Saturday, September 21, 2024
spot_img

नागौर दुर्ग

नागौर दुर्ग काले नागों द्वारा ईसा की दूसरी अथवा तीसरी शताब्दी में बनवाया गया और उसके चारों और (विशेषतः पृष्ठभाग में) नागौर नगर बस गया। नागौर थार रेगिस्तान के द्वार पर बसा है। उस काल में जो नागौर का स्वामी होता था, वह सारे रेगिस्तान का अधिपति होता था।

जब मगध में गुप्तों का शासन हुआ तो उन्होंने पश्चिमी राजस्थान में स्थित छोटे-छोटे राज्यों एवं गणराज्यों को अपने अधीन किया। इनमें से कुछ राज्य एवं गणराज्य नष्ट कर दिये गए किंतु कुछ नाग शासक गुप्तों की अधीनता स्वीकार करके अपने राज्य बनाये रखने में सफल रहे। इस प्रकार इस क्षेत्र पर नागों का राज्य लगभग ईसा की छठी शताब्दी तक रहा।

दुर्ग का नाम

प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथों, शिलालेखों, ख्यातों आदि में नागौर दुर्ग के कई नाम मिलते हैं जिनमें अहिपुर, अहिच्छत्रपुर, नागपट्टन, नाग दुर्ग और नागाणा आदि प्रमुख हैं।

दुर्ग की श्रेणी

यह दुर्ग एक विशाल मैदान में स्थित था इसलिये यह स्थल दुर्ग श्रेणी में आता था। इसके चारों ओर विशाल मरुस्थल था इसलिये यह धन्व दुर्ग श्रेणी में आता था। इसके चारों ओर गहरी खाई होने से यह पारिघ दुर्ग श्रेणी में भी आता था।

वर्तमान दुर्ग के निर्माता

वर्तमान में जो दुर्ग दिखायी देता है उसका निर्माण 10वीं शताब्दी के लगभग चौहान राजपूतों ने करवाया। जब जोधपुर के राजकुमार बखतसिंह ने ई.1724 में अपने पिता की हत्या करके नागौर को अपनी राजधानी बनाया तब उसने इस दुर्ग का काया-कल्प करवाया। इस दुर्ग में उसी काल के राठौड़ कालीन निर्माणों की बहुलता है।

दुर्ग की सुरक्षा

नागों द्वारा निर्मित दुर्ग मूलतः मिट्टी का बना हुआ था। बाद में इसे पक्की ईंटों एवं पत्थरों से बनाया गया। पूरा दुर्ग तिहरी प्राचीर से सुरक्षित है। पहली और दूसरी प्राचीर दस और बीस मीटर ऊंची हैं। बाहरी परकोटे की नींव की चौड़ाई 12 मीटर तथा शीर्ष भाग की चौड़ाई पांच मीटर है। बाहरी परकोटे में लगभग 50 मीटर ऊंची 30 बुर्ज बनी हुई हैं। दुर्ग में सिराई पोल, बिचली पोल, कचहरी पोल, सूरजपोल, घूणी पोल एवं राज पोल नामक 6 दरवाजे हैं।

किले के चारों ओर गहरी खाई हुआ करती थी जिसे महाराणा कुंभा ने नागौर दुर्ग पर आक्रमण के समय पटवा दिया। बाद में इसे दुबारा खुदवाया गया किंतु वर्तमान में यह खाई दिखाई नहीं देती। तिहरी प्राचीर, ऊंची बुर्जें तथा चौड़ी खाई के कारण बाहर से फैंके गये तोप के गोले भीतर स्थित महलों तक नहीं पहुंच पाते थे। वर्तमान में दुर्ग के चारों ओर नगर का विस्तार हो जाने से यह नागौर नगर के मध्य में आ गया है।

दुर्ग के प्रवेश द्वार

किले का मुख्य द्वार अत्यंत भव्य है। इस पर लोहे के सींखचों से युक्त विशाल दरवाजे लगे हुए हैं। दरवाजे के दोनों ओर विशाल बुर्ज बनी हुई हैं। दरवाजे के ऊपर धनुषाकार तोरण तथा शीर्ष भाग पर तीन द्वारों वाले झरोखे बने हुए हैं। कुछ आगे चलने पर दूसरा बड़ा दरवाजा आता है। यहाँ से 60 डिग्री का कोण बनाते हुए तीसरा विशाल दरवाजा है। दोनों दरवाजों के बीच का भाग घूघस कहलाता है।

दुर्ग के भीतरी निर्माण

दुर्ग में महाराजा अजीतसिंह तथा उसके पुत्र राजाधिराज बख्तसिंह के समय में बनवाये गये अनेक महल स्थित हैं। शीश महल, हाड़ी महल तथा अकबरी महल भी देखे जा सकते हैं। इन महलों की छतों, दीवारों एवं दरवाजों पर भित्तिचित्र बने हुए हैं। अकबर ने दुर्ग के भीतर एक फव्वारा बनवाया था तथा अकबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था। दुर्ग में दीवाने आम, बारादरी, तालाब, बावड़ियां आदि भी विद्यमान हैं। बावड़ियों के किनारे वायुसेवन के लिये मुगलकालीन बारादरियां एवं सुखखाना भी बने हुए हैं।

दुर्ग के लिये त्रिकोणीय संघर्ष

छठी शताब्दी के आरम्भ में थार रेगिस्तान के उत्तरी एवं पूर्वी किनारे पर, मगध के गुप्तों की छत्रछाया में नाग जाति शासन कर रही थी किंतु गुप्त साम्राज्य के नष्ट हो जाने के कारण पश्चिमी एवं मध्य राजस्थान में चौहानों का उदय हुआ तथा मण्डोर में प्रतिहारों का उदय हुआ। इन तीनों शक्तियों में इस क्षेत्र पर आधिपत्य को लेकर भयानक संघर्ष छिड़ गया। चूंकि क्षेत्र की सत्ता नागों के पास थी इसलिये चौहानों तथा प्रतिहारों, दोनों ने ही नागों को निशाना बनाया।

डौडवेल के अनुसार प्रतिहारों ने काले नागों का खून बुझाने का कार्य किया और काला मिसल के नागों को मौत के घाट उतार दिया। गर्भस्थ शिशुओं को भी नहीं छोड़ा गया ताकि इनकी शक्ति को पूरी तरह कुचल दिया जाये। किसी तरह थोड़े से नाग बचे रहे जो बलाया गांव में बसे तथा वहाँ से अन्यत्र गये। नागौर दुर्ग में नागणेची माता का मंदिर है जो नागौर दुर्ग के नागों की कुलदेवी मानी जाती है। 

चौहानों का नागौर दुर्ग पर अधिकार

ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिहारों द्वारा नागों का सफाया किए जाने का लाभ चौहानों ने उठाया और उन्होंने नागौर दुर्ग तथा उसके अधीन आने वाले समस्त क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। बिजौलिया अभिलेख (ई.1170) इस बात की पुष्टि कर चुका है कि चौहानों का आदि पुरुष वासुदेव ई.551 के आसपास हुआ जिसका वंशज सामान्त ई.817 के आसपास हुआ। सामन्त की राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी। नागौर से आगे बढ़कर चौहानों ने सांभर को अपनी राजधानी बनाया।

अतः अनुमान होता है कि ई.551 में वासुदेव चौहान नागौर क्षेत्र पर शासन करता होगा। जब चौहानों ने नागौर में अपना प्रभुत्व जमा लिया तो इस क्षेत्र के नाग-पूर्वी राजस्थान की ओर खिसक गये। कोटा जिले के शेरगढ़ से ई.791 का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। इसमें नागवंशी राजाओं- बिन्दुनाग, पद्मनाग, सर्वनाग तथा देवदत्त के नाम लिखे हैं। ये नाग चित्तौड़ के गुहिलों के अधीन राज्य कर रहे थे।

परिहारों का विस्तार

आठवीं शताब्दी ईस्वी में चौहानों की राज्यलक्ष्मी धीरे-धीरे विकास को प्राप्त हो रही थी किंतु दूसरी ओर प्रतिहारों के सौभाग्य से प्रतिहारों को अत्यधिक योग्य राजाओं का नेतृत्व प्राप्त हो रहा था। आठवीं शताब्दी आते-आते प्रतिहारों का प्रताप चारों ओर फैल गया। ई.756 के एक शिलालेख में चाहमानों की छः पीढ़ियों के नाम दिये गए हैं। इसमें अंतिम नाम भर्तृवृद्ध का है। यह भर्तृवृद्ध (द्वितीय), प्रतिहार राजा नागावलोक (नागभट्ट) का सामंत माना जाता है। अर्थात् 8वीं शताब्दी के आसपास चौहान, प्रतिहारों के अधीन रहकर शासन कर रहे थे।

नागों की शक्ति का प्रभाव

आठवीं शताब्दी में भले ही प्रतिहार, शक्ति के चरम पर पहुंच चुके थे किंतु नाग जाति अब भी शक्ति का प्रतीक बनी हुई थी। प्रतिहार वंशी राजाओं के नाम ‘नागभट्ट’ आदि मिलते हैं जो नाग शब्द के साथ संयुक्त शक्तिशाली होने की ध्वनि तथा नागों पर प्रतिहारों की विजय की ओर संकेत करते हैं। झालावाड़ से ई.690 का, राजा दुर्गनाग का एक अभिलेख मिला है। यह मौर्य वंशी राजा था किंतु शक्ति-सम्पन्न होने के प्रतीक के रूप में अपने नाम में नाग लिखता था।

नागौर दुर्ग के लिये मुसलमानों एवं चौहानों में संघर्ष

ई.1115 में बहरामशाह गजनी का शासक हुआ। उसने 6 दिसम्बर 1118 को मुहम्मद बाहलीम को अपने हिन्दुस्तानी प्रान्तों का प्रान्तपति नियुक्त किया। ईस्वी 1119 में बाहलीम ने सुल्तान बहराम से विद्रोह करके स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। बाहलीम ने दक्षिण की ओर बढ़कर नागौर पर आक्रमण किया। उस समय नागौर, अजमेर के चौहान शासक अजयराज के अधीन था। अजयराज को अपने कई क्षेत्र बहराम तथा बाहलीम के हाथों खोने पड़े।

बाहलीम ने नागौर दुर्ग में कुछ निर्माण भी करवाये तथा अपना खजाना और सेना नागौर में केन्द्रित कर लिये। वह आसपास के भू-भाग पर चढ़ाइयां करने लगा। छोटी-मोटी सफलताओं से बाहलीम के हौंसले बुलंद हो गए तथा उसने अपने स्वामी बहरामशाह पर चढ़ाई कर दी। बहरामशाह ने विशाल सेना लेकर बाहलीम का सामना किया। मुल्तान के निकट बाहलीम परास्त हो गया तथा अपने दस पुत्रों के साथ युद्ध क्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

भागता हुआ बाहलीम अपने पुत्रों सहित दलदल में फंस गया और वह तथा उसके सभी साथी दलदल में मर गये। बाहलीम से छुटकारा पाकर बहरामशाह ने इब्राहीम अलवी के पुत्र सालार हुसैन को अपने हिन्दुस्तानी प्रांतों का गवर्नर बनाया। इन प्रांतों में नागौर भी सम्मिलित था। अजयराज चौहान के पुत्र अर्णोराज ने सालार हुसैन को परास्त करके नागौर दुर्ग फिर से अपने अधीन कर लिया।

तेरहवीं शताब्दी में नागौर दुर्ग पुनः दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। यदीनी गवर्नर अबू माली ने दुर्ग में कुछ निर्माण करवाये। इल्तुतमिश के गवर्नर शम्सखान ने भी दुर्ग में कुछ निर्माण करवाये। ईस्वी 1253 में दिल्ली का सुल्तान अमीर गयासुद्दीन अपने गुलाम बलबन से नाराज हो गया। सुल्तान गयासुद्दीन ने बलबन को नागौर का गवर्नर बनाकर भेज दिया।

बलबन ने नागौर में पांव पसारने आरम्भ किए तथा रणथम्भौर के नाहरदेव से भारी राशि वसूल की। इस खजाने का उपयोग बलबन ने अपनी सामरिक शक्ति के विस्तार में किया। इसी बीच दिल्ली सुल्तान के दरबार में यूनुष नामक अमीर के आतंक से सल्तनत के सारे अमीर घबरा गये। इसी यूनुष ने षडयंत्र करके बलबन को दिल्ली दरबार से निकाल कर दूर (नागौर) भिजवाया था।

दिल्ली के कुछ अमीरों ने बलबन को आमंत्रित किया कि वह दिल्ली आकर यूनुष का निबटारा करे। बलबन ने भटिण्डा, सुनाम तथा लाहौर के गवर्नरों को अपनी सेनाएं लेकर भटिण्डा पहुंचने को कहा तथा स्वयं भी दिल्ली की ओर बढ़ने लगा। अमीर गयासुद्दीन ने अपने इन चारों गवर्नरों की संयुक्त सेनाओं का सामना सुनाम के निकट किया। सुल्तान को परास्त होकर हांसी भाग जाना पड़ा। बलबन ने सुल्तान से कहलवाया कि वह यूनुष को अपदस्थ कर दे तथा बलबन को पुनः दरबार में पुराना ओहदा प्रदान करे। सुल्तान ने बलबन की सारी बातें मान लीं।

दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद गयासुद्दीन बलबन दिल्ली का सुल्तान बना। ई.1226 में उसकी मृत्यु हुई। उसकी मृत्यु होने तक नागौर, दिल्ली सल्तनत के अधीन बना रहा। इस प्रकार मुहम्मद गौरी से लेकर गयासुद्दीन बलबन के समय तक नागौर दुर्ग, मुस्लिम सत्ता का महत्वपूर्ण केन्द्र बना रहा किंतु बलबन के मरते ही रणथम्भौर के चौहान शासक हम्मीर ने आक्रमण करके नागौर दुर्ग तथा वर्तमान नागौर जिले के काफी बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।

उसके बाद से नागौर मुस्लिम सत्ता का प्रभावशाली केन्द्र नहीं रहा। दिल्ली के खिलजी और तुगलक शासकों के काल में नागौर के स्थान पर रणथम्भौर, चित्तौड़ तथा मेड़ता को महत्व मिलने लगा। कुछ समय बाद नागौर दुर्ग पुनः मुसलमानों के अधिकार में चला गया।

नागौर दुर्ग के लिये राठौड़ों एवं मुसलमानों में संघर्ष

ईस्वी 1399 में मण्डोर के राव चूण्डा ने नागौर दुर्ग पर चढ़ाई की और खोखर मुस्लिम शासक को मारकर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। मालानी के राव मल्लीनाथ ने भी इस कार्य में अपने भतीजे चूण्डा की सहायता की। चूण्डा अपने पुत्र सत्ता को मण्डोर में रखकर स्वयं नागौर दुर्ग में रहने लगा। चूण्डा ने भाटियों के राजा राणागदे को मारा और उसका माल लूटकर नागौर ले आया। कुछ ही समय में चूण्डा ने डीडवाना, सांभर, अजमेर तथा नाडौल पर भी अधिकार कर लिया।

कुछ समय बाद चूण्डा की मोहिल रानी ने चूण्डा के बड़े पुत्र रणमल को राज्याधिकार से वंचित करवाकर मारवाड़ से निकलवा दिया तथा राजपूत सरदारों को दिये जाने वाले घी एवं राशन की मात्रा कम कर दी। इससे नाराज होकर कई राजपूत सरदार चूण्डा को छोड़कर चूण्डा के बड़े पुत्र रणमल के पास मेवाड़ चले गये।

जब यह बात राठौड़ों के शत्रुओं अर्थात् भाटियों एवं मुसलमानों को ज्ञात हुई तो उन्होंने एक साथ मिलकर नागौर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। राव चूण्डा ने उनका सामना किया तथा 15 मार्च 1423 को दुर्ग के सामने लड़ते हुए काम आया। नागौर दुर्ग पर मुहम्मद फीरोज का अधिकार हो गया।

चूण्डा के निधन के बाद उसका बड़ा पुत्र रणमल मेवाड़ छोड़कर वापस मारवाड़ आ गया। महाराणा मोकल ने रणमल को अपनी सेना दे दी ताकि रणमल, मारवाड़ का राज्य वापस ले सके। ई.1427 में रणमल ने मुहम्मद फीरोज से नागौर का दुर्ग छीन लिया। फीरोज इस युद्ध में मारा गया। संभवतः रणमल दुर्ग पर बहुत कम समय तक अपना अधिकार बनाये रख सका तथा फीरोज के भाई मुजाहिद खां ने नागौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

दुर्ग के लिये गुहिलों एवं मुसलमानों में संघर्ष

ई.1447 के लगभग कायम खान नागौर दुर्ग का शासक था, उसके बाद मुजाहिदखां के भतीजे शम्सखां (द्वितीय) ने नागौर दुर्ग पर अधिकार किया। ईस्वी 1453 में मालवा के शासक मुहम्मदशाह खिलजी ने नागौर पर आक्रमण किया किंतु नागौर के शासक मुजाहिद खां ने गुजरात के सुल्तान की सहायता प्राप्त कर ली। अतः महमूद सांभर से ही चुपचाप लौट गया। कुछ समय बाद मुजाहिदखां, उसके भाई फीरोजखां तथा फीरोजखां के पुत्र शम्स खां के बीच झगड़ा हो गया।

शम्सखां मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सहायता ले आया। शम्स खां ने महाराणा से वायदा किया कि वह महाराणा की अधीनता में रहेगा तथा नागौर का परकोटा गिरा देगा। इस पर महाराणा ने मुजाहिदखां को नागौर से बाहर निकाल दिया तथा शम्सखां को नागौर का शासक बना दिया। संभवतः इसी आक्रमण में कुंभा ने नागौर दुर्ग में स्थित उस मस्जिद को तोड़ दिया जिसका निर्माण फीरोज खां द्वारा किया गया था।

चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ में लिखा है- ‘कुंभकर्ण ने गुजरात के सुल्तान की विडम्बना करते हुए नागौर ले लिया, फीरोज की बनवाई हुई मस्जिद को जलाया, किले को तोड़ा, खाई को भर दिया, हाथी छीन लिये, असंख्य यवनों को दण्ड दिया, नागपुर को गोचर बना दिया और शम्सखां के खजाने से विपुल रत्न छीने।’

नागौर हाथ में आते ही शम्सखां ने आंखें बदल लीं और महाराणा को धता बताकर गुजरात के सुल्तान की सहायता प्राप्त करके नागौर को गुजरात के अधीन घोषित कर दिया। उसने अपनी लड़की का विवाह भी गुजरात के सुल्तान से कर दिया। महाराणा ने शम्सखां को भी नागौर से निकाल बाहर किया। शम्स खां गुजरात के सुल्तान कुतुब खां की सेवा में पहुंचा।

कुतुब खां ने अपने सेनापति अमीचन्द और मलिक गदाई को विशाल सेना देकर शम्स खां के साथ नागौर भेजा। महाराणा ने उनमें कसकर मार लगाई। अतः शम्स खां पुनः गुजरात भाग गया। ई.1456 में सुल्तान स्वयं युद्ध करने आया किंतु महाराणा ने उसे भी भाग जाने पर मजबूर कर दिया। इस पर गुजरात एवं मालवा के सुल्तानों की संयुक्त सेनाओं ने महाराणा पर आक्रमण किया तथा नागौर पर अधिकार कर लिया। कुछ दिनों बाद महाराणा ने पुनः गुजरात के सुल्तान से नागौर छीन लिया।

गुजरात राज्य के अधीन

ई.1458 में नागौर पुनः गुजरात के सुल्तान कुतुबखां के अधिकार में चला गया। संभवतः कुतुबखां ने महाराणा से समझौता करके महाराणा की कई बातें मान लीं। अतः महाराणा ने आगे से नागौर के मामले में दखल न देने का आश्वासन दिया। कुतुबखां ने पुनः शम्सखां को नागौर का शासक बना दिया किंतु शीघ्र ही कुतुबखां ने अपनी सेना पुनः नागौर पर अधिकार करने भेजी क्योंकि शम्सखां अपनी पुत्री के माध्यम से कुतुबखां को जहर देने का प्रयास करने लगा।

शम्स खां की यह पुत्री कुतुब खां को ब्याही गई थी। गुजराती अधिकारियों ने शम्स खां की हत्या कर दी तथा नागौर को गुजरात राज्य में सम्मिलित कर लिया। ई.1458 से 1509 तक महमूदशाह बेगड़ा के शासन काल में नागौर, गुजरात राज्य के अधीन बना रहा। ई.1509 में नागौर के शासक मुहम्मद खां ने दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी की अधीनता स्वीकार कर ली तथा उसके नाम का खुतबा पढ़ा।

दुर्ग के लिये राठौड़ों का संघर्ष

ई.1459 में राव जोधा ने जोधपुर दुर्ग का निर्माण करवाया तथा जोधा के बीस पुत्र पूरे मारवाड़ पर अधिकार करने चल पड़े। राठौड़ों की इस बढ़ती हुई शक्ति के कारण मुस्लिम शासक मारवाड़ के इतिहास में हाशिये की तरफ खिसकने लगे। फिर भी वे नागौर पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहते थे। अतः नागौर पर मुसलमानों ने फिर से अधिकार कर लिया।

ई.1467 में महाराणा कुंभा ने नागौर पर आक्रमण किया तथा दुर्ग में स्थापित हनुमानजी की मूर्ति को लेजाकर कुंभलगढ़ में प्रतिष्ठित किया। ई.1526 में खानवा की लड़ाई में नागौर का शासक फीरोज (तृतीय) बाबर के विरुद्ध 40 हजार सैनिक लेकर गया। फीरोज ने राणा सांगा से कहा कि मैं आपकी तरफ से लड़ूंगा किंतु जैसे ही युद्ध आरम्भ हुआ, फीरोज सांगा को छोड़कर नागौर भाग आया। ई.1528 में सरखेल खां नागौर का शासक था।

मालदेव का अधिकार

सोलहवीं शताब्दी में जोधपुर का राजा मालदेव उत्तरी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली हिन्दू राजा हुआ। मालदेव के समय जोधपुर राज्य की सीमा भावण्डा गांव तक थी तथा भावण्डा में मालदेव का थाना स्थित था। एक बार नागौर के खान शासक ने अजमेर की तरफ से आकर भावंडा को घेर लिया। मालदेव ने न केवल भावण्डा थाने को बचा लिया अपितु खानजादा को खदेड़ता हुआ नागौर तक चढ़ आया और नागौर दुर्ग के किवाड़ लूटकर जोधपुर ले गया।

इस भावण्डा अभियान का नेतृत्व राठौड़ अखैराज के पौत्र तथा पंचायण के पुत्र अचलसिंह ने किया था। अचलसिंह युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ तो जैता और कूंपा ने मोर्चा संभाला और नागौर तक चढ़ आये। इस घटना के कुछ समय बाद मालदेव ने सरखेलखां को नागौर से भगाकर नागौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। डॉ. ओझा ने मालदेव द्वारा 10 जनवरी 1536 को नागौर पर अधिकार करना बताया है। कर्नल टॉड यह तिथि ई.1531 बताते हैं। मुहणौत नैणसी ने तिथि तो नहीं दी है किंतु मालदेव का नागौर नगर में रहना लिखा है। वीर विनोद और बांकीदास की ख्यात भी यह तिथि 1536 ई. बताते हैं।

सूर साम्राज्य के अधीन

ई.1542 में शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर आक्रमण करके नागौर दुर्ग पर अधिकार जमा लिया और सूर साम्राज्य के अंतर्गत नागौर सरकार का गठन किया। इशा खान नियाजी को नागौर का फौजदार नियुक्त किया गया। शेरशाह की मृत्यु के बाद इस्लाम शाह, सूर साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसने ई.1553 तक शासन किया।

उसके शासन काल में नागौर, अजमेर के सूबेदार हाजीखान के अधीन रहा। नागौर से उसके शासनकाल का 10 सितम्बर 1553 का एक शिलालेख मिला है। इसमें कहा गया है कि इस मस्जिद का निर्माण शेरशाह के पुत्र इस्लाम शाह के शासनकाल में रुक्नुद्दीन अल कुरेशी अल हाशिमी के पुत्र अक्जा उल कजात काजी हाजी उमर ने करवाया। हाजी उमर के अन्य शिलालेख भी नागौर से मिले हैं। 

अकबर के अधीन

ई.1556 में अकबर आगरा के तख्त पर बैठा। उसी वर्ष उसके सेनापति पीर मुहम्मद शेरवानी ने नागौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 16 नवम्बर 1570 को अकबर नागौर आया। उसने नागौर दुर्ग में तीन राजपूत राजकुमारियों से विवाह किये। इनमें जैसलमेर के रावल हरराय की पुत्री तथा बीकानेर के राव कल्याणमल के भाई कान्ह की पुत्री भी थीं।

जोधपुर का राजा चन्द्रसेन भी नागौर के दुर्ग में अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ तथा उसने भी अकबर से मैत्री पूर्ण संधि की जो चन्द्रसेन के स्वाभिमानी स्वभाव के कारण अधिक समय तक चल नहीं सकी। बाद में चंद्रसेन के भाई उदयसिंह ने अपनी पुत्री जोधा का विवाह अकबर के साथ करके जोधपुर राज्य वापस लिया।

राठौड़ों का बोलबाला

अजमेर तथा नागौर के मुस्लिम शासक लम्बे समय से गुजरात के सुल्तान के अधीन थे। अकबर अजमेर तथा नागौर से गुजरात के सुल्तानों का प्रभाव मिटाना चाहता था इसलिये उसने नागौर दुर्ग पर मुसलमानों के स्थान पर हिन्दू गवर्नरों को नियुक्त करने की नीति अपनाई। जहांगीर तथा शाहजहाँ ने भी इसी नीति को जारी रखा तथा यह भी ध्यान रखा कि नागौर पर हिन्दुओं का ही अधिकार नहीं हो जाये।

इस कारण मुगल बादशाहों द्वारा नागौर परगना बड़ी तेजी से जोधपुर, बीकानेर तथा जयपुर के राजाओं तथा राजकुमारों को जागीर के रूप में स्थानांतरित किया गया। नागौर दुर्ग ई.1570 से 73 तक बीकानेर के महाराजा रायसिंह के पास तथा ई.1573 से 87 तक कछवाहा जगमाल के पास रहा। ई.1587 में बीकानेर के राजकुमार दलपत रायसिंहोत को नागौर का परगना मिला। ई.1588 में यह माधोसिंह को दिया गया। ई.1600 में नागौर परगना पुनः महाराजा रायसिंह को मिला।

ई.1605 में जहांगीर ने नागौर परगना महाराणा उदयसिंह के पुत्र सागर को दिया तथा अगले ही वर्ष ई.1606 में नागौर दुर्ग और परगना पुनः माधोसिंह भगवानदासोत (कच्छवाह) को दे दिये। ई.1616 में नागौर का परगना पठान जावदीन को दिया गया। ई.1624 में नागौर पुनः बीकानेर नरेश सूरसिंह को दिया गया। जहांगीर के 29 सितम्बर 1627 के एक फरमान में कहा गया है कि ई.1627 में अमरसिंह को हटाकर नागौर का परगना तथा अन्य कई स्थान बीकानेर नरेश सूरसिंह को दिये गये।

इसके बाद नागौर दुर्ग जोधपुर नरेश गजसिंह को दिया गया। जहांगीर की मृत्यु के पश्चात् महावतखां शाहजहाँ की सेवा में उपस्थिति हुआ। उसने शाहजहाँ से कहा कि जोधपुर नरेश गजसिंह ने मेरा सिर काटने के लिए नागौर लिया था। अब मैं इसे पाना चाहता हूँ। तब बादशाह ने नागौर महावतखां के नाम लिख दिया। महावतखां ने अजमेर से अपने अधिकारी भेजकर नागौर दुर्ग एवं परगने पर अपना अधिकार किया।

अमरसिंह राठौड़ की राजधानी

ई.1634 के लगभग जोधपुर नरेश गजसिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह से नाराज होकर उसे राज्याधिकार से वंचित कर दिया। इस पर अमरसिंह शाहजहाँ के पास चला गया। शाहजहाँ ने अमरसिंह को नागौर का दुर्ग देकर स्वतंत्र राजा बना दिया। अमरसिंह ने नागौर दुर्ग में चांदी के सिक्के ढलवाये। वह पहला राठौड़ शासक था जिसने अपने नाम से मुद्रा चलाई।

उससे पहले मालानी, मण्डोर एवं  जोधपुर के राठौड़ शासकों ने अपने सिक्के नहीं चलाये थे। अमरसिंह द्वारा स्थापित यह टकसाल बाद में भी चलती रही। कुछ वर्षों बाद अमरसिंह शाहजहाँ के दरबार में हुए एक झगड़े में आगरा में मारा गया।

अमरसिंह के वंशजों का नागौर दुर्ग पर अधिकार

अमरसिंह के बाद उसका पुत्र रायसिंह नागौर दुर्ग का स्वामी हुआ। रायसिंह का पुत्र इन्द्रसिंह औरंगजेब की सेवा में रहा। ई.1678 में महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने इन्द्रसिंह को जोधपुर का राज्य, राजा का खिताब, खिलअत, जड़ाऊ साज की तलवार, सोने के साज सहित घोड़ा, हाथी, झण्डा और नक्कारा दिया।

इन्द्रसिंह ने 2 सितम्बर 1679 को बड़े जुलूस के साथ जोधपुर के गढ़ में प्रवेश किया। महाराजा जसवंतसिंह का पौत्र होने के कारण जोधपुर के राठौड़ों ने उसे जोधपुर का राजा स्वीकार कर लिया किंतु जब इन्द्रसिंह बादशाह की चाकरी में उपस्थित नहीं हुआ तो बादशाह द्वारा उसे जोधपुर के सिंहासन से हटाकर जोधपुर को खालसा कर लिया गया। बीस साल तक जोधपुर के राठौड़ जागीरदार अपने स्वर्गीय राजा जसवंतसिंह के पुत्र अजीतसिंह को जोधपुर का राजा बनाने के लिये मुगलिया सल्तनत से लड़ते रहे।

जोधपुर से हटने के बाद भी नागौर दुर्ग पर राव इन्द्रसिंह का अधिकार बना रहा। इंद्रसिंह के जीवन काल में ही इंद्रसिंह के पुत्र मोहकमसिंह तथा जोधपुर नरेश अजीतसिंह में मनमुटाव हो गया। इस कारण ई.1708 में अजीतिंसंह ने नागौर दुर्ग पर आक्रमण किया। मोहकमसिंह नागौर दुर्ग खाली करके भाग गया तथा इंद्रसिंह ने अपनी माता को अजीतसिंह के पास भेजा तथा स्वयं भी अजीतिंसंह के समक्ष प्रस्तुत हो गया।

अजीतसिंह ने नागौर दुर्ग पर इंद्रसिंह को बने रहने दिया तथा इंद्रसिंह के दो पुत्रों मोहकमसिंह तथा मोहनसिंह की हत्या करवा दी। फर्रूखसीयर ने महाराजा अजीतसिंह की बेटी से विवाह करके ई.1715 में नागौर दुर्ग अजीतसिंह को दे दिया। इन्द्रसिंह के पुत्र मारे जा चुके थे इसलिये वह अजीतसिंह का विरोध करने योग्य नहीं रहा। जब जोधपुर की सेना ने नागौर दुर्ग पर आक्रमण किया तो इंद्रसिंह बुरी तरह परास्त हुआ।

अब उसका राज्य केवल दौलतपुरा गांव पर ही रह गया। जब ई.1724 में महाराजा अजीतसिंह के पुत्र बखतसिंह ने अजीतसिंह की हत्या कर दी। तब एक बार फिर इंद्रसिंह ने नागौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जोधपुर नरेश अभयसिंह ने नागौर दुर्ग पर आक्रमण किया। इन्द्रिंसंह एक माह तक दुर्ग में मोर्चाबंदी करके बैठा रहा किंतु एक दिन मौका पाकर भाग गया। अभयसिंह ने अपने छोटे भाई को नागौर दुर्ग तथा नागौर राज्य का स्वतंत्र स्वामी बना दिया। इसके बाद अमरसिंह के वंशज इतिहास के नेपथ्य में चले गये।

बख्तसिंह की राजधानी

बखतसिंह ने नागौर दुर्ग में अपनी राजधानी स्थापित की। उसने नागौर दुर्ग के भीतर एवं बाहर स्थित अनेक मस्जिदें गिरवा दीं और उनकी सामग्री से नागौर दुर्ग में अनेक निर्माण करवाये। जनरल कनिंघम लिखता है कि नागौर में औरंगजेब ने जितने मंदिर तोड़े उनसे अधिक मस्जिदें बख्तसिंह ने तोड़ीं।

इन मस्जिदों के पत्थर नागौर शहर की शहरपनाह में चिन दिये गये। आज भी नागौर की शहरपनाह में अरबी-फारसी के कई लेख उल्टे-पुल्टे चुने हुए देखने को मिलते हैं। जब अभयसिंह का पुत्र रामसिंह जोधपुर का राजा हुआ, तब ई.1751 में उसने नागौर दुर्ग पर आक्रमण किया। बखतसिंह को बीकानेर तथा दिल्ली से सैनिक सहायता प्राप्त हो गई जबकि जयपुर नरेश माधोसिंह (प्रथम), जोधपुर नरेश रामसिंह के पक्ष में लड़ने के लिये आया।

फिर से जोधपुर राज्य में सम्मिलित

ई.1751 में नागौर के राजाधिराज बख्तसिंह ने जोधपुर नरेश रामसिंह को परास्त कर जोधपुर दुर्ग एवं राज्य पर भी अधिकार कर लिया। तब से नागौर दुर्ग पुनः जोधपुर राज्य के अधीन हो गया तथा स्वतंत्रता प्राप्ति तक यह जोधपुर राज्य के अंतर्गत ही रहा।

नागौर दुर्ग पर मराठों का घेरा

ई.1754 में जोधपुर का महाराजा विजयसिंह काकड़की के युद्ध में मराठों से परास्त होकर नागौर दुर्ग की ओर भागा। रीयां का ठाकुर लालसिंह भी उसके साथ था। विजयसिंह तथा लालसिंह मार्ग भटक कर खजवाना होते हुए देसवाल पहुंचे। यहाँ से नागौर का दुर्ग 16 मील दूर था किंतु उनके घोड़े थक चुके थे और मराठे निरंतर पीछा करते हुए चले आ रहे थे। महाराजा ने पांच रुपये किराये में एक जाट से बैलगाड़ी तय की।

महाराजा के अनुरोध पर बैलगाड़ी वाले ने अपने बैलों को पूरे वेग से नागौर दुर्ग की तरफ भगाया किंतु महाराजा बार-बार उससे यही कहता रहा कि तू अपने बैलों को तेज चला। जाट अपने बैलों को हांकता-हांकता तंग आ गया। उसने चिढ़कर महाराजा को फटकार लगाई कि क्या हांक-हांक लगाई है? तू कौन है जो ऐसे भागा जा रहा है? यह मजबूत बैलगाड़ी तो विजयसिंह के साथ मेड़ता में होनी चाहिए थी न कि इस प्रकार नागौर जाते हुए। ऐसा जान पड़ता है जैसे तुम्हारे पीछे दक्षिणी लगे हुए हों। अब चुप बैठना, मैं इससे तेज नहीं चलाऊंगा।

सुबह होने पर जब गाड़ीवान ने भीतर बैठी हुई सवारी को देखा तो महाराजा को पहचानकर अपने आचरण पर बड़ा लज्जित हुआ। नागौर पहुंचकर विजयसिंह ने उसे 5 रुपये दिये तथा भविष्य में इनाम देने की प्रतिज्ञा की।

नागौर के हाकिम प्रतापमल ने आगे आकर महाराजा का स्वागत किया तथा अन्य सरदार भी एकत्र हो गये। उन्होंने महाराजा से हाथी पर चढ़कर चलने की प्रार्थना की। इस पर महाराजा ने उत्तर दिया कि मैं कौनसी विजय करके आया हूँ जो हाथी पर चढूँ। अन्त में सरदारों के बहुत अनुरोध पर वह हाथी पर आरूढ़ हुआ।

महाराजा विजयसिंह के पीछे-पीछे मराठे भी नागौर दुर्ग तक चले आये और 31 अक्टूबर 1754 को दुर्ग को घेर कर बैठ गये। जोधपुर के अपदस्थ नरेश रामसिंह तथा मराठा सरदार जयआपा सिंधिया ने ताऊसर में आकर अपना डेरा डाला। जयआपा के पुत्र जनकोजी ने 50 हजार की फौज लेकर जोधपुर दुर्ग को भी घेर लिया।

महाराजा विजयसिंह ने नागौर दुर्ग में रहकर शत्रु का सामना किया तथा मेवाड़ के महाराणा राजसिंह (द्वितीय) को पत्र लिखकर दोनों पक्षों के बीच सन्धि करवाने की प्रार्थना की। महाराणा राजसिंह ने सलूम्बर के रावत जैतसिंह को संधि करवाने भेजा। जैतसिंह नागौर आया किंतु संधि नहीं हो सकी। मराठों का घेरा बहुत कड़ा था। वे रसद पहुंचाने वालों के नाक व हाथ काट लेते थे।

कई दिनों तक यही स्थिति रही। इस पर खोखर केसर खां तथा एक गहलोत सरदार ने एक योजना बनाई और महाराजा से अनुमति लेकर व्यापारियों के वेश में मराठों की छावनी में दुकान लगाकर बैठ गये। एक दिन दोनों ने आपस में झगड़ा कर लिया और लड़ते हुए जयआपा तक जा पहुंचे। उस समय जयआपा स्नान कर रहा था। उसने उन्हें वहीं अपने पास बुला लिया। खोखर ने जयआपा के निकट पहुंचते ही उसे मार डाला। इस सम्बन्ध में एक दोहा कहा जाता है –

खोखर बड़ो खुराकी। खायग्यो आपा सरीखो डाकी।।

आज भी नागौर दुर्ग से 5 किलोमीटर दक्षिण में स्थित ताउसर गांव में जयआपा की छतरी विद्यमान है। जयआपा के मारे जाने के साथ ही दोनों सरदार भी मार डाले गए तथा मराठों ने क्रुद्ध होकर नागौर दुर्ग पर भयानक धावा बोल दिया। इस युद्ध में सलूम्बर का रावत जैतसिंह तथा चौहान राजसिंह व्यर्थ ही मारे गये।

जब 14 महीने तक नागौर से घेरा न उठा तो एक रात महाराजा विजयसिंह एक हजार सवारों को लेकर बीकानेर की ओर रवाना हो गया तथा 36 घंटे में देशणोक जा पहुंचा। बीकानेर नरेश गजसिंह ने विजयसिंह का स्वागत किया। मराठों को नागौर दुर्ग से अपना घेरा हटा लेना पड़ा। अंत में 2 फवरी 1756 को महाराजा विजयसिंह तथा मराठों के बीच संधि हुई।

सवाईसिंह का नागौर पर अधिकार

ई.1803 में महाराजा विजयसिंह का पौत्र मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। पोकरण ठाकुर सवाईसिंह उसे जोधपुर की गद्दी पर नहीं देखना चाहता था। इसलिये उसने धोकलसिंह नामक एक काल्पनिक बालक को जोधपुर का राजा घोषित करके विद्रोह का बिगुल बजा दिया तथा ई.1807 में नागौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

जयपुर नरेश जगतसिंह भी सवाईसिंह के साथ मिल गया। चण्डावल, पाली, बगड़ी, खींवसर, लाडणू, दुगोली, लवेरा, हरसोलाव आदि ठिकाणों के सरदार भी सवाईसिंह के साथ हो गये। इस पर महाराजा मानसिंह ने पिण्डारी सरदार अमीरखां की सेवाएं प्राप्त की। अमीरखां ने सवाईसिंह तथा उसके साथियों को मूण्डवा में आमंत्रित किया तथा उनके तम्बू पर धोखे से तोपों के गोले बरसाकर उन्हें मार डाला और सवाईसिंह का सिर काटकर महाराजा मानसिंह को भिजवाया।

जोरावरसिंह का नागौर दुर्ग पर अधिकार

ई.1871 में जोधपुर नरेश तखतसिंह ने अपनी वृद्धावस्था और बीमारी के कारण महाराज कुमार जसवंतसिंह को मारवाड़ राज्य का युवराज घोषित करके राजकाज उसे सौंप दिया। इस पर तखतसिंह का द्वितीय पुत्र राजकुमार जोरावरसिंह, जीण माता के दर्शनों का बहाना करके जोधपुर से बाहर निकल गया और नागौर दुर्ग पर अधिकार करके बैठ गया।

उसने अपने पिता को संदेश भेजा कि जोधपुर राज्य पर जोरावरसिंह का हक माना जाये क्योंकि राजकुमार जसवंतसिंह का जन्म अहमदनगर में हुआ था तथा जोरावरसिंह का जन्म महाराज के जोधपुर गोद आने के बाद हुआ था। इस पर पॉलिटिकल एजेन्ट मेजर एम्पी सेना लेकर नागौर आया तथा जोरावरसिंह को समझा-बुझा कर अजमेर ले गया। महाराजा तखतसिंह ने जोरावरसिंह को क्षमा कर दिया। उसके बाद ई.1873 में जोरावरसिंह जोधपुर लौटकर आया तथा रावटी बाग में रहने लगा।

नागौर की टकसाल में ढले विजेशाही रुपये

ई.1893 में भारत सरकार ने जोधपुर नरेश को नागौर की टकसाल में विजेशाही रुपये ढालने की अनुमति प्रदान की। विजेशाही सिक्के जोधपुर नरेश विजयसिंह के समय में ढालने आरम्भ किये गये थे। ई.1893 में 124 विजेशाही के बदले, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय में जारी किये गये 100 सिक्के मिलते थे जिन्हें कलदार कहा जाता था।

बीसवीं सदी में नागौर दुर्ग

बीसवीं सदी के आरम्भ में भारत में वायुयानों का आगमन होने से दुर्गों का उपयोग एवं महत्व लगभग समाप्त हो गया। जब आजादी की लड़ाई आरम्भ हुई तो मारवाड़ के कई स्वतंत्रता सेनानियों को इस दुर्ग में बंद रखा गया। आजादी के बाद यह दुर्ग पर्यटकों के लिये दर्शनीय स्थल बनकर रह गया।

नगौर दुर्ग के भित्तिचित्र

राठौड़ों के शासन काल में नागौर की चित्रकला अपने चरम पर पहुंची। यह राठौड़ चित्रशैली कहलाती है। राठौड़ चित्र शैली में जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़ तथा नागौर उपशाखायें मानी जा सकती है। नागौर यद्यपि जोधपुर के अधीन रहा, तथापि नागौर चित्रशैली पर बीकानेर चित्रशैली का अधिक प्रभाव है। ई.1724 से 1750 के बीच महाराजा बख्तसिंह ने नागौर दुर्ग में भित्ति चित्रांकन करवाया।

नागौर के बादल महल (प्रथम तल) में चित्रित स्त्रियों के भरे हुए अण्डाकार चेहरे, दबा हुआ सपाट माथा, तीखी नाक, छोटी आंखें, धड़ के ऊपर का लम्बा भाग इस चित्रण की विशेषताएं हैं। बादल महल में वार्तालाप करती स्त्रियां, संगीत का आनन्द उठाते राजकुमार, भिक्षा देती राजकन्या तथा वर्षा का आनन्द लेती स्त्रियों में हल्के रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है। घुमड़ते हुए बादल गोल दिखाये गए हैं। स्त्रियों के चित्रण में कोमलता व रमणीयता अधिक है। उनके परिधान में चोली, लहंगा तथा ओढ़नी प्रमुख हैं। लहंगे के नीचे के भाग का घेर अधिक चौड़ा तथा फैला हुआ है।

स्त्रियों के खुले बाल तथा तिरछी भंगिमा वाली आंखों से उनकी कमनीयता बढ़ गई है। पुरुषों के चित्रण में भी चेहरे गोल बनाये गए हैं तथा मुंह कानों तक खींचे हुए हैं। उनकी पोषाक में सफेद जामों की अधिकता है। तंग पायजामा, कमर में दुपट्टा, सिर पर लम्बी शंक्वाकार टोपी तथा रंग-बिरंगी पगड़ियां चित्रित की गई हैं।

बादल महल के साथ-साथ हवामहल तथा शीश महल के चित्रांकन भी महत्वपूर्ण हैं। हवामहल में बनी हुई उड़ती आकृतियां मुगल चित्रों के अधिक निकट हैं। बख्तसिंह ने बड़ी संख्या में अपने सामन्तों की शबीहें बनवाईं। इस काल में चित्रित ग्रंथों में चौबोली री कथा, कुंवर की वार्ता, राजा रिसालू की बात, चकवा-चकवी की वार्ता, रामायण, महाभारत तथा जैन ग्रंथ प्रमुख हैं। इनमें से कई चित्र अब नेशनल म्यूजियम के संग्रह में रखे हैं।

जैन तीर्थकरों के चित्रों की आकृति मथेण चित्रकरों की शैली में है। गर्दन तक झूलती स्प्रिंगनुमा लट, मोटी रेखा तथा मुखर आकृति मथेण कला का प्रभाव है। नेशनल म्यूजियम में शिवराम भाटी के पिता ‘उदयराम भाटी नागौर’ का बनाया हुआ चित्र रखा हुआ है। इस चित्र में औसत कद की पतली आकृति, लम्बी गर्दन, लम्बा चेहरा, चौड़ा हल्का ढलवां माथा, धंसी हुई छोटी आंखें तथा नुकीली नाक प्रदर्शित की गई हैं।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source