अचलगढ़ को आबू दुर्ग भी कहते हैं। यह सिरोही जिले में आबू से लगभग 13 किलोमीटर दूर, अरावली पर्वत माला के ऊंचे शिखर पर स्थित है। इसी के पास अचलेश्वर मंदिर विद्यमान है। अचलगढ़ तथा अचलेश्वर मंदिर का निर्माण परमार शासकों ने ई.900 के आसपास करवाया था।
अचलगढ़ मन्दिर के कुण्ड से ऊपर की ओर चढ़ने पर अचलगढ़ दुर्ग आता है। मन्दिर से दुर्ग में जाने पर गणेश पोल से सीढ़ियां आरम्भ होती हैं।
अचलगढ़ के निर्माता
चितौड़ के कीर्ति स्तम्भ में इस दुर्ग का उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार राणा कुम्भा ने यह दुर्ग बनवाया था। वस्तुतः यह दुर्ग ई.900 में परमारों द्वारा बनवाया गया था। ई.1442 में महाराणा कुम्भा ने इसमें कुछ जीर्णोद्धार एवं नवनिर्माण करवाये। उस समय इसका आकार भी काफी बड़ा कर दिया गया।
परमारों का किला
अलैक्जैण्डर किनलॉक फॉर्ब्स ने अपनी पुस्तक ‘रासमाला’ में लिखा है- ‘आबूगढ़ पर परमारों का किला है, इस किले का कोट कुंभा ने बनवाया था। कुंभा स्वयं भी प्रायः इस दुर्ग में रहता था। यहाँ के तोपखाने और गढ़ी की बुर्जी पर अब भी कुंभा का नाम मौजूद है। यहाँ एक बेढंगा सा मंदिर बना हुआ है जिसमें कुंभा की पीतल से निर्मित मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति का आज तक पूजन होता आया है। राणा कुंभा ने पश्चिमी सीमा और आबू के बीच की घाटियों को भी किलों की तरह बनवा दिया था।’
अचलगढ़ के निर्माण
अचलेश्वर मंदिर से दुर्ग की ओर जाने वाले मार्ग में लक्ष्मीनारायण मन्दिर, जैन तीर्थंकर, कुंथुनाथ का मन्दिर, एक धर्मशाला तथा पार्श्वनाथ, नेमिनाथ एवं आदिनाथ के मन्दिर आते हैं। दुर्ग परिसर में चामुण्डा माता का मन्दिर, भृतहरी की गुफा, भृगु आश्रम, गोमतीकुण्ड, कुंभ-स्वामी मन्दिर, कुंभा की रानी का महल तथा ओका का महल भी दर्शनीय हैं।
दुर्ग के अन्य मंदिरों में दो जैन मंदिर प्रमुख हैं। इनमें से एक मंदिर भगवान ऋषभदेव का तथा दूसरा मंदिर भगवान पार्श्वनाथ का है। दुर्ग में एक कुण्ड स्थित है। दुर्ग परिसर में ही सावण-भादवा नामक तालाब है जिसमें वर्ष-पर्यंत जल भरा रहता है।
मन्दिर 108 शिवलिंगों वाला है किन्तु मुख्य स्थल पर शिवलिंग के स्थान पर एक छोटा गड्ढा बना हुआ है जो काशी विश्वनाथ का अंगूठा बताया जाता है। पीतल का विशाल नन्दी मन्दिर के मुख्य गृह में स्थापित है जिसकी पीठ पर मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा किये गये प्रहारों के चिन्ह अंकित हैं।
नन्दी के पास ही कवि दुरसा आढ़ा की मूर्ति है। दुरसा आढ़ा अकबर का दरबारी कवि था तथा जाति से चारण था। यह मूर्ति दुरसा के जीवन काल में ही बनाई गई थी। दाताणी का युद्ध जीतने के बाद सुरताण ने आढ़ा को अपने यहाँ शरण, जागीर एवं सम्मान दिया। इस मूर्ति पर विक्रम 1686 (ई.1619) का लेख अंकित है।
मेवाड़ के महाराणा लाखा (ई.1382-1421) ने लोहे का एक विशाल त्रिशूल इस मन्दिर में चढ़ाया था जो आज भी मौजूद है। परिसर में यत्र-तत्र सैंकड़ों प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं।
गुहिलों की वंशावली
अचलेश्वर मन्दिर परिसर में ई.1285 के शिलालेखों में मेवाड़ के बप्पा रावल से समरसिंह तक की वंशावली अंकित है तथा ई.1320 में सिरोही के देवड़ा चौहान लूम्भा द्वारा चन्द्रावती एवं आबू विजय किये जाने का भी उल्लेख है।
कान्हड़देव की प्रतिमा
अचलेश्वर दुर्ग में स्थित इस शिव-मन्दिर में राजा कान्हड़देव की पाषाण प्रतिमा तथा एक तोरण भी मौजूद है। इस तोरण में धर्म तुला लटकाई जाती थी जिसमें राजा को तोला जाता था तथा उसके बराबर सोना, चांदी, वस्त्र और अनाज गरीबों में बांटे जाते थे। कान्हड़देव की पाषाण प्रतिमा से अनुमान लगाया जा सकता है कि तेरहवीं शताब्दी में यह दुर्ग जालोर के सोनगरों के अधिकार में था।
धारावर्ष द्वारा राक्षसों का वध
मन्दिर में स्थित ब्रह्म-खड्ड के बारे में कहा जाता है कि यह खड्ड पाताल तक जाता है। मन्दिर के पास स्थित मन्दाकिनी कुण्ड लगभग 900 फुट लम्बा व 240 फुट चौड़ा है। यह कुण्ड ठोस चट्टानों को काटकर तथा अंदर की ओर ईंटों की चिनाई करके बनाया गया है।
किंवदन्ती है कि इस कुण्ड में पहले घी भरा रहता था जिसे भैंसों के रूप में आने वाले तीन राक्षसों द्वारा पी लिया जाता था। परमार राजा धारावर्ष (ई.1163 से 1219) ने इन राक्षसों को एक ही बाण से बेधकर मार डाला। राजा धारावर्ष तथा उसके बाणों से बेधे गये तीन भैंसों की मूर्तियाँ आज भी यहाँ मौजूद हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता