टहला दुर्ग अलवर जिले में स्थित है। सरिस्का अभयारण्य के ठीक सामने दूर-दूर तक पानी की झीलों और हरे-भरे वन से घिरी टहला कस्बे की पहाड़ी पर टहला दुर्ग बना हुआ है। यह दुर्ग वन्यक्षेत्र में स्थित होने के कारण ऐरण श्रेणी का, पहाड़ पर स्थित होने के कारण गिरि श्रेणी का तथा जल से भरी खाई से घिरा हुआ होने के कारण पारिघ श्रेणी का दुर्ग है।
टहला दुर्ग का निर्माण ई.1759 में आरम्भ हुआ तथा ई.1772 में पूरा हुआ। कच्छवाहों द्वारा निर्मित यह दुर्ग आम्बेर रियासत के अधीन था किंतु बाद में अलवर राज्य की स्थापना होने पर यह दुर्ग अलवर राज्य में चला गया। कुछ लोगों का मानना है कि कच्छवाहों के ढूंढाढ़ में आने से पहले भी यहाँ एक दुर्ग स्थित था जिसे बड़गूजरों ने बनवाया था। संभवतः उसी दुर्ग के ऊपर कच्छवाहों ने नया दुर्ग बनवाया।
सम्पूर्ण दुर्ग प्राचीर से घिरा हुआ है जिसमें आठ बुर्जियां बनी हुई हैं। टहला दुर्ग तक पहुंचने के लिये काले पत्थरों का खुर्रा बना हुआ है। किले में प्रवेश के लिये एक प्रवेश द्वार है जिसे सिंहद्वार कहते हैं। सिंहद्वार पर लगा लकड़ी का विशाल द्वार अब नष्ट हो गया है। इस द्वार से प्रवेश करने पर थोड़ी ही दूर एक और दरवाजा दिखाई देता है जो पहले वाले दरवाजे से भी बड़ा है। इस दरवाजे का कपाट भी अब नष्ट हो गया है।
टहला दुर्ग के सिंहद्वार के निकट ही बाईं ओर भगवान शिव का प्राचीन मंदिर स्थित है। मंदिर के आगे एक और दरवाजा आता है। इसे पार करते ही दीवान-ए-खास का भवन दिखाई देता है। दीवान-ए-खास के ऊपर बारह दरवाजों वाली बारादरी बनी हुई है। इस बारादरी का स्थापत्य देखने योग्य है। यहाँ से दुर्ग के चारों ओर का दृश्य दिखाई देता है।
बारादरी के सामने रनिवास के महल बने हुए हैं। इस खण्ड में सुंदर बरामदे और कक्ष स्थित हैं। जब राजपूताने की देशी रियासतें राजस्थान में विलीन हो गईं तो किलेदार इस दुर्ग को छोड़कर चले गये। तब से यह दुर्ग वीरान अवस्था में पड़ा है।
सरिस्का आने वाले पर्यटक इस दुर्ग को देखने आते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता