच 20 फुट चौड़ी भूमि पर सैनिक नियुक्त रहते थे।
दुर्ग में प्रवेश
दुर्ग का प्रथम प्रवेश द्वार दक्षिण दिशा की तरफ है तथा मध्यम आकार का है। दूसरा द्वार पूर्व दिशा में है तथा पहले वाले से कुछ बड़ा है। मुख्य प्राचीर यहीं से दोनों ओर खाइयों से घिरी हुई थी। दूसरे द्वार से प्रवेश करने पर विशाल अंतः प्रांगण आता है। इसके बाईं ओर राजमहल बने हुए हैं।
फतहपुर दुर्ग का स्थापत्य
फतहपुर दुर्ग चतुर्भुज आकार में निर्मित है जिसके चारों कोनों पर विशाल बुर्ज सीधी खड़ी की गई हैं। दुर्ग के भीतर अनेक महल स्थित हैं जिनमें तेलिन का महल अधिक प्रसिद्ध है। दुर्ग परिसर में सैनिक आवास, अस्तबल, रनिवास, शाही महल आदि निर्माण आज भी देखे जा सकते हैं। दुर्ग में कई मीनारें, नवाब दौलत खाँ का मकबरा तथा एक बावड़ी भी स्थित है।
तेलिन का महल
प्राचीर भाग के पास मुख्य महलों की पंक्ति से अलग तेलिन का प्रसिद्ध महल है। तेलिन, सरदार खाँ की प्रेयसी थी, जिसके लिये अलग से इस महल का निर्माण करवाया गया। एक ओर जहाँ पूरा दुर्ग और उसके भीतर की इमारतें पूरी तरह साधारण हैं वहीं दूसरी ओर यह महल कलात्मक विधि से बनाया गया है।
अपनी इस प्रेयसी के लिये नवाब सरदार खाँ ने अपना राज्य, प्रतिष्ठा और पारिवारिक जीवन, सभी कुछ दांव पर लगा दिया था। यह महल आज भी अच्छी स्थिति में खड़ा है। जब शत्रुओं ने दुर्ग को घेर लिया, तब सरदार खाँ ने अदम्य शौर्य का परिचय दिया। तेलिन महल से पश्चिम की ओर रनिवास और शाही महल बना हुआ है।
सुदृढ़ता और सादगी इन महलों की विशेषता है। इनके निर्माण में खाटू के पीले पत्थर का प्रयोग किया गया है। झरोखों पर फूल-पत्ते उत्कीर्ण किये गये हैं। महलों के अंतःभाग से एक बड़ा झरोखा पीछे के मैदान की ओर खुलता है जहाँ बैठकर नवाब, अपने सरदारों और सैनिकों से वार्तालाप करता था।
इस झरोखे से कुछ दूरी पर सैनिकों एवं सरदारों के आवास बने हुए हैं। इनके पास ही हाथियों के पीलखाने एवं घोड़ों के अस्तबल बने हुए हैं। दुर्ग के बड़े आंगन में एक नया महल स्थित है जो शेखावतों द्वारा बनवाया गया था। किले से एक सुरंग बाहर की ओर जाती थी जो अब बंद है।
फतहपुर दुर्ग पर आक्रमण
जब नागौर का दुर्ग भी फतेह खाँ के अधीन हो गया, तब नवाब फतह खाँ नागौर दुर्ग में रहने लगा। जब जोधपुर के राव जोधा ने नागौर दुर्ग पर आक्रमण किया तो फतह खाँ को नागौर दुर्ग खाली करके पुनः फतहपुर दुर्ग में आना पड़ा। कुछ समय बाद फतह खाँ ने जोधा के शत्रु वैरसल तथा नरवद को शरण दी तो जोधा ने फतहपुर दुर्ग पर भी चढ़ाई कर दी। तीन दिन चले युद्ध के बाद फतहपुर दुर्ग का पतन हो गया।
जोधा ने फतहपुर दुर्ग में बसे नगर को जलाकर राख कर दिया। फतह खाँ भागकर हिसार के फौजदार की शरण में चला गया। जोधा भी अपने पुत्र राजकुमार जोगा को फतहपुर दुर्ग का स्वामित्व देकर जोधपुर चला गया। मारवाड़ के इतिहास में राजकुमार जोगा अपनी अकर्मण्यता के लिये प्रसिद्ध हुआ है। इस कारण कुछ समय बाद ही दुर्ग पुनः कायमखानियों के अधिकार में चला गया।
जलाल खाँ के समय बीदा और दाउद खाँ ने मिलकर फतहपुर दुर्ग पर आक्रमण किया। जलाल खाँ ने बीदा और दाउद खाँ को मार भगाया। ई.1512 में बीकानेर के राव लूणकर्ण ने फतेहपुर दुर्ग पर आक्रमण किया। नवाब, दुर्ग की रक्षा करने में समर्थ नहीं था इसलिये उसने राव को 120 गांव समर्पित किये तथा दुर्ग को राठौड़ों के हाथों में जाने से बचा लिया।
ई.1541 में जोधपुर के राव मालदेव ने फतहपुर पर आक्रमण किया तथा दुर्ग पर अधिकार कर लिया। नवाब ने मालदेव की अधीनता स्वीकार कर ली। मालदेव ने दुर्ग, कायमखानियों को लौटा दिया।
ई.1703 में सरदार खाँ दुर्ग का स्वामी हुआ। वह तेलिन जाति की एक सुंदर स्त्री से प्रेम करता था। इस कारण उसके सरदार उससे नाराज हो गये। वे सीकर के राजा शिवसिंह के पास पहुंचे और उसे फतेहपुर पर चढ़ा लाये। सरदार खाँ परास्त हो गया और उसे पेंशन देकर नवाबी से मुक्त कर दिया गया।
कुछ दिनों बाद सरदार खाँ ने शेखावतों को दुर्ग से बाहर निकाल दिया। इस पर सीकार का राजा शिवसिंह बहुत क्रुद्ध हुआ और पुनः दुर्ग पर चढ़ बैठा। सरदार खाँ ने सारे कायमखानियों को एकत्रित कर लिया तथा शेखावतों का डटकर मुकाबला किया। युद्ध का परिणाम शेखावतों के पक्ष में रहा। सरदार खाँ बुरी तरह घायल होकर हिसार भाग गया जहाँ ई.1731 में उसकी मृत्यु हो गई। दुर्ग पर शेखावतों का अधिकार हो गया।
ई.1779 में दिल्ली के बादशाह आलमशाह ने तथा ई.1797 में जयपुर नरेश ने फतेहपुर दुर्ग पर आक्रमण किया किंतु शेखावतों ने इन हमलों को विफल कर दिया। ई.1801 में बलरा का ठाकुर, जार्ज फ्रान्सिस की सहायता लेकर फतहपुर पर चढ़ आया किंतु शेखावतों ने उन्हें भी धकेल दिया। इस प्रकार ई1731 से ई.1949 तक यह दुर्ग शेखावतों के पास रहा, उन्हें कोई परास्त नहीं कर सका।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता