जोधपुर राज्य (मारवाड़ रियासत) के आऊवा ठिकाणे में राठौड़ राजपूतों का बनाया हुआ आऊवा दुर्ग ई.1857 के स्वातंत्र्य समर में पूरे देश में प्रसिद्ध हुआ। जोधपुर राज्य पर उस समय महाराजा तख्तसिंह का शासन था। यह स्थल श्रेणी का लघु दुर्ग है जो थार मरुस्थल की सीमा पर बना हुआ है। इस लघु दुर्ग के इतिहास का प्रमुख भाग ईस्वी 1857 की क्रांति में आऊवा दुर्ग के ठाकुर द्वारा निभाई गई भूमिका ही है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार द्वारा एरिनपुरा में ई.1836 में ‘जोधपुर लीजियन’ नामक सेना स्थापित की गयी थी। 18 अगस्त 1857 को जोधपुर लीजियन के कुछ सिपाहियों ने माउण्ट आबू में अंग्रेजी सैनिकों की बैरकों में घुसकर गोलियां चलाईं तथा ए.जी.जी. के पुत्र ए. लाॅरेंस को घायल कर दिया।
कप्तान हाॅल ने विद्रोहियों को अनादरा गाँव तक खदेड़ दिया। ये विद्रोही सैनिक 23 अगस्त को ऐरिनपुरा पहुँचे। ऐरिनपुरा में इनका यथेष्ट स्वागत हुआ तथा वहाँ भी विद्रोह हो गया। विद्रोही सिपाही पाली की ओर बढ़ने लगे। इस पर जोधपुर नरेश तख्तसिंह ने अनाड़सिंह को सेना देकर अंगे्रजों की सहायता करने के लिये भेजा। जोधपुर की सेना को आता देखकर, क्रांतिकारी सैनिक पाली जाने की बजाय आऊवा की तरफ मुड़ गये।
आऊवा ठाकुर कुशालसिंह ने इन सैनिकों का स्वागत किया। कुशालसिंह को लाम्बिया, बांटा, भीवलिया, राडावास, बांजावास आदि ठिकानों के सरदारों का समर्थन प्राप्त था। कुशालसिंह ने जोधपुर के पोलिटिकल एजेंट माॅक मेसन को सूचित किया कि उसने क्रांतिकारियों को इस बात पर सहमत कर लिया है कि यदि उन्हें क्षमा कर दिया जाये तो वे अपने हथियार तथा सरकारी सम्पत्ति सरकार को जमा करवा देंगे। इस पर माॅक मेसन ने पत्र लिखकर कुशालसिंह को लताड़ पिलाई कि वह उन लोगों की पैरवी कर रहा है जो देशद्रोही हैं तथा जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध खुला विद्रोह किया है।
कुशालसिंह ने अंग्रेजों से और राजा तख्तसिंह की सेनाओं से लड़ने का निश्चय किया। उसने क्रांतिकारियों से बात की तथा उन्हें आऊवा के किले में बुला लिया। गूलर का ठाकुर बिशनसिंह, आसोप का ठाकुर शिवनाथसिंह तथा आलणियावास का ठाकुर अजीतसिंह भी अपनी सेनाएं लेकर आऊवा आ गये।
खेजड़ला ठाकुर ने भी अपने कुछ सैनिक कुशालसिंह की मदद के लिये भेज दिये। मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के सामंतों ने भी अपनी सेनाएं आऊवा भिजवा दीं। लाम्बिया, बन्तावास और रूदावास के ठाकुरों ने भी अपनी सेनाओं सहित विद्रोही सैनिकों का साथ दिया।
इसी बीच किलेदार अनाड़सिंह की सहायता के लिये जोधपुर से कुशलराज सिंघवी, छत्रसाल, राजमल मेहता, विजयमल मेहता आदि की सेनाएं भी आ गयीं। अनाड़सिंह ने अपनी तोपों के मुंह विद्रोही सिपाहियों की ओर खोल दिये। विद्रोहियों ने भी गोलीबारी आरम्भ कर दी। जोधपुर की राजकीय सेना के दस सिपाही मारे गये तथा अनाड़सिंह की सेना पराजित हो गयी।
लेफ्टीनेंट हीथकोट ने पाँच सौ अश्वारोही लेकर विद्रोही सिपाहियों पर आक्रमण किया। विद्रोही सिपाहियों ने एक बार फिर राजकीय सेना में मार लगायी तथा उनके 76 आदमी मार डाले। अनाड़सिंह घायल हो गया। हीथकोट किसी तरह जान बचाकर भागा। कुशलराज सिंघवी और विजयमल मेहता भी मैदान छोड़कर भाग गये। विद्रोही सिपाहियों ने राजकीय सेना के डेरे लूट लिये।
उन दिनों राजस्थान में अंग्रेजों का पाॅलिटिकल एजेण्ट टू गवर्नर जनरल (ए.जी.जी.) जाॅर्ज लाॅरेन्स था। आऊवा के समाचार सुनकर वह अजमेर से सेना लेकर आ गया। जोधपुर के पोलिटिकल एजेण्ट मौकमैसन ने भी विशाल सेना लेकर आऊवा की ओर कूच किया। चेलावास नामक स्थान पर 18 सितम्बर 1857 को दोनो पक्षों की सेनाओं में फिर घमासान मचा। क्रान्तिकारी एक बार फिर जीत गये।
माॅकमैसन मारा गया। क्रान्तिकारियों ने उसका सिर काटकर आऊवा में घुमाया तथा बाद में किले के दरवाजे पर टांग दिया। ए.जी.जी. जाॅर्ज लाॅरेन्स डरकर अजमेर भाग गया। अब क्रांतिकारी दिल्ली की ओर चल पडे। उनका नेतृत्व आसोप ठाकुर शिवनाथसिंह ने किया। गूलर और आलनियावास के ठाकुर भी उनके साथ गये। रास्ते में क्रांतिकारियों ने रेवाड़ी पर अधिकार कर लिया तथा नारनोल की तरफ बढ़ गये। नारनोल में अंग्रेजों की सेना ने उन्हें करारी शिकस्त दी।
दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद अंग्रेज सेना ने आऊवा पर फिर से चढ़ाई की। 20 जनवरी 1858 को कर्नल होम्स ने आऊवा को घेर लिया। इस समय कुशालसिंह के पास केवल 700 सैनिक थे। चार दिन तक आऊवा का घेरा चलता रहा। दोनों पक्षों में भीषण गोलीबारी हुई। ठाकुर कुशालसिंह रात के अंधेरे में आऊवा छोड़कर मेवाड़ चला गया और उसके भाई (लाम्बिया ठाकुर) ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया। सिरियाली के ठाकुर ने 24 घण्टे तक अंग्रेजी सेना को रोके रखा ताकि शेष सैनिक आसानी से निकल जायें।
अंत में अंग्रेजों ने आऊवा के किलेदार को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया तथा किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने आऊवा को जमकर लूटा और पूरी तरह बरबाद कर दिया। कई स्त्री पुरुषों की हत्या कर दी और घरों को आग लगा दी। सिरियाली के ठाकुर को पकड़ कर राजा तख्तसिंह के पास भेज दिया। गूलर, आसोप एवं आलणियावास की किलेबंदी नष्ट कर दी।
जोधपुर राज्य द्वारा इन ठाकुरों की जागीरें जब्त कर ली गईं। क्रांति के विफल हो जाने पर आऊवा ठाकुर कई वर्षों तक अपनी जागीर फिर से प्राप्त करने का प्रयास करता रहा। उसने आऊवा पर कई आक्रमण भी किये किंतु दुर्ग को लेने में असफल रहा। अंत में ई.1860 में नीमच में उसने आत्मसमर्पण कर दिया। तीन महीने तक वह अंग्रेजों की कैद में रहा। उस पर मुकदमा चला किन्तु अंत में रिहा कर दिया गया।
कुशालसिंह जीवन भर आऊवा का दुर्ग वापिस हासिल करने के लिये जूझता रहा किन्तु सफल नही हो सका। इस बीच ई.1864 में मेवाड़ में उसकी मृत्यु हो गई। उसके पुत्र देवीसिंह ने आऊवा का दुर्ग वापिस लेने के अपने पिता के प्रयास जारी रखे और ई.1868 में उसने पोकरण, कुचामन, नीमाज, रायपुर, रास, खेजड़ला तथा चण्डावल के जागीरदारों की मदद लेकर आऊवा दुर्ग पर बड़ा भारी आक्रमण किया और आधी रात के समय उस पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद उसने अपने पिता की जागीरदारी के पुराने क्षेत्रों को अपने अधिकार में लेना आरम्भ कर दिया। इससे रुष्ट होकर अंग्रेजों ने आऊवा, लाम्बिया, बांता, भिवालिया, बादसा, राजोदा, सोनेई, रूदावास, सपूनी, सोवानी, सेला और नैनियावास के जागीरदारों से कई गांव जब्त कर लिये। इनमें से आऊवा को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। उसे अपनी जागीर का लगभग 65 प्रतिशत भाग खोना पड़ा।
ई.1857 की सैनिक क्रांति के समय क्रांतिकारी सैनिक, आउवा ठिकाणे में एकत्रित हुए। इस समय राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया तथा भारतीय क्रांतिकारी सैनिकों का दमन किया। राजस्थान के कवियों ने राजाओं को धिक्कारते हुए आजादी के गीत लिखे-
वणिया वाळी गोचर मांय, काळो लोग पड़ियो ओ,
राजाजी रै भैळो तो फिरंगी लड़िया ओ,
काळी टोपी रो।
हे ओ काळी टोपी रो, फिरंगी फैलाव कीधो ओ।
काळी टोपी रो।
बारली तोपां रा गोळा धूड़गढ़ में लागै ओ
मांयली तोपां रा गोळा तंबू तोड़ै ओ,
झल्लै आउवो।
हे झल्लै आउवो, आउवो धरती रो थांबो ओ,
झल्लै आउवो।…………………….।
राजाजी रा घोड़लिया काळां रे लारै दौड़ै ओ।
आउवे रा घोड़ा तो पछाड़ी तोड़ै ओ,
झगड़ो व्हैण दो।
हे ओ झगड़ो व्हैण दो, झगड़ां में थांरी जीत व्हैला ओ,
झगड़ो व्हैण दो।
जब आउवा के क्रांतिकारी सैनिकों ने पोलिटिकल एजेंट माॅक मेसन का सिर काट कर आउवा गढ़ के बाहर टांग दिया तब होली पर उसके फाग गाये जाने लगे। मारवाड़ में आज भी इस घटना की स्मृति में, फाग गाये जाते हैं-
ढोल बाजै, थाळी बाजै, भेळो बाजै बांकियो,
अजंट ने ओ मारने दरवाजे नांकियो,
जूंझै आउवो।
हे ओ जूंझे आउवो, आउवो मुलकां में चावो ओ,
जूंझै आउवो।
आउवा की घटना को महाकवि सूर्यमल्ल मीसण (ई.1815-1868) ने भी अपनी कविताओं का विषय बनाया। उन्होंने लिखा है-
लोहां करंतो झाटका फणां कंवारी घड़ा रो लाडौ,
आडो जोधांण सूं खेंचियो वहे अंट।
जंगी साल हिदवांण रा आवगो जींनै।
आउवो खायगो फिरंगाण रो अजंट।।
आउवा ठाकुर कुशालसिंह को अपना ठिकाणा छोड़कर मेवाड़ रियासत के कोठारिया ठिकाणे में शरण लेनी पड़ी। कोठारिया ठाकुर जोधसिंह की प्रशंसा में भी लोक गीत गाये जाने लगे-
बांकड़ली मूंछां रो ठाकर कोठारिया में आयो रै
अंगरेजां रा दुसमण ने मेवाड़ वधायो रै
झगड़ो झालियौ
हां रे झगड़ो झालियो
धरती में थांरो नाम रेसी ओ
झगड़ो झालियो।
सुगाली माता
आऊवा दुर्ग में काली माता की एक मूर्ति थी जिसके दस सिर तथा 54 हाथ थे। देवी की यह प्रतिमा सुगाली माता के नाम से जानी जाती थी। यह प्रतिमा अठारह सौ सत्तावन के क्रांतिकारी सैनिकों की प्रेरणा स्रोत रही। यह आऊवा के ठाकुर कुशालसिंह द्वारा पूज्य उनकी कुलदेवी है।
सन् 1857 की क्रांति के विफल हो जाने के बाद जब अंग्रेजों ने आऊवा दुर्ग पर अधिकार किया तो वे देवी की मूर्ति को आबू पहाड़ पर अपने गोदाम में ले गये। अंग्रेजों को भय था कि इस मूर्ति में विश्वास रखकर ही जनता में विद्रोह की भावना जाग्रत होती है। 12 दिसम्बर 1909 को यह मूर्ति राजपूताना म्यूजियम अजमेर को दे दी गई। पाली में राजकीय संग्रहालय की स्थापना के बाद यह मूर्ति अजमेर से पुनः पाली लाई गई।
आऊवा दुर्ग की सामग्री
आऊवा दुर्ग से मिली बन्दूकें, तोंपे तथा अन्य सामग्री जोधपुर नरेश के सिपाही उठा कर ले गये जो मेहरानगढ़ दुर्ग में रखी गईं।