Sunday, February 23, 2025
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डीग दुर्ग

डीग दुर्ग डीग कस्बे में स्थित है जो अब जिला मुख्यालय भी बन गया है। डीग कस्बा आगरा तथा मथुरा के मुख्य मार्ग पर, भरतपुर से 34 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में स्थित है।

स्कन्द पुराण तथा भागवत माहात्मय में डीग का नाम ‘दीर्घ’ (अर्थात् लम्बा या विस्तृत) लिखा गया है। यही दीर्घ कालान्तर में ‘डीग’ नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। आगरा तथा मथुरा के निकट होने के कारण डीग पर शत्रुओं के आक्रमण होते ही रहते थे। इन आक्रमणों का प्रतिरोध करने में जाटों को बहुत शक्ति लगानी पड़ती थी।

प्रीतमदास के कहने पर राजा बदनसिंह ने डीग में अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया तथा अपने पुत्र सूरजमल को डीग में एक दुर्ग बनाने का आदेश दिया। पिता के आदेश से सूरजमल ने ई.1730 में रूपसागर के पूर्व में 20 फुट चौड़ी दीवारों से युक्त एक विशाल एवं सुदृढ़ डीग दुर्ग बनवाया।

सूरजमल डीग दुर्ग को डीग कस्बे से एक मील पश्चिम में एक पहाड़ी पर बनाना चाहता था किंतु जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के हस्तक्षेप के कारण उसे यह दुर्ग मैदान में ही बनाना पड़ा।

डीग दुर्ग 300 वर्ग मील वर्गाकार क्षेत्र में बना हुआ है। इसके प्रत्येक कौने को गोलाई प्रदान की गई है। इसकी विशाल प्राचीर रोड़ी तथा मिट्टी की बनी हुई है। प्राचीर में 85 फुट ऊँचे टॉवर बने हुए हैं। ये टॉवर रूप सागर, महाराजा बदनसिंह के महल तथा डीग के अन्य प्रमुख भवनों की तरफ बनाये गये हैं।

डीग दुर्ग की दीवारों को 12 बुर्जों द्वारा मजबूती प्रदान की गई है। ये बुर्ज चारों कोनों पर एक-एक तथा प्रत्येक दीवार में दो-दो बने हुए हैं। इनमें प्रवेश करने के लिये केवल उत्तर की तरफ की दीवार में एक द्वार बनाया गया है। एक चौकोर परदे का निर्माण भी किया गया है जिसमें दो बुर्ज बनाये गये हैं तथा पश्चिम की तरफ द्वार बनाया गया है। प्राचीर में उत्तर-पश्चिम में निर्मित ललका बुर्ज तथा दक्षिण-पूर्व में निर्मित हजारा बुर्ज प्रमुख हैं। लक्खा बुर्ज पर अब भी कुछ पुरानी तोपें रखी हुई हैं। ध्रुव टीला नामक बुर्ज, लक्खा बुर्ज से भी बड़ी है।

डीग दुर्ग को चारों तरफ से 17 मीटर चौड़ी खाई ने घेर रखा है जिसमें पानी भरा जाता था। उत्तर दिशा में इस खाई पर बने पुल पर चढ़कर ही दुर्ग में प्रवेश किया जा सकता था। दुर्ग की दीवार पर रेत का प्लास्टर किया गया था।

लोहागढ़ की तरह डीग दुर्ग में भी सुरक्षा प्राचीर का तिहरा घेरा बनाया गया था। डीग कस्बे के चारों ओर भी सवा सात किलोमीटर के घेरे में मोटी दीवार बनाई गई थी। इसमें दस द्वार हैं जो अउ, बंधा, भूरा, दिल्ली, गोवर्धन, जसोन्डी, कामा, पन्हेरी, रामचेला तथा शाहपुरा दरवाजा के नाम से जाने जाते हैं।

इसके चारों ओर भी गहरी और चौड़ी खाई खुदी हुई है। शाहपुर दरवाजे के निकट स्थित गढ़ी का उपयोग सैन्य सामग्री एवं सैनिक रखने के लिये होता था। डीग दुर्ग की रक्षा के लिये इसके चारों तरफ छोटी-छोटी गढ़ियां बनाई गई थीं। इनमें शाहपुर की दूसरी तरफ स्थित गोपालगढ़ नामक गढ़ी सबसे बड़ी और सबसे सुदृढ़ थी।

दुर्ग के मध्य में महाराजा सूरजमल का महल है जिसमें वह सबसे पहले रहा। इस महल के पीछे उसके भाई सुल्तानसिंह की समाधि बनी हुई है। इसके निकट दिल्ली के वजीर मिर्जा शफी की कब्र बनी हुई है जो 3 सितम्बर 1783 को अऊ की लड़ाई में मारा गया था। इसके निकट बड़ी खासें बनी हुई हैं जो गोला-बारूद रखने के काम आती थीं।

ई.1775 में नफज खाँ ने डीग पर घेरा डाला जो एक साल तक चला। ई.1776 में डीग नफज खाँ के अधीन हो गया किन्तु शीघ्र ही भरतपुर के राजा रणजीतसिंह द्वारा छीन लिया गया। 13 नवम्बर 1804 को जनरल फ्रैजर ने होल्कर की सेना को डीग के पास परास्त किया तथा दिसम्बर 1804 में उसने डीग दुर्ग में लूट-पाट मचाई। ई.1826 में डीग का दुर्ग लगभग नष्ट कर दिया गया।

डीग दुर्ग के महल

ई.1730 के आसपास डीग के किले, भवनों एवं उद्यानों का निर्माण आरम्भ करवाया गया। राजा बदनसिंह के लिये लाल पत्थर का मकान बनाया गया जो वर्तमान में चिकित्सा विभाग के पास है। डीग के किले, उद्यानों, झीलों, महलों, कुण्डों और मंदिरों का काव्यमय वर्णन सूरजमल के राजकवि सोमनाथ द्वारा रचित सुजान-विलास में मिलता है।

बांसी पहाड़पुर से संगमरमर और बरेठा से लाल पत्थर, भरतपुर, कुम्हेर और वैर तक पहुंचाया जाना एक दुष्कर कार्य था। इसके लिये 1000 बैलगाड़ियां, 200 घोड़ागाड़ियां, 1500 ऊँटगाड़ियां और 500 खच्चरों को काम पर लगाया गया। इन चार स्थानों पर विशाल भवनों तथा वृन्दावन, गोवर्धन और बल्लभगढ़ में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाने में लगभग 20 हजार स्त्री-पुरुष लगभग एक चौथाई शताब्दी तक रात-दिन काम में जुटे रहे।

वृंदावन में महाराजा सूरजमल की दो बड़ी रानियों- गंगा और मोहिनी ने एक सुंदर भवन बनवाया। डीग से पंद्रह मील पूर्व की ओर, सहार में बदनसिंह ने एक सुंदर भवन बनवाया, जो बाद में उसका निवास स्थान बन गया।

डीग अपने सुरम्य महलों के लिए जाना जाता है। महाराजा सूरजमल ने ई.1725 से 1763 के बीच अनेक महलों का निर्माण करवाया। इन्हें भवन कहा जाता है। डीग का मुख्य भवन ‘गोपाल भवन’ कहलाता है। लाल पत्थर से बना यह भवन ई.1745 तक बनकर पूरा हुआ। इन महलों के फव्वारे इन्हें अद्भुत स्वरूप प्रदान करते हैं।

कहा जाता है कि लखनऊ का नवाब गाजीउद्दीन मराठों से बड़ा भयभीत रहता था। राजा सूरजमल ने नवाब की बड़ी मदद की। कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए नवाब ई.1759 में डीग आया तथा महाराजा को इन महलों के निर्माण के लिये काफी धन दिया। गोपाल भवन के सामने काले संगमरमर का एक झूलानुमा सिंहासन रखा हुआ है। यह झूला मुगल बादशाह शाहजहाँ का है। भरतपुर का राजा जवाहरसिंह ई.1764 में दिल्ली पर चढ़ बैठा और वहाँ से यह झूला बैलगाड़ियों में लदवाकर डीग ले आया ताकि दिल्ली विजय की स्मृति लम्बे समय तक भरतपुर राज्य में बनी रहे। इसकी चौकी पर ई.1630-31 की तिथि अंकित है।

भरतपुर के महलों का निर्माण रूपाबास तहसील में स्थित बांसी पहाड़पुर की खानों से लाये गये कठोर बलुआ पत्थर से किया गया है। इन महलों की सुन्दरता, भव्य आकृति तथा कारीगरी का मुकाबला पूरे भारत में बहुत कम भवन कर सकते हैं। ये महल एक चतुष्कोणीय आकृति का निर्माण करते हैं जिनके मध्य में 145 मीटर गुणा 107 मीटर आकार का उद्यान स्थित है। इस उद्यान में फूलों की क्यारियों तथा फव्वारों का सुन्दर संयोजन किया गया है।

इस उद्यान के पूर्व में तथा पश्चिम में पानी के विशाल कुण्ड बनाये गये हैं जिनके दूसरी तरफ भी उद्यान लगा हुआ है। इस प्रकार उद्यानों तथा भवनों की एक चौपड़नुमा आकृति बनती है। उत्तर की दिशा में स्थित भवन, ‘नन्द भवन’ कहलाता है। इसका हॉल 20 गुणा 12 मीटर के आकार का है। यह महल सलैटी पत्थरों का बना हुआ है। नन्द भवन के पूर्व तथा पश्चिम में बरामदे बने हुए हैं।

पूर्व दिशा में स्थित मुख्य भवन ‘गोपाल भवन’ कहलाता है। यह सबसे बड़ा भवन है। तीन दिशाओं में यह भवन दो मंजिला बनाया गया है तथा बीच में एक विशाल भव्य हॉल स्थित है। यह भवन भी पूरी तरह से सलैटी पत्थरों का बना हुआ है। गोपाल भवन के दोनों तरफ कुछ दूरी पर ‘सावन भवन’ तथा ‘भादों भवन’ बने हुए हैं। ये दोनों भवन काफी छोटे हैं। इनके पीछे की ओर पश्चिम कुण्ड तथा बाग का दृश्य दिखाई देता है।

चौपड़ के दक्षिणी हिस्से में दो महल बने हुए हैं जो उत्तराभिमुखी हैं। ये ‘सूरज भवन’ तथा ‘किशन भवन’ कहलाते हैं। सूरज भवन मकराना के संगमरमर पत्थर का बना हुआ है। इसका उपयोग अतिथि गृह के रूप में किया जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे डाक बंगले में बदल दिया गया। अब यहाँ से डाक बंगला अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिया गया है। किशन भवन सलैटी बलुआ पत्थर का बना हुआ है। इसकी छत पर एक विशाल जलाशय बनाया गया है जिसका जल, उद्यानों एवं महलों में लगे फव्वारों तथा नलों को आपूर्ति किया जाता है।

इस जलाशय का आकार 41 मीटर गुणा 32 मीटर गुणा 2 मीटर है जिसमें 26 लाख लीटर पानी आता है। इस जलाशय को भने के लिये, भवन के दोनों कुओं से 15 दिन तक, दिन और रात पानी निकाला जाता था। इस भवन की छत अर्थात् जलाशय का तल इतना मजबूत है तथा कुशल कारीगरी का इतना भव्य उदाहरण है जिसका मुकाबला भारत के किसी भवन की कोई छत अथवा किसी जलाशय का कोई तल नहीं कर सकता।

महलों की चौपड़नुमा आकृति के पूर्वी किनारे पर जहाँ पूर्वी जलाशय बना हुआ है, उसके सामने ‘केशव भवन’ स्थित है जिसे ‘बारहदरी’ भी कहते हैं। यह खुली हुई चतुर्भुजाकार आकृति का भवन है जिसके चारों तरफ बरामदे बने हुए हैं तथा प्रत्येक बरामदे पर फव्वारों की दो-दो पंक्तियां लगी हुई हैं।

दक्षिण में जनाना महल बना हुआ है। इसे ‘हरदेव भवन’ कहा जाता है। इस भवन के दोनों तरफ दायें-बायें तथा पीछे अन्य भवन बने हुए हैं। इसके पास में नारंगी का बाग लगवाया गया था। किशन भवन के पीछे एक पुराना महल बना हुआ है। इस महल का निर्माण राजा बदन सिंह ने करवाया था। यह महल साधारण तरीके का बना हुआ है तथा आकार में काफी बड़ा है।

अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न आर्चिटैक्चर’ में जेम्स फर्ग्यूसन ने इन महलों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इन महलों का निर्माण बिल्कुल समतल धरातल पर किया गया है तथा स्थापत्य की दृष्टि से जितना भव्य एवं वैज्ञानिक कार्य हो सकता है, वह इन महलों में देखने को मिलता है। इन महलों के चारों ओर प्राचीर खींचकर इनकी किलेबन्दी नहीं की गई है जबकि किलेबंदी करना हिन्दू राजप्रासादों का सबसे बड़ा गुण था। शिल्प-सौंदर्य एवं स्थापत्य-कला के मामले में ये राजप्रासाद भारत के अन्य राजप्रासादों को पीछे छोड़ देते हैं।

डीग महलों के उद्यान

डीग महलों के उद्यानों का निर्माण लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व महाराजा सूरजमल ने करवाया था। उद्यान कला में पारंगत कारीगरों को बुलवा कर लगभग बारह एकड़ भूमि में उद्य़ान लगवाया गया। उद्यान का रेखाकंन मुख्य तौर पर चारबाग पद्धति या मुगल उद्यान शैली के अनुरूप किया गया है। यह उद्याान बराबर चार भागों में बंटा हुआ है जिसके मध्य से फव्वारों की चार लाइनें एक दूसरे को विभक्त करती हैं।

इन्हीं फव्वारों के दोनों ओर पर्यटकों के चलने के लिये पत्थरों का बना हुआ लगभग छः फुट चौड़ा मार्ग है जो मध्य के अष्टकोणीय टैंक से चार भागों में विभक्त होता है। धरातल से छह फुट गहराई पर लगाये गये इस खूबसूरत उद्यान में पांच सौ फव्वारों की लम्बी पंक्तियों से विभिन्न रंगों की सहस्रों धाराएं एक साथ छूटती हैं। इससे वर्षा होने का आभास होने लगता है।

इन सैकड़ों फव्वारों में जल आपूर्ति के लिये एक भवन की छत पर 35 फुट की ऊंचाई पर पानी का एक विशालकाय टैंक बना हुआ है। लगभग 25 लाख घनमीटर पानी की भराव क्षमता वाले इस टैंक में 700 नलिकाएं बनी हुई हैं जो लकड़ी के डाटों से खोली एवं बन्द की जाती हैं। फव्वारों से जुड़ी नलिकाओं की कार्य प्रणाली को संचालित करने के लिए विशेष संकेत खुदे हुए हैं।

टैंक के चारों कोनों पर कुएं बने हुए हैं। बिजली की तीन मोटरें चलाकर 48 घंटों में इस टैंक को भरा जाता है। फव्वारों को एक साथ विभिन्न रंगों में चलाने के लिये अलग-अलग रंगों की पोटलियां कपड़ों में बांधकर इन नलिकाओं में लगी जालियों में फिट कर दी जाती हैं जिससे शनैः-शनैः पोटली के रंग फव्वारों में जाने वाले पानी को रंगता रहता है।

इन फव्वारों में मिट्टी की पकी हुई लाइन उस समय के कुशल इंजीनियरों ने लगाई थीं। बादलों की गर्जना उत्पन्न करने के लिये केशव भवन की पोली छत में पत्थर के गोले रखे गये हैं, जो पानी के दबाव से आपस में टकराते हुए कड़कते बादलों की ध्वनि पैदा करते हैं। मुख उद्यान में गुलाब की विभिन्न प्रजातियों के पौधे लगाये हुए हैं तथा बड़े-बडे़ लॉन में गद्देदार घास लगी हुई है।

यह घास मैसूर से मंगवाकर लगवाई गई थी। घास के चारों ओर के मार्गों की बगल में शर्बरी बॉर्डर लगाये गये हैं। इनमें मुख्य रूप से चांदनी, एक्लिफा, बोगनबेलिया, लार्जेस्टोमियां, एक्जोरा, जैसमिनम आदि प्रजातियां मुख्य हैं। बीच के उद्यान में बड़े-बड़े कदम्ब, मौलश्री, आम, अमलतास, गुलमोहर आदि पेड़ लगे हुए हैं।

मुख्य उद्यान से निकलकर भवनों के मुख्य द्वार ‘सिंह पोल’ की ओर आने वाली मुख्य सड़क के दोनों ओर पूर्व और पश्चिम दिशा में भी उद्यान हैं जिनमें कदम्ब के घने वृक्ष, जंगल जलेबी की हैज, बोगनबेलिया एवं कनेर लगाये गये हैं। गुलमोहर की कतारें भी हैं जो डद्यान को अत्यंत आकर्षक रूप प्रदान करती हैं।

गोपाल भवन के सामने 8 लॉन हैं जिनको इस भवन की तरफ से 6 फुट नीचे के तल पर बनाया गया है। इसी प्रकार इस भवन में अलग से दूसरी ओर बने हरदेव भवन के परिसर में भी चारबाग पद्धति में सुन्दर उद्यान लगाया गया है जिसमें पाम के वृक्ष लगे हुए हैं। किशन भवन के सामने ऊपर के प्लेटफार्म पर भवन के पूर्व और पश्चिम दिशा में आठ फंदों का उद्यान है, जो जस्टिसिया की बाड़ लगाकर बनाया गया है। इसमें लगे राइवेल के पौधे गर्मी के दिनों में महकते हैं।

डीग दुर्ग तथा डीग महल के भीतर बने उद्यानों के कारण डीग एक सुंदर उद्यान नगर बन गया जिसका वैभव आगरा, दिल्ली और जयपुर से होड़ करता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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