Thursday, November 21, 2024
spot_img

आम्बेर दुर्ग

आम्बेर दुर्ग में कई सौ सालों तक कच्छवाहा शासकों की प्रमुख राजधानी रही। यह दुर्ग एक दुर्गम पहाड़ी पर स्थित है।

कच्छवाहों का ढूंढाढ़ में आगमन

ढूंढाढ़ प्रदेश में आने से पहले कच्छवाहे ग्वालियर के निकट नरवर में निवास करते थे। नरवर के कच्छवाहा राजकुमार दूल्हेराव ने ई.1006 से 1036 तक ढूंढाड़ में अपने राज्य का विस्तार किया। यह राजकुमार इतिहास में धोलाराव तथा ढोला के नाम से भी प्रसिद्ध है। उसने दौसा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया जो राजस्थान में कच्छवाहों का पहला किला था।

कुछ समय बाद दूल्हेराव ने जमवारामगढ़ के मीणों को परास्त कर दूसरा किला हस्तगत किया और यहीं पर अपनी राजधानी ले आया। दूल्हेराव के वंशजों ने राजस्थान में बड़ी संख्या में दुर्ग बनवाये। मुगलों के समय में कच्छवाहों के बराबर शक्तिशाली कोई अन्य राजवंश नहीं था।

आम्बेर दुर्ग

जयपुर नगर से लगभग 11 किलोमीटर उत्तर में स्थित आम्बेर दुर्ग एक पार्वत्य दुर्ग है। चारों ओर जंगल से घिरा हुआ होने के कारण यह वनदुर्ग की श्रेणी में भी आता था।

आम्बेर दुर्ग के निर्माता

यह मूलतः मीणों का किला था तथा कच्छवाहा राजकुमार धौलाराय के पुत्र काकिलदेव ने ई.1036 में आम्बेर के मीणा शासक भुट्टो से छीना था। काकिलदेव ने आंबेर के खण्डहरों से भगवान अम्बिकेश्वर की मूर्ति प्राप्त की तथा उसके लिये एक मंदिर बनवाया। कच्छवाहों ने इस दुर्ग का नये सिरे से निर्माण करवाया जिसमें समय-समय पर अनेक परिवर्तन हुए।

आम्बेर दुर्ग का स्थापत्य

सम्पूर्ण दुर्ग, बुर्जों से युक्त प्राचीर से घिरा हुआ है। दुर्ग के दो तरफ पहाड़ियाँ और एक तरफ जलाशय है। किले के मुख्य द्वार तक पहुँचने के लिये घुमावदार पहाड़ी मार्ग तय करना पड़ता है। इस दुर्ग के निर्माण का उद्देश्य राजपरिवार को सुरक्षा देना था। इसलिये दुर्ग परिसर में भव्य महलों का निर्माण किया गया।

दुर्ग में प्रवेश व्यवस्था

रामबाग से पगडण्डी पर चलकर आम्बेर दुर्ग तक पहुंचने के लिये पांच दरवाजे पार करने पड़ते हैं। पहला कस्सी दरवाजा कहलाता है। दूसरा बांसको के ठाकुर चूडसिंह की हवेली में जाने का दरवाजा है। तीसरा पिन्ना मियां की हवेली का दरवाजा कहलाता है। चौथा भैंरू दरवाजा तथा पांचवा सूरजपोल दरवाजा कहलाता है।

जहाँ से आम्बेर महल के जलेब चौक में प्रवेश किया जाता है। इस दरवाजे के सामने चांदपोल दरवाजा स्थित है। सूरजपोल दरवाजे की ऊँचाई लगभग 50 फुट है। इसके दोनों ओर गवाक्ष निकले हुए हैं। रियासती काल में यहाँ नौबत (नगाड़े) बजते थे। इसकी छत पर दोनों ओर छतरियां बनी हुई हैं। अंदिर विशाल चौक है जिसे जलेब चौक कहा जाता है।

गणेश पोल

दीवाने खास में प्रवेश करने के लिये गणेशपोल से होकर निकलना होता है। यह भव्य दरवाजा है। इसकी दीवारों एवं छतों पर आराइस में बेल-बूटे बने हुए हैं। पोल के भीतरी भाग में सोने का काम है। अन्दर की दीवार पर राधा-कृष्ण की रासलीला का दृश्य अंकित है।

गणेश पोल की दूसरी मंजिल पर पूर्वी दिशा में आवासीय कक्ष बने हुए हैं तथा पश्चिमी दिशा में भोजनशाला है। भोजनशाला की छत पर भी स्वर्ण मण्डित चित्रकारी है तथा दीवारों पर भारत की प्रमुख नदियां- गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, सिन्धु, सरस्वती, नर्मदा तथा क्षिप्रा आदि अंकित थीं जिन पर प्रसिद्ध तीर्थ- अयोध्या, मथुरा, काशी, प्रयाग, उज्जयिनी, हरिद्वार तथा द्वारिका आदि दर्शाये गए थे।

भोजनशला में भारत की पवित्र नदियों का जल हर समय उपलब्ध रहता था तथा भोजन आरम्भ करने से पहले इन नदियों का स्मरण करके उनके जल का मिश्रण पिया जाता था। ऊपरी मंजिल के निवासों से महल के चारों ओर सुरंगें बनी हुई हैं जिनसे होकर रानियां, बिना पर्दा किए आ-जा सकती थीं।

आम्बेर दुर्ग के प्राचीन निर्माण

ई.1216 में राजदेव के समय आम्बेर के प्राचीन राजमहल का निर्माण करवाया गया। कुंतलदेव के समय इसमें कुछ और महल बने। पृथ्वीराज (ई.1503-27) के समय बालन बाई की साल में सीतारामजी की पूजा का विशेष प्रबंध किया गया। यह पूजा आज तक होती आई है। राजा पृथ्वीराज ई.1527 में महाराणा सांगा की तरफ से लड़ने के लिये खानवा गया तथा वहाँ से घायल होकर लौटा। कुछ दिन दिन बाद ही आम्बेर के महलों में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी छतरी दुर्ग परिसर में चतरनाथ जोगी के स्मारक के पास स्थित है।

आम्बेर दुर्ग के मुगल कालीन निर्माण

आम्बेर के कच्छवाहा वंश का कुंवर मानसिंह, अकबर का समवयस्क एवं समकालीन था। वह अपने पिता भगवंतदास (ई.1574-89) का उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासन काल में इस दुर्ग में अनेक निर्माण हुए। इस काल के निर्माण कार्य में हिंदू एवं मुगल स्थापत्य कला का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। दुर्ग में स्थित जलेब चौक, सिंह पोल, गणेश पोल, शिला देवी का मंदिर, दीवाने आम, दीवाने खास, दिलखुश महल, रंग महल, शीश महल, बाला बाई की साल आदि देखने योग्य हैं।

परी बाग (मोहन की बाड़ी)

आम्बेर में जहाँ फूलों की घाटी समाप्त होती है, वहीं पर घाटी गेट स्थित है। घाटी गेट के भीतर प्रवेश करते ही परियों का बाग आता है जहाँ आजकल छोटे बच्चों को जात-संस्कार के लिये लाया जाता है। इस बाग का मूल नाम श्यामबाग है। राजा मानसिंह के पुत्र श्यामसिंह के नाम पर इसका नाम श्याम बाग रखा गया था।

बाद में जब महाराजा रामसिंह ने यहाँ पर नृत्यांगनाओं के नृत्य एवं गायन के कार्यक्रम आयोजित करवाने आरम्भ किये, तब से यह परी बाग कहलाने लगा। इस बाग में एक हिन्दू शैली की आयताकार प्राचीन बावड़ी तथा दूसरी अफगान शैली की गोलाकार बावड़ी स्थित है। जब सवाई जयसिंह ने सांभर पर विजय प्राप्त की तब इसी स्थान पर वाजपेय यज्ञ तथा अन्य यज्ञों के आयोजन कराये गए थे। इसे मोहन की बाड़ी भी कहा जाता है।

राम बाग

परी बाग के निकट ही राम बाग स्थित है। इसमें सुन्दर बारादरी एवं छतरी बनी हुई है। यहाँ भी फव्वारे लगे हुए हैं। राम बाग में झरना युक्त तीन बरामदों का एक सुन्दर कक्ष है। बाग के प्रवेश द्वार पर आठ फुट ऊँची छतरी है जिसके माध्यम से हाथी पर चढ़कर आम्बेर तथा जयगढ़ दुर्ग को जाया जा सकता है।

मावठा तथा दलाराम बाग

परी बाग से आगे चलते ही मावठा नामक तालाब स्थित है। ऊपर पहाड़ी पर दुर्ग का परकोटा दिखाई देता है। मावठा के किनारे दलाराम का बाग स्थित है। इस बाग का निर्माण मिर्जाराजा जयसिंह के समय दलाराम तथा मोहन नामक दो शिल्पियों ने किया था। बाग के मध्य में संगमरमर के हौद में सुन्दर फव्वारा लगा हुआ है।

इसके उत्तर एवं दक्षिण की ओर करौली के लाल पत्थर की दो छतरियां बनी हुई हैं। दलाराम बाग के बीच में से होकर एक मार्ग आम्बेर के महलों को जाता है। यह रास्ता ढलाननुमा पथरीली घाटी में स्थित है। बाग के पश्चिम की ओर आम्बेर दुर्ग में जाने के लिये एक पगडण्डी भी है।

आम्बेर दुर्ग का दीवाने आम

दीवानखाना या दीवानेआम की नींव राजा मानसिंह (ई.1589-1614) के समय रखी गई थी। मानसिंह ने इसे हिन्दू शैली में बनवाने की योजना बनाई थी किंतु उसके निधन के कारण इसका निर्माण पूरा नहीं हो सका। बादमें मिर्जाराजा जयसिंह (ई.1621-67) ने इसका निर्माण करवाया। इस भवन में 40 स्तम्भों पर स्तूपाकार पिरामिड बने हुए हैं। इनमें से 24 स्तम्भ गुलाबी पत्थर के हैं तथा 16 स्तम्भ मकराना के संगमरमर के हैं। स्तम्भों के ऊपरी हिस्सों को हाथियों की सूण्ड की आकृति में बनाया गया है।

शिलामाता मंदिर

बंगाल में ढाका के निकट स्थित जैसोर के राजा विक्रमादित्य ने ई.1587 में अपने पुत्र प्रतापादित्य को मुगलों की शासन पद्धति जानने के लिये आगरा भेजा। जब प्रतापादित्य आगरा से बंगाल लौटने लगा तो मार्ग में उसे मथुरा में काले रंग की एक शिला देखने को मिली जिसके बारे में कहा जाता था कि इसी शिला पर कंस ने देवकी की पुत्री को पटक कर मारने की चेष्ट की थी किंतु वह कंस के हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी।

प्रतापादित्य वह शिला जैसोर ले गया। बाद में जब राजा मानसिंह ने मुगलों की तरफ से जैसोर पर आक्रमण किया तब वह इस शिला को आम्बेर ले आया। मंदिर में काले पत्थर से निर्मित देवी प्रतिमा की शिलामाता के नाम से पूजा होती है। यहाँ शारदीय नवरात्रि में छठी से अष्टमी तक मेला भरता है।

सिंहपोल

शिलामाता मंदिर से सीढ़ियां चढ़कर सिंहपोल पहुंचा जाता है तथा सिंहपोल से प्रवेश करके दीवानेआम में पहुंचा जाता है। रियासती काल में इस पोल से केवल राजपरिवार के सदस्य प्रवेश कर सकते थे। आम जनता के लिये सिंहपोल की पूर्वी दिशा में सीढ़ियां बनी हुई थीं। अब पर्यटकों को सिंहपोल से प्रवेश टिकट लेना पड़ता है।

सुरंग

आम्बेर महल के पश्चिमी भाग में लगभग 500 फुट लम्बी सुरंग बनी हुई है। इस सुरंग का दक्षिणी छोर जनानी ड्यौढ़ी से आम्बेर महल में तथा उत्तरी छोर रसोड़ से आम्बेर महल में जाता है। सुरंग से शीश महल तथा मानसिंह के महल में जाने का गोपनीय रास्ता भी है। आम्बेर महल के बाहरी दक्षिणी भाग से यह सुरंग खुले रूप में जयगढ़ तक जाती है।

कचहरियां

दीवाने आम के दायीं ओर 27 खम्भों पर आराइस से युक्त सुन्दर बरामदा बना हुआ है। इसे सत्ताईस कचहरी भी कहते हैं। रियासती काल में यहाँ राजस्व सम्बन्धी कार्य करने वाले कर्मचारी बैठते थे।

आम्बेर दुर्ग का दीवाने खास

गणेश पोल से होकर दीवाने खास पहुंचा जाता है। रियासती काल में यहाँ केवल राजपरिवार के सदस्य ही प्रवेश ले सकते थे। दीवाने खास के तीन प्रमुख भाग हैं। पूर्वी भाग में शीश महल, मध्य भाग में मुगल शैली का बगीचा तथा पश्चिमी भाग में सुख मंदिर। शीश महल दो मंजिला है। प्रथम मंजिल को जयमंदिर तथा दूसरी मंजिल को जसमंदिर कहते हैं। जयमंदिर का निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह (ई.1621-67) के समय में हुआ था।

शीश महल की दोनों मंजिलों पर एक-एक शयन कक्ष बने हुए हैं। शीशमहल के मेहराबदार बरामदे सफेद संगमरमर के कुराईदार काम के स्तम्भों से युक्त हैं। बरामदों में 5-5 फुट तक सुन्दर बेल-बूटों का अंकन है। संगमरमर को काटकर उसमें काले पत्थर की भराई करके बेल-बूटों का बॉर्डर बनाया गया है।

चार बाग

मेहराबदार बरामदे के आगे चौकोर हौज बना हुआ है जिसमें एक फव्वारा लगा हुआ है। इसके आगे मुगल शैली का चार बाग है। चार बाग के बीच में कलात्मक हौज है जिसमें फव्वारे लगे हुए हैं। बाग के चारों ओर संगमरमर के 2-2 फुट ऊँचे कलात्मक कटहरे लगे हुए हैं।

जस मंदिर

शीशमहल की दूसरी मंजिल पर दो कक्ष एवं इसके मध्य भाग में आयाताकार दालान है। इस सम्पूर्ण भाग में टीकरीनुमा जामिया कांच लगा हुआ है। इस बरामदे की पूर्वी दिश में जालियां एवं पश्चिमी दिश में ताम्बे के छिद्राकार पाइप के नीचे, खस के पर्दे डालकर गर्मियों में ठण्डी हवा की व्यवस्था की जाती थी। इसके आगे खुली छत है। इस छत की पश्चिमी दिशा में सुन्दर संगमरमर का जालीदार झरना बना है तथा सामने राजा-रानी के बैठने का सिंहासन है। यहाँ से चार बाग का सुन्दर दृश्य दिखाई देता है।

सुख मंदिर

दीवाने खास की पश्चिमी दिशा में सुख मंदिर स्थित है। यह हिस्सा गर्मियों में राजपरिवार के विश्राम के काम आता था। सफेद संगमरमर से बने इस भवन की दीवारों में सफेद प्लास्टर से गुलदस्ते बने हुए हैं। भवन के पीछे की दीवार में संगमरमर का झरना है। इस झरने के दोनों ओर संगमरमर में कटाई करके झरोखे बनाये गए हैं।

भवन की उत्तरी दिशा में स्थित टंकी से इस झरने में पानी आता था। बहते हुए पानी की चौड़ी नाली में सफेद एवं काले पत्थर के टुकड़े लगाकर लहरदार बनाया गया है। इस चौड़ी नाली से होकर पानी, बाग की ओर नीचे बने झरने में जाता है। इस झरने को देखने के लिये बरामदे की छत पर एक गोल कांच लगा हुआ है। इस भवन में बने दोनों कमरों के दरवाजे चंदन की लकड़ी से बने हैं जिन पर हाथी दांत से पच्चीकारी की गई है।

सुहाग मंदिर

गणेश पोल की तीसरी मंजिल सुहाग मंदिर कहलाती है। इसमें दोनों ओर एक-एक अष्ट-कोणीय कक्ष तथा बीच में तीन मेहराबदार दरवाजों वाला आयताकार बरामदा बना हुआ है। इसके बाहरी गुम्बज एवं दीवारों पर बहुरंगी चित्रकारी है। दीवाने आम की ओर झांकती इस बालकनी में रियासती काल में राजपरिवार की महिलाएं बैठकर दरबार की कार्यवाही देखा करती थीं। ओट देने के लिये संगमरमर की मेहराबदार जालियां लगी हैं।

आम्बेर दुर्ग का मानसिंह महल

राजा मानसिंह (ई.1589-1614) के समय बना यह महल हिन्दू स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है। यह महल, मिर्जा राजा जयसिंह के दो मंजिले महल के पीछे स्थित है। रानियों के महल, राजा मानसिंह के महल, रानियों के आवास अलग से बने हुए हैं। नीचे तथा ऊपर की मंजिल में 12-12 आवास हैं।

आम्बेर दुर्ग का अतिथि-गृह

मानसिंह के महल के दक्षिणी-पश्चमी दिशा में दो खण्डों का सुन्दर अतिथि-गृह बना हुआ है। इसमें सुन्दर मेहराब युक्त बरामदे हैं। मानसिंह महल, माधोसिंह की थान एवं जलेब चौक से अतिथि-गृह पहुंचा जा सकता है। अतिथि इस भाग में बाहर से ही प्रवेश कर सकते थे।

आम्बेर दुर्ग की जनानी ड्यौढ़ी

राजमहल के बाह्य भाग में जिसका एक रास्ता शिलामाता के मंदिर की दांयी तरफ से तथा दूसरा मानसिंह महल के अंदर से है, जनानी डयौढ़ी की ओर जाता है। महल के बाहरी भाग की नीचे की मंजिल में रानियों की सेविकाओं, वस्त्र धोने वाली दासियों तथा सफाई करने वाली दासियों के कक्ष बने हुए हैं। सामने पड़दायतों, पासवानों आदि के निवास हैं। इस भाग में पहले एक सुन्दर बगीचा था किंतु अब यहाँ आर्ट गैलेरी तथा दुकानें खुल गई हैं।

राजतिलक की चौकी

आम्बेर दुर्ग के प्राचीन महल परिसर में चौक के मध्य राजतिलक की छतरी स्थित है। आम्बेर राज्य के नये उत्तराधिकारी का राजतिलक इसी चौकी पर होता था।

-डॉ. मोहन लाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source