भारत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में दुर्ग सम्बन्धी विवेचन किया गया है जिनमें दुर्गों की श्रेणियाँ बताई गई हैं। इन ग्रंथों में शुक्र नीति, नरपति जयचर्चा, मनुस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, नीति वाक्यामृत, याज्ञवलक्य स्मृति आदि प्रमुख हैं। वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मत्स्य पुराण, श्रीमद्भागवत् पुराण आदि में भी विभिन्न दुर्गों के सम्बन्ध में संदर्भ आये हैं। मत्स्य पुराण के अध्याय 217 में दुर्ग निर्माण की विधि तथा राज्य द्वारा दुर्ग के संगृहीत उपकरणों के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण दिया गया है।
महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 56 के श्लोक संख्या 35 में छः प्रकार के दुर्ग बताये गए हैं। मनु स्मृति में भी छः प्रकार के दुर्ग बताये गए हैं। मनु ने गिरि दुर्ग को सर्वश्रेष्ठ बताया है जहाँ देवता निवास करते हैं। नरपति जयाचार्य ने आठ प्रकार के दुर्ग बताये हैं। शुक्र नीति में नौ तरह के दुर्ग- एरण, पारिख, पारिघ, वन दुर्ग, धन्व दुर्ग, जल दुर्ग, गिरि दुर्ग, सैन्य दुर्ग तथा सहाय दुर्ग बताये गए हैं। विष्णुधर्मसूत्र में दुर्गों की विभिन्न श्रेणियाँ बताई गई हैं-
1. धन्व दुर्ग : जलविहीन, खुली भूमि पर पांच योजन के घेरे में।
2. महीदुर्ग : प्रस्तर खण्डों या ईंटों से निर्मित प्राकारों वाला।
3. वार्क्ष दुर्ग : जो चारों ओर से एक योजन तक कंटीले एवं लम्बे वृक्षों, कंटीले लता गुल्मों एवं झाड़ियों से युक्त हो।
4. जल दुर्ग : चारों ओर जल से आवृत्त।
5. नृदुर्ग : जो चारों ओर से चतुरंगिणी सेना से सुरक्षित हो।
6. गिरि दुर्ग : पहाड़ों वाला दुर्ग जिस पर कठिनाई से चढ़ा जा सके और जिसमें केवल एक ही संकीर्ण मार्ग हो।
मौर्य कालीन सुप्रसिद्ध लेखक कौटिल्य ने दुर्गों की प्रमुख श्रेणियाँ चार निर्धारित की हैं- औदुक, पार्वत, धान्वन तथा वन दुर्ग। राजस्थान में उपरोक्त सभी प्रकार के दुर्ग पाये जाते हैं।
औदुक दुर्ग
औदुक दुर्ग का अर्थ है- जल दुर्ग, राजस्थान के गागरोण तथा चित्तौड़ दुर्ग इसी श्रेणी के दुर्ग हैं।
पार्वत दुर्ग
पार्वत दुर्ग किसी उच्च गिरि पर स्थित होता है। गागरोन दुर्ग, जालोर दुर्ग, सिवाना दुर्ग, चित्तौड़ दुर्ग, रणथंभौर का दुर्ग, अजमेर का तारागढ़, बूंदी का तारागढ़, जोधपुर का मेहरानगढ़, आमेर का आमेर दुर्ग तथा जयगढ़ दुर्ग, दौसा तथा कुचामन के दुर्ग पार्वत दुर्ग हैं।
धान्वन दुर्ग
मरूभूमि में बना हुआ दुर्ग धान्वन दुर्ग कहलाता है। जैसलमेर का दुर्ग उत्तम कोटि का धान्वन दुर्ग है। तन्नोट, सिवाना, फलोदी, जालोर, नागौर, अनूपगढ़, सूरतगढ़ तथा भटनेर आदि दुर्ग रेगिस्तान में बने हुए थे, इसलिये ये सभी धान्वन दुर्ग थे।
वन दुर्ग
सघन बीहड़ वन में बना हुआ दुर्ग वन दुर्ग कहलाता है। सिवाना का दुर्ग इसी श्रेणी में आता था। गागरोन, जालोर, चित्तौड़, रणथंभौर आदि दुर्ग भी अपने निर्माण काल में बीहड़ वनों में स्थित थे। मेवास कहे जाने वाले दुर्ग, वन दुर्ग ही हैं।
स्थल दुर्ग
जो दुर्ग स्थल पर बने हुए होते हैं, स्थल दुर्ग कहलाते हैं। बीकानेर का जूनागढ़, नागौर का अहिछत्रगढ़, चौमूं का चौमुहागढ़ (या धारधर गढ़), भरतपुर का लोहागढ़, हनुमानगढ़ का भटनेर दुर्ग तथा माधोराजपुरा का दुर्ग, स्थल दुर्गों की श्रेणी में आते हैं।
एरण दुर्ग
एरण दुर्ग की गिनती में वे दुर्ग आते हैं जिनके मार्ग खाई, कांटों व पत्थरों से दुर्गम हों। राजस्थान में अनेक दुर्ग इस श्रेणी में आते हैं। इनमें गागरोन, चित्तौड़, सिवाना एवं जालोर के दुर्ग प्रमुख हैं।
पारिख दुर्ग
पारिख दुर्ग वह होता है जिसके चारों ओर बहुत बड़ी खाई हो। चित्तौड़ दुर्ग, भरतपुर का लोहागढ़ तथा बीकानेर का जूनागढ़ इसी श्रेणी के दुर्ग हैं। नागौर का दुर्ग भी मूलतः पारिख दुर्ग था।
पारिघ दुर्ग
जिन दुर्गों के चारों ओर बड़ी-बड़ी दीवारों का परकोटा हो वे पारिघ दुर्ग कहलाते हैं। इस श्रेणी में गागरोन, चित्तौड़, जालोर, बीकानेर, जैसलमेर, मेहरानगढ़, लोहागढ़ आदि अधिकांश दुर्ग आते हैं।
सैन्य दुर्ग
सैन्य दुर्ग उसे कहते हैं जिसमें युद्ध की व्यूह रचना में चतुर सैनिक रहते हों। चित्तौड़ सहित अन्य सभी दुर्ग इसी श्रेणी में आते हैं। गागरोन, सिवाना, मेहरानगढ़, जैसलमेर, जालोर आदि दुर्गों में बड़ी संख्या में सैनिक नियुक्त रहते थे।
सहाय दुर्ग
सहाय दुर्ग उसे कहते हैं जिसमें शूरवीर एवं सदा अनुकूल रहने वाले बांधव लोग रहते हों। जालोर के राजा कान्हड़देव के काल में सिवाना का दुर्ग उसके भतीजे सातलदेव के अधिकार में था। जब अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर आक्रमण किया तो सिवाना के दुर्गपति ने खिलजी को युद्ध का निमंत्रण दिया और खिलजी से कहलवाया कि खिलजी को पहले सिवाना से निबटना होगा तभी वह जालोर की तरफ आगे बढ़ सकेगा। विवश होकर खिलजी को जालोर से पहले सिवाना पर आक्रमण करना पड़ा।
आचार्य चाणक्य द्वारा बताई गयी चार कोटियों तथा आचार्य शुक्र द्वारा बताई गयी नौ दुर्ग कोटियों में से केवल एक कोटि ‘‘धन्व दुर्ग’’ को छोड़कर चित्तौड़गढ़ को सभी कोटियों में रखा जा सकता है। इसी कारण राजस्थान में कहावत कही जाती है कि गढ़ तो गढ़ चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया।
गागरौण का दुर्ग भी इसी प्रकार का दुर्ग है जिसे धन्व एवं पारिख दुर्ग श्रेणी को छोड़कर अन्य सभी श्रेणियों में रखा जा सकता है। रणथंभौर, जालोर, कुंभलगढ़ तथा सिवाना के दुर्ग, पार्वत्य दुर्ग, वन दुर्ग एवं एरण दुर्ग की श्रेणी में आते हैं। राजपूत राजाओं ने अपने दुर्ग, नगर एवं प्रासाद ऊंची पहाड़ियों पर बनाये ताकि उन्हें प्राकृतिक सुरक्षा मिल सके।