चूरू दुर्ग बीकानेर रियासत के अधीन एक जागीरी दुर्ग था। इस दुर्ग के निर्माण के साथ ही उसके चारों ओर चूरू कस्बा बसने लगा। अब यह दुर्ग चूरू कस्बे के मुख्य बाजार में स्थित है। आसपास की धरती से यह लगभग 10 फुट ऊंचा है।
चूरू दुर्ग के निर्माता
चूरू के वर्तमान दुर्ग से पहले भी चूरू के काल्हेरा बास (अब डाकोतों का बास) में एक दुर्ग था जिसे धूलकोट कहते थे। वह संभवतः जाटों का बनाया हुआ मिट्टी का दुर्ग। उस दुर्ग के अवशेष एक ऊंचे टीले पर आज भी दिखते हैं। वर्तमान चूरू दुर्ग का निर्माण, बीकानेर के राठौड़ सामंत कुशलसिंह ने ई.1694 में करवाया था। वह बीकानेर नरेश कर्णसिंह एवं अनूपसिंह का समकालीन था तथा लम्बे समय तक दक्षिण के मोर्चे पर महाराजा कर्णसिंह के साथ रहा था। चूरू के वर्तमान दुर्ग के निर्माण के समय अनूपसिंह बीकानेर का राजा था। ठाकुर कुशलसिंह को इस दुर्ग के निर्माण के लिये धन संभवतः दक्षिण की लड़ाइयों में प्राप्त हुआ था।
दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था
सम्पूर्ण दुर्ग मजबूत प्राकार से घिरा हुआ है जिसमें नौ बुर्ज बनी हुई हैं। किले की प्राचीर में चारों ओर बनाये गये मोखों से शत्रु पर गोलियां दागने की व्यवस्था की गई थी।
दुर्ग में प्रवेश व्यवस्था
दुर्ग में प्रवेश करने के लिये पश्चिम दिशा में सिंहद्वार बना हुआ है जिसके दरवाजों पर लोहे की मोटी सांकलें तथा नुकीली कीलें लगी हुई हैं। दुर्ग के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिये पक्का खुर्रा बना हुआ है।
दुर्ग का स्थापत्य
द्वार से दक्षिण की ओर वाले पहले बुर्ज पर ई.1870 का एक शिलालेख लगा हुआ है। इसके निकट ही ठाकुर ईश्वरीसिंह का स्मारक चबूतरा है। दुर्ग के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित भवन की ऊपरी मंजिल में ठाकुरों के महल तथा नीचे की मंजिल में कचहरी बनी हुई है। पूर्वी भाग में दो देवलियां हैं।
दुर्ग के उत्तरी भाग में भगवानदास बागला द्वारा बनवाये गये अस्पताल एवं दो मंजिले वार्ड स्थित हैं। इसी भाग में ई.1817 में निर्मित मेहता मेघराज की देवली तथा एक पुराना कुआं है। निकट ही ठाकुर शिवसिंह द्वारा बनवाया गया गोपीनाथजी का मंदिर है।
परकोटे की पूर्वी दीवार में ही पीछे की बारी है। मंदिर के आगे कुछ दक्षिण की ओर, बीकानेर राज्य में बनी कुछ अदालतें हैं जिनमें बाद में चेचक उन्मूलन का कार्यालय खोला गया।
चूरू दुर्ग का इतिहास
ई.1783 में चूरू के ठाकुर हरीसिंह की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र शिवजीसिंह चूरू दुर्ग का स्वामी हुआ। वह स्वतंत्र प्रवृत्ति का था तथा महाराजा के आदेशों की अवहेलना करता था। इस कारण बीकानेर नरेश सूरतसिंह (ई.1787-1828) ने ई.1790 में चूरू दुर्ग पर चढ़ाई की। ठाकुर शिवजीसिंह ने महाराजा का सामना किया किंतु अंत में उसे महाराजा की सेवा में उपस्थित होना पड़ा। महाराजा ने उससे पच्चीस हजार रुपये वसूल किये।
शिवसिंह ने महाराजा को नाराज करने के लिये कई कार्य किये तथा पोतेदार सेठों से भी लड़ाई कर ली। पोतेदार सेठ चूरू ठिकाना छोड़कर सीकर ठिकाने की सीमा में जाकर बस गये। ई.1803 में महाराजा ने अपने सेनापति अमरचंद सुराणा के नेतृत्व में चूरू दुर्ग पर आक्रमण करने के लिये सेना भेजी। इस सेना ने चूरू दुर्ग पर घेरा डाल दिया। कुछ समय बाद शिवजीसिंह ने महाराजा के सेनापति को 21 हजार रुपये देकर अपना पीछा छुड़ाया।
ई.1808 में जोधपुर राज्य ने बीकानेर राज्य पर आक्रमण किया तो बीकानेर नरेश ने शिवजीसिंह को सेना सहित बुलवाया किंतु शिवजी सिंह महाराजा की सहायता के लिये नहीं पहुंचा तथा बीकानेर राज्य के अन्य ठिकाणों में उत्पात करने लगा। ई.1810 में शिवजीसिंह ने बीकानेर राज्य से स्वतंत्र होने का प्रयास किया जिससे दोनों के बीच सम्बन्ध और अधिक खराब हो गये।
सीधपुर, मैणासर, सांडवा, सीकर तथा भूकरका के ठाकुरों ने भी बीकानेर राज्य पर आक्रमण करने आरम्भ कर दिये। महाराजा के आदेश पर उसके सेनापति अमरचंद सुराणा ने कई ठाकुरों को जान से मार डाला एवं ठाकुर रत्नसिंह को रतनगढ़ के किले में फांसी पर चढ़ा दिया।
महाराजा की इस कार्यवाही से शिवजीसिंह और अधिक नाराज हो गया। ई.1813 में महाराजा सूरतसिंह ने विशाल सेना लेकर चूरू के विरुद्ध अभियान किया। महाराजा चूरू दुर्ग को घेरकर बैठ गया किंतु शिवजीसिंह ने हार मानने से मना कर दिया। एक दिन तोप के दो गोले महाराजा के पास आकर गिरे तथा वह मरने से बाल-बाल बचा। इसके बाद महाराजा घेरा उठाकर रिणी चला गया।
ई.1813 की जीत के बाद शिवजीसिंह का हौंसले और अधिक बुलंद हो गये। महाराजा भी अपनी हार से तिलमिला गया। इस कारण ई.1814 में अमरचंद सुराना के नेतृत्व में महाराजा सूरतसिंह ने फिर से चूरू पर आक्रमण करवाया। बीकानेर की सेना ने चूरू दुर्ग को घेर कर तोपों से गोले बरसाने आरम्भ कर दिये। चूरू ठाकुर भी दुर्ग के द्वार बंद करके राजा की सेना पर तोपों से गोले बरसाने लगा।
अमरचंद ने पांच सौ घुड़सवार दिन में तथा पांच सौ घुड़सवार रात में चूरू दुर्ग के चारों ओर तैनात कर दिये ताकि कोई भी व्यक्ति दुर्ग में आ-जा न सके। इससे दुर्ग में रसद की कमी हो गई। शिवजीसिंह ने किसी तरह अपने आदमी सीकर के रावराजा लक्ष्मणसिंह तक भिजवाये तथा वहाँ से 2000 सैनिक एवं रसद मंगवाई। अमरचंद ने इस रसद को लूट लिया। इस कारण दुर्ग में हालत और अधिक खराब हो गई।
जब दुर्ग में बारूद के गोले समाप्त होने लगे तो लुहारों ने लोहे तथा शीशे के गोले बनाये किंतु कुछ समय बाद गोले बनाने के लिये शीशा समाप्त हो गया। इस पर सेठ साहूकारों और जनसामान्य ने अपने घरों से चांदी लाकर ठाकुर को समर्पित की। लुहारों और सुनारों ने चांदी के गोले बनाये।
जब तोपों से छूटे चांदी के गोले राजा की सेना पर जाकर गिरे तो सेना हैरान रह गयी। जनता की भावनाओं का आदर करते हुए दुर्ग से घेरा उठा लिया। इस प्रकार यह दुर्ग पूरे संसार में अपनी तरह का अकेला किला बन गया जिसने अपनी रक्षा के लिये चांदी के गोले चलाये।
इस सम्बन्ध में शंकरदान सामोर ने लिखा है-
धोरे ऊपर नींबड़ी, धोरे ऊपर तोप
चांदी गोळा चालतां, गोरां नाख्या टोप।
XXX
बीको फीको पड़ गयो, बण गोरां हमगीर
चांदी गोळा चालिया, चूरू री तासीर।
इसी बीच 27 नवम्बर 1814 को शिवजीसिंह का निधन हो गया। अमरचंद ने हमला जारी र खाँ अंत में शिवजीसिंह के पुत्र पृथ्वीसिंह ने किला समर्पित कर दिया। 30 नवम्बर 1814 की रात को बीकानेर की सेना चूरू दुर्ग में घुस गई और उसने जी भर कर लोगों को लूटा और उनकी सम्पत्ति नष्ट की। इसके बाद महाराजा स्वयं चूरू आया और कुछ दिन तक दुर्ग में रहा।
चूरू का नया ठाकुर पृथ्वीसिंह, चूरू छोड़कर जोधपुर राज्य में चला गया तथा हुकुचंद सुराना को चूरू दुर्ग का हाकिम नियुक्त किया गया। फरवरी 1816 में पृथ्वीसिंह ने तीन हजार आदमी एकत्रित करके पुनः चूरू दुर्ग पर आक्रमण किया किंतु उसके बहुत से आदमी मारे गये और पृथ्वीसिंह रामगढ़ चला गया।
10 जुलाई 1816 को पृथ्वीसिंह ने पुनः 5 हजार आदमी लेकर रतनगढ़ दुर्ग पर हमला किया और रतनगढ़ दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हो गया। नवम्बर 2013 में पृथ्वीसिंह ने चूरू नगर के रक्षकों को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया। नगर रक्षकों ने दुर्ग के द्वार खोल दिये तथा पृथ्वीसिंह 200 सैनिक लेकर नगर में घुस गया। उसने दुर्ग पर गोलीबारी करनी आरम्भ कर दी। इसके बाद बीकानेर की सेना दुर्ग खाली करके चली गई और दुर्ग पर पृथ्वीसिंह का अधिकार हो गया।
ई.1818 में बीकानेर नरेश ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से अधीनस्थ सहायता की संधि कर ली। इसके बाद अंग्रेजों ने चूरू दुर्ग पर आक्रमण किया। इस सेना ने उपद्रवी ठाकुरों का दमन करके फतेहाबाद, सीधमुख, ददरेवा, सरसला, झारिया पर अधिकार कर लिया तथा अंत में चूरू दुर्ग को घेर लिया। पृथ्वीसिंह एक माह तक डटकर मुकाबला करता रहा।
अंत में 10 सिमम्बर 1818 को वह दुर्ग खाली करके रामगढ़ चला गया। अंग्रेजों ने चूरू दुर्ग में अपनी चौकी एवं थाना कायम कर दिये। कुछ समय बाद महाराजा सूरतसिंह का निधन हो गया। पृथ्वीसिंह ने नये महाराजा रत्नसिंह से अच्छे सम्बन्ध स्थापित कर लिये। महाराजा ने उसे कूचोर की जागीर दी। कुछ समय बाद पृथ्वीसिंह का भी निधन हो गया तथा उसका बड़ा पुत्र भैंरूसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ।
ई.1855 में भैंरूसिंह के सौतेले भाई ईश्वरीसिंह ने पुनः चूरू दुर्ग लेने का प्रयास किया तथा छल से दुर्ग में घुसकर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद बीकानेर की सेना ने चूरू दुर्ग पर आक्रमण किया। दोनों ओर के बहुत से आदमी मारे गये तथा दुर्ग पर बीकानेर की सेना का अधिकार हो गया। इस समय महाराजा सरदारसिंह बीकानेर का शासक था। उसने चूरू दुर्ग पर 150 घुड़सवार तथा दो तोपें नियुक्त किये। दुर्ग में बणीरोतों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। आगे चलकर ठाकुर भैंरूसिंह का पुत्र लालसिंह हुआ जिसके दो पुत्र- डूंगरसिंह एवं गंगासिंह, बीकानेर राज्य के महाराजा हुए।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता