दौसा दुर्ग एक ऊंची और विशाल पहाड़ी पर बना हुआ है। लगभग 1000 साल पुराना यह दुर्ग, समुद्र तल से लगभग 1643 फुट ऊंचा है तथा पांच किलोमीटर की परिधि में बना हुआ है।
दौसा दुर्ग की श्रेणी
मूलतः यह गिरि दुर्ग है। निर्माण के समय यह ऐरण दुर्ग तथा पारिघ दुर्ग श्रेणी में भी आता था।
दुर्ग के निर्माता
इस दुर्ग का निर्माण बड़गूजर शासकों ने करवाया।
दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था
यह विशाल दुर्ग, सूप (छाज) की आकृति में बना हुआ है। किले की पहाड़ी के निचले भाग पर दो परकोटे बने हुए हैं। परकोटे में विशाल बुर्ज बनी हुई हैं तथा सुदृढ़ प्राचीर के दो दरवाजे हैं- हाथी पोल एवं मोरी दरवाजा।
मोरी दरवाजा बहुत छोटा और संकरा है। यह दरवाजा सागर नामक एक जलाशय में खुलता था जो अब सूख गया है। युद्ध के समय दुर्ग का मुख्य द्वार बंद कर दिया जाता था तथा मोरी दरवाजे से ही आवागमन जारी रखा जाता था। दुर्ग की दाहिनी और बाईं ओर की बुर्जों पर एक-एक तोप लगी हुई है। जिस पहाड़ी पर यह दुर्ग स्थित है, उस दुर्ग के चारों ओर विशाल मैदान है। इस कारण शत्रु इस दुर्ग पर अचानक आक्रमण नहीं कर सकता था।
दौसा दुर्ग का स्थापत्य
पहाड़ी की तलहटी में एक भग्न टांका दिखाई देता है। इससे थोड़ी ऊंचाई पर सुरक्षा प्रहरियों के कक्ष बने हुए हैं। पहाड़ के ऊपर दो गोलाकार प्राचीन बुर्ज बनी हुई हैं। मोरी दरवाजे के बाहर एक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है जिसके पार्श्व में कच्छवाहा राजकुमार सूरजमल का स्मारक बना हुआ है।
राजा भारमल के समय में पूरणमल के विद्रोही राजकुमार सूरजमल (सूजा) का छल से वध करवाया गया। यह स्मारक उसी काल का है। सूरजमल को स्थानीय जनता प्रेतेश्वर भोमियाजी के नाम से पूजती है।
बाहर वाले परकोटे के भीतर स्थित दो प्राचीन एवं विशाल जलकूप आज भी मौजूद हैं। मोरी दरवाजे के साथ वाला कुंआ राजाजी के कुएं के नाम से जाना जाता है। किले में एक चार मंजिला विशाल बावड़ी है जिसके निकट वस्त्र बदलने एवं संध्या करने के लिये कक्ष बने हुए हैं।
निकट ही बैजनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर बना हुआ है। इस किले की सबसे ऊंची चोटी पर लगभग साढ़े तेरह फुट लम्बी एक तोप रखी हुई है। यह तोप कई मील दूर तक मार कर सकती थी। दुर्ग के परकोटे में राजा रामचंद्रजी का मंदिर, दुर्गाजी का मंदिर, नीलकंठ मंदिर, गुप्तेश्वर महादेव मंदिर एवं एक जैन मंदिर भी बना हुआ है। लालसोट मार्ग पर सहजनाथ महादेव और उत्तर-पूर्व में सोमनाथ के प्राचीन शिवमंदिर स्थित हैं।
गढ़ के भीतर गढ़ी
पहाड़ी की सबसे ऊंची चोटी पर एक और गढ़ बनी हुई है जिसे दुर्ग के भीतर दुर्ग कहा जा सकता है। इस गढ़ी में नीलकंठ महादेव मंदिर, अश्वशाला, चौदह राणाओं की साल, सैनिकों के आवास तथा प्राचीन कुण्ड बने हुए हैं। नीलकंठ मंदिर के पार्श्व में एक टीले में किसी प्राचीन सभ्यता के अवशेष दबे हुए हैं। इस टीले से सामान्य से दो गुने आकार की एवं गहरे लाल रंग की ईंटें तथा कुछ कलात्मक पाषाण स्तम्भ भी प्राप्त किये गये हैं। एक स्तम्भ पर भगवान गणेश की प्रतिमा उत्कीर्ण है।
दौसा दुर्ग का इतिहास
जब ग्यारहवीं शताब्दी में कच्छवाहा राजकुमार धौलाराय ढूंढाड़ प्रदेश में आया तो उसने दौसा के निकट मोरांगढ़ के चौहान शासक रालणसिंह अथवा सालारसिंह की पुत्री कुमकुदे अथवा सुजान कुंवरि से किया। उन दिनों आधे दौसा पर मोरांगढ़ के चौहानों का तथा आधे दौसा पर देवती के बड़गूजरों का अधिकार था।
चौहानों की सहायता से धौलाराय ने दौसा पर आक्रमण किया तथा देवती के बड़गूजरों को परास्त कर दिया। चौहानों ने अपने हिस्सा का दौसा भी धौलाराय को दे दिया। इस पर यह दुर्ग कच्छवाहों के अधीन हो गया। दौसा ही कच्छवाहों की पहली राजधानी बनी। कच्छवाहा शासकों ने इस दुर्ग में अनेक निर्माण करवाये।
सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में पूरनमल के विद्रोही पुत्र सूरजमल का वध यहीं किया गया था। ई.1662 में आम्बेर नरेश महासिंह की मृत्यु दक्खिन में बरार के मोर्चे पर हुई। उसकी विधवा रानी अपने अल्पवयस्क पुत्र राजकुमार जयसिंह को लेकर दौसा दुर्ग में चली आई तथा कई वर्षों तक यहीं रही। यही बालक आगे चलकर मिर्जा राजा जयसिंह (जयसिंह-प्रथम) (ई.1621-67) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
उन्नीसवीं शताब्दी में जयपुर के अल्पवय राजा जयसिंह (तृतीय) (ई.1819-35) की संदेहास्पद स्थिति में मृत्यु हो जाने पर दीवान संघी झूंथाराम और उसके भाई हुकमचंद को दौसा के दुर्ग में ही बंद किया गया। झूंथाराम की मृत्यु बंदी अवस्था में इस दुर्ग में ही हुई।
ई.1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय तात्या टोपे दौसा दुर्ग के निकट टहलड़ी आया। यहाँ उसका अंग्रेजों से आमने-सामने का मुकाबला हुआ। अंग्रेजों की तरफ से ब्रिगेडियर रॉबर्ट्स ने नेतृत्व किया। इस युद्ध में तात्या को हारकर भाग जाना पड़ा। उसके 11 हाथी और बहुत सा गोला बारूद अंग्रेजों के हाथ लगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता