गलियाकोट का प्राचीन नाम कोटनगर, कोट महादुर्ग तथा श्रीकोट है। यह वागड़ क्षेत्र का प्रमुख दुर्ग है तथा माहीसागर और महिये के बीच की पहाड़ी पर बना हुआ है।
गलियाकोट दुर्ग का निर्माण 12वीं सदी में परमारों द्वारा करवाया गया। वागड़ के परमार, गुजरात के चौलुक्यों (सोलंकियों) के अधीन थे। जब नाडौल के चौहान राजकुमार कीतू (कीर्तिपाल) ने ई.1174 से 79 के बीच, मेवाड़ के गुहिल शासक सामंतसिंह से मेवाड़ का राज्य छीन लिया तब सामंतसिंह ने आहड़ से आकर वागड़ पर आक्रमण किया।
उस समय गुजरात के चौलुक्य कमजोर थे, इसलिये गलियाकोट के परमारों को उनसे सहायता प्राप्त नहीं हो सकी और गलियाकोट का दुर्ग गुहिलों के अधीन हो गया। बाद में मेवाड़ के गुहिलों ने डूंगरपुर राज्य का निर्माण किया तब यह दुर्ग डूंगरपुर राज्य के अधीन हो गया। डूंगरपुर के महारावल पूंजराज ने ई.1641 में गलियाकोट दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया।
यह दुर्ग माही नदी के तल से 200 फुट ऊंचा है। दुर्ग लगभग एक किलोमीटर लम्बे और आधा किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में बना हुआ है। दुर्ग के चारों तरफ पक्की ईंटों का परकोटा बना हुआ है जिसमें तीरों की मारें एवं बुर्जें बनी हुई हैं। प्राचीर का काफी हिस्सा गिर गया है।
दुर्ग के मुख्य द्वार के सामने गांव बसा हुआ है। मुख्य द्वार पर अब कोई दरवाजा नहीं बचा है। दुर्ग के भीतर प्रवेश करते ही विशाल भैरव प्रतिमा दिखाई देती है। ये दुर्ग के रक्षक देवता हैं। दुर्ग के भीतर महलों के खण्डहर अब भी दिखाई देते हैं। शस्त्रागार, तहखाने, छतरियां, हाथी-घोड़े बांधने के ठाण भी अब टूटू-फूटे पड़े हैं।
दुर्ग के भीतर दो विष्णु मंदिर थे जिनमें से एक मंदिर गिर गया है दूसरे मंदिर में अब कोई प्रतिमा नहीं है। माहीसागर की तरफ भी दुर्ग प्राचीर में एक विशाल दरवाजा हुआ करता था, जो अब गिर गया है। दुर्ग के भीतर रियासती काल की बस्ती के घरों के अवशेष दिखाई देते हैं।
दुर्ग के भीतर 11वीं शताब्दी का सोमनाथ मंदिर था जिसे सोमपुरा शिल्पियों ने बनाया था। इस मंदिर का भी अब अधिकांश भाग गिर गया है। मेहरनाथ, उंडेश्वर तथा नीलकण्ठ के प्राचीन मंदिर भी अब भग्नावस्था में हैं। विष्णु, शिव-पार्वती एवं नंदी आदि देव मूर्तियां दूर तक बिखरी हुई हैं। 16वीं सदी में बने कुछ जैन मंदिर भी अब वीरान पड़े हैं।
वर्षाकाल में यह दुर्ग चारों तरफ पानी से घिर जाता था। दुर्ग में केवल नावों की सहायता से ही पहुंचा जा सकता था। परकोटे के बाहर बनी खाई को अब भी कहीं-कहीं देखा जा सकता है। दुर्ग परिसर से डूंगरपुर के महारावल आसकरण, खुमाणसिंह, रामसिंह, शिवसिंह तथा फतेहसिंह के समय के शिलालेख मिले हैं जिन्हें देवेन्द्र कुंवर संग्रहालय में रखा गया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता