जालोर जिला मुख्यालय से लगभग 65 किलोमीटर दूर तथा उपखण्ड मुख्यालय भीनमाल से 20 किलोमीटर दूर स्थित कोटकास्तां गांव में कोटकास्तां दुर्ग स्थित है।
मध्यकाल में कोट तथा कास्तां नामक दो गांव थे जो अब एकाकार होकर कोटकास्तां नाम से जाने जाते हैं। ई.1804 में महाराजा मानसिंह जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठे तथा नाथ साधु आयस देवनाथ को उन्होंने अपना अध्यात्मिक गुरु बनाया। राजा मानसिंह के काल में नाथ सम्प्रदाय के योगियों का प्रभाव पूरे मारवाड़ में बढ़ गया। मानसिंह ने नाथों को अनेक जागीरें प्रदान कीं तथा प्रत्येक परगने में नाथों का मंदिर बनवाया।
योगी भीमनाथ को कास्तां गांव के पास जागीर दी गई। योगी भीमनाथ ने पहाड़ी पर एक लघु दुर्ग का निर्माण करवाया तथा उसके चारों ओर एक मजबूत परकोटा खिंचवाया। इस परकोटे के निर्माण में पहाड़ी को दीवार की भांति प्रयुक्त किया गया। इसी दुर्ग को अब कोटकास्तां दुर्ग कहा जाता है।
कोटकास्तां दुर्ग के परकोटे के बाहर एक मजबूत परकोटे का निर्माण करवाया गया जिसमें प्रवेश के लिये दो विशाल दरवाजे एवं दो छोटे दरवाजे बनवाये गये। इस परकोटे के भीतर नर्मदेश्वर महादेव का मंदिर तथा जलन्धरनाथजी की समाधि भी बनवाए गए। इस प्रकार कास्तां गांव की बगल में कोट नाम से दूसरा गांव बस गया। परकोटे के भीतर का गांव कोट, बाहर का गांव कास्तां तथा सम्मिलित रूप से कोटकास्तां कहलाने लगा।
लगभग 200 वर्ष पुराने नाथों के इस दुर्ग में तीन मंजिला राजमहल, प्राचीर, बुर्ज, विशाल प्रवेश द्वार तथा अन्य निर्माण अब भी देखे जा सकते हैं। सूर्य की स्वर्णिम शालाकाओं से प्रदीप्त होकर यह दुर्ग कई किलोमीटर दूर से दिखाई देता है। छोटा होने पर भी यह पर्याप्त मजबूत तथा सुन्दर है।
इसकी प्राचीर में बन्दूकों तथा तोपों की मारें बनी हुई हैं। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण कुछ किलोमीटर दूर तक तोपों के गोले छोड़े जा सकते हैं। पहाड़ी के नीचे चारों ओर मैदानी क्षेत्र है तथा एक तरफ कपाल गंगा नामक बरसाती नदी का पाट होने के कारण दुर्ग पर अचानक आक्रमण करना सम्भव नहीं है।
गांव के परकोटे के दोनों विशाल द्वार आज भी विद्यमान हैं। इनमें से एक की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक है, यह द्वार गांव में प्रवेश करने के लिये मुख्य द्वार के रूप में काम करता है। इसमें प्रवेश करके पहाड़ी तक जाने वाले कच्चे मार्ग से कोटकास्तां दुर्ग की प्राचीर के विशाल द्वार तक पहुंचा जा सकता है। इस द्वार पर अब कोई दरवाजा नहीं है केवल पत्थरों की बनी हुई पोल बची है जिसके दोनों तरफ की दीवारें गिर गई हैं।
इस द्वार में बाईं ओर एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर किसी स्त्री का हाथ बना हुआ है तथा उसके निचले भाग में कोई लेख खुदा हुआ है जो अब पढ़ने में नहीं आता। यहाँ से आगे चलने पर बाईं ओर एक पत्थर जमीन में लगा हुआ है जिस पर एक अश्व उत्कीर्ण है और उसकी पीठ पर एक छतरी लगी हुई है। छतरी के अतिरिक्त अन्य कोई आकृति अश्व की पीठ पर नहीं है।
यहाँ से कुछ आगे चलने पर प्रासाद की सीढ़िया आती है। दायीं ओर की सीढ़ियां मुख्य प्रासाद तक जाती हैं। प्रासाद के दोनों तरफ ऊंचे व बड़े चबूतरे बने हुए हैं। दाहिनी ओर के चबूतरे पर एक शिलालेख गढ़ा हुआ है। यह भी कठिनाई से पढ़ा जा सकता है।