नागौर के ऐतिहासिक सिक्के चांदी एवं ताम्बे के हैं। नागौर क्षेत्र का सबसे पहला सिक्का नागौर के प्रथम स्वतंत्र राजा अमरसिंह राठौड़ द्वारा चलाया गया।
राजस्थान में मिलने वाले सबसे प्राचीन सिक्के पंचमार्क तथा आहत सिक्के कहलाते हैं। मारवाड़ में भी किसी समय इन सिक्कों का प्रचलन रहा। इन मुद्राओं पर धार्मिक एवं ज्योतिष सम्बन्धी प्रतीक चिह्न उपलबध होते हैं। इन्हें ईसा की कई शताब्दियों पहले राजाओं तथा विभिन्न श्रेणी निगमों (व्यापारी मण्डलों) द्वारा जारी किया गया था।
नागौर जिले की दक्षिणी सीमा पर स्थित नलियासर (जयपुर जिला) से कई मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। इनमें आहत मुद्रायें, उत्तर इण्डो सेसेनियन सिक्के, हुविष्क के सिक्के, इण्डोग्रीक सिक्के, यौधेयों के सिक्के, गुप्तकालीन सिक्का, कुषाण कालीन 105 ताम्र मुद्रायें, ईसा की तीसरी शताब्दी की कांसे की मुहर प्राप्त हुई हैं। सांभर और पुष्कर से भी विभिन्न कालों में विभिन्न राजवंशों एवं गणराज्यों द्वारा ढलवाई गई सोने, चांदी एवं ताम्बे की मुद्रायें प्राप्त हुई हैं।
नागौर जिले में अनेक स्थानों से चांदी एवं ताम्बे की गधैया मुद्रायें मिली है। ये मुद्रायें 7वीं से 11वीं शताब्दी में मारवाड़ में प्रचलित थीं। गधैया मुद्रायें तीन प्रकार की हैं। प्रथम प्रकार की मुद्रायें बेस रजत मुद्रायें कहलाती हैं। द्वितीय प्रकार की मुद्रायें प्रथम प्रकार की मुद्राओं से छोटी तथा घटिया हैं।
तीसरे प्रकार की मुद्रायें और भी अधिक छोटी हैं। इनके ऊर्ध्व पटल पर ससैनियन प्रकार की आवक्ष आकृति तथा रेखायें हैं। अधोपटल पर मुद्रायें तथा बिन्दु हैं, जो ससैनियन हवनकुण्ड की प्रतीक हैं।
इन सिक्कों पर आरंभ में राजा की पूरी मुखाकृति रहती थी किंतु कालान्तर में सिक्के का आकार घटते रहने से मुखाकृति लम्बी, संकरी तथा विकृत होने लगी तथा गधे के मुख जैसी दिखने लगीं। इससे इन्हें गधैया सिक्का कहा जाने लगा। कुछ विद्वानों के अनुसार इन्हें उज्जैन नरेश गाधाभिल्ल ने चलाया था। ये सिक्के ताम्बा मिश्रित चांदी के हैं।
डेगाना तथा नांवा से प्रतिहार शासक भोजदेव की 62 रजत मुद्रायें मिली हैं। इन मुद्राओं के ऊर्ध्व पटल पर दो पंक्तियों का लेख (1) श्री मदा (2) दिवाराह अंकित है। अधोपटल पर वाराह अवतार की प्रतिमा उपलब्ध है। वाराह के सम्मुख भगवान विष्णु का चक्र भी अंकित है।
छठी शताब्दी ईस्वी से 12वीं शताब्दी तक नागौर जिले के विभिन्न भाग चौहानों के अधीन रहे। चौहान शासकों की मुद्राएं अजयदेव, उसकी रानी सोमल देवी, महाराज सोमेश्वर तथा पृथ्वीराज (तृतीय) की है। अजयदेव की मुद्राओं के ऊर्ध्व पटल पर देवी लक्ष्मी की अस्पष्ट सी आकृति है तथा अधोपटल पर श्री अजयदेव अंकित है।
सोमलदेवी के सिक्कों के ऊर्ध्व पटल पर गधैया सिक्कों के समान ही एक भद्दी सी आवक्ष मानवाकृति अंकित है तथा अधोपटल पर ‘श्री सोमलदेवी’ लिखा है। सोमेश्वरदेव की मुद्राओं के ऊर्ध्व पटल पर अश्वारोही बना है तथा ‘श्री सामन्त’ लिखा है।
सोमेश्वर के पुत्र पृथ्वीराज की मुद्रायें भी ठीक सोमेश्वर की मुद्राओं जैसी हैं, केवल नाम का परिवर्तन है। उन पर श्री सोमेश्वर देव के स्थान पर श्री पृथ्वीराज देव अंकित है। राठौड़ों के शासनकाल में मारवाड़ में फदिया नामक मुद्र्रा चलती थी।
मेवाड़ के संस्कृत अभिलेखों में इसे ‘फद्यका’ कहा गया है। यह स्वर्ण एवं रजत दोनों से बनती थी। मालदेव के समय में यह मुद्रा प्रचलन में थी। उसके सेनापति जैता ने रजलानी की बावड़ी में हुए खर्च को फदिया में दर्शाया है। रजत फदिया का मूल्य एक रुपये के आठवें हिस्से के बराबर था।
डेगाना, मण्डोर तथा चोहटन से सिंध के अरब आक्रमणकारियों की 6585 रजत मुद्रायें मिली हैं। ये मुद्रायें गोल, छोटी एवं पतली हैं। इन पर अमीर अब्दुल्ला, मुहम्मद, अल अमीर अहमद, बानू अलविया, बानू अब्दुर्रहमान आदि सिंध गर्वनरों के नाम मिलते हैं।
अल अमीर अहमद की मुद्रा पर ‘ला इलाहि इललिल्लाह वहदत ला शरीक अल्लाह’ तथा ‘मुहम्मद रसूल अल्लाह अल अमीर अहमद’ अंकित है। जब नागौर दिल्ली सल्तनत तथा मुगल सल्तनत में सम्मिलित हुआ तो उनके सिक्के भी प्रचलन में आने लगे।
इनमें से फिरोजशाह (द्वितीय) की ‘फिरोजी’ नामक मुद्रा अधिक प्रसिद्ध है। रूपक, नाणक, टंक आदि मुद्रायें भी समय-समय पर मारवाड़ में चलीं। ई.1638 से ई.1644 तक अमरसिंह राठौड़ नागौर का शासक हुआ। वह जोधपुर राज्य के अधीन न होकर सीधे ही मुगल बादशाह शाहजहाँ के अधीन था, अतः बादशाह से अनुमति लेकर उसने नागौर में मुद्रा ढलवाई जो ‘अमरशाही’ कहलाती थी बाद में लोग अज्ञानवश इसे अमीरशाही सिक्का कहने लगे।
बखतसिंह के शासनकाल में नागौर राज्य पुनः जोधपुर राज्य में सम्मिलित हो गया तब भी ये सिक्के ढाले जाते रहे। इन सिक्कों का ढलना कब बन्द हुआ, इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। इन सिक्कों के एक पटल पर कोई छाप नहीं है तथा दूसरे पटल पर एक वर्ग के बीच में फारसी लेख अंकित है। किसी राठौड़ शासक द्वारा चलाया जाने वाला यह प्रथम सिक्का था।
जोधपुर राज्य से निष्कासित राजकुमार (राव अमरसिंह राठौड़) द्वारा चलाया हुआ होने पर भी ई.1720 तक पूरे जोधपुर राज्य में यह सिक्का प्रचलन में रहा।
जोधपुर के राजाओं द्वारा जारी पहला सिक्का ई.1720 में अजीतसिंह द्वारा जारी किया गया। टॉड ने अपनी पुस्तक में इस सिक्के की चर्चा की है। वैब ने टॉड के हवाले से इस सिक्के का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मैंने न तो उस सिक्के को देखा है और न ही मुझे यह ज्ञात है कि वह किस धातु से बनता था।
जगदीश सिंह गहलोत ने लिखा है कि मारवाड़ के नरेशों में सर्वप्रथम महाराज विजयसिंह ने ई.1780 में अपना सिक्का ‘विजयशाही’ बादशाह शाहआलम से अनुमति लेकर चलाया था। उस समय बादशाह के शासन का 22वां वर्ष था, अतः इसे बाइसंदा कहते थे किंतु इस सिक्के को विजयशाही नाम से अधिक ख्याति मिली।
इस सिक्के पर एक ओर बादशाह का नाम तथा दूसरी ओर जोधपुर टकसाल का नाम अंकित रहता था। बादशाहों के नाम बदलने के साथ सिक्कों पर भी नाम बदलता रहता था।
ई.1859 में मारवाड़ अंग्रेज राज्य के अधीन हो गया तो सिक्के पर एक तरफ महारानी विक्टोरिया का तथा दूसरी ओर महाराजा तखतसिंह का नाम जोड़ा गया। उत्तरवर्ती राठौड़ शासकों ने सोने, चांदी और ताम्बे के सिक्के ढलवाये। सोने के सिक्के केवल राजधानी जोधपुर में स्थित टकसाल में ही ढलवाये जाते थे। इन पर झाड़ और तलवार के चिह्न, मुद्रा का मूल्य तथा बादशाह और राजा के नाम अंकित रहते थे। इसे झाड़शाही कहते थे।
मारवाड़ राज्य की टकसालें जोधपुर, नागौर, मेड़ता, सोजत तथा पाली में खोली गईं। सिक्कों पर टकसाल का नाम तथा टकसाल के दरोगा का चिह्न अंकित रहता था। नागौर में ढाला गया चांदी का रुपया 9 माशा 6 रत्ती (169.9 ग्रेन) का होता था। उसमें 9 माशा सवा चार रत्ती चांदी तथा पौने दो रत्ती ताम्बा रहता था।
राज्य का मूल ताम्बे का सिक्का विजयशाही था जो अपने अधिक वजन के कारण ढब्बूशाही कहलाता था। भीमसिंह के शासनकाल में (ई.1793 से 1803) में इस सिक्के का वजन दो माशा बढ़ा दिया गया और इसका नाम ‘भीमशाही’ कर दिया गया। ताम्बे के सिक्के राजकीय टकसालों में नहीं बनते थे अपितु कुछ विशेष व्यापारियों द्वारा बनाये जाते थे और रुपया ढालने के अधिकार के बदले प्रति एक मन सिक्कों पर तीन रुपया शुल्क चुकाते थे।
वैब ने लिखा है कि नागौर की टकसाल से ई.1872 से कोई सिक्का प्रचलित नहीं हुआ। वैब ने ई.1892 तक के सिक्कों का वर्णन किया है। अतः अनुमान होता है कि ई.1872 में नागौर की टकसाल बन्द हो गई। जगदीशसिंह गहलोत ने नागौर टकसाल बन्द होने की तिथि ई.1888 दी है। गहलोत ने मेड़ता की टकसाल ई.1871 में बन्द किया जाना लिखा है।
जसवंतसिंह (द्वितीय) ने ई.1893 में नागौर की टकसाल से विजयशाही रुपया ढालने की पुनः अनुमति प्रदान की तथा कुचामण के ठाकुर को इकतीसंदा रुपये बनाने की अनुमति दी। वि.सं.1956 (ई.1900) में मारवाड़ में भयानक अकाल पड़ा। जिससे राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई और चांदी के सिक्के की दर काफी गिर गई।
जोधपुर के 124 विजयशाही रुपयों के बदले 100 कलदार रुपये का माल बाहर से आने लगा। इस कारण राज्य ने सिक्के ढालने बंद कर दिये तथा मई 1900 से कलदार रुपये का प्रचलन हो गया। कुचामन के इकतीसंदा रुपये का चलन भी बन्द हो गया तब से जोधपुर में सोने और ताम्बे के सिक्के ही ढलते रहे। इस प्रकार नागौर के ऐतिहासिक सिक्के मारवाड़ राज्य के इतिहास की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।



