अकेलगढ़ नाम से दो दुर्ग मिलते हैं। ये दोनों दुर्ग हाड़ौती क्षेत्र में चम्बल के किनारे हैं तथा भीलों के बनाए हुए हैं। अब इन दुर्गों के केवल खण्डहर ही मौजूद हैं।
उदयपुर, चित्तौड़, बांसवाड़ा तथा डूंगरपुर क्षेत्र में भीलों के बहुत से दुर्ग हुआ करते थे जिन पर शनैः शनैः गुहिल राजपूतों ने अधिकार कर लिया। उनमें से कुछ दुर्ग विस्तारित करके गुहिल राजपूतों द्वारा काम लिये जाने लगे तथा कुछ दुर्गों को पूरी तरह गिराकर उनके स्थान पर नये दुर्ग बनाये गये। कोटा क्षेत्र में भी कुछ भील राज्य मौजूद थे जिनके पास अपने किले थे।
कोटा नगर से दक्षिण की ओर चम्बल नदी के दाहिने तट पर दो दुर्गों के खण्डहर हैं। इन दोनों को अकेलगढ़ कहा जाता है। इन दोनों दुर्गों का निर्माण एक साथ न होकर अलग-अलग काल खण्ड में हुआ था।
अकेलगढ़ नाम से विख्यात ये दोनों दुर्ग भीलों के अधिकार में थे तथा इनकी रचना राजपूतों के दुर्गों की अपेक्षा बहुत ही साधारण प्रकार की थी। कोटिया भील ने अकेलगढ़ को छोड़कर कोटिया में नया दुर्ग बनवाया। बाद में कोटिया के दुर्ग पर चौहान राजपूतों ने अधिकार कर लिया। बांसवाड़ा तथा डूंगरपुर क्षेत्र में भी भीलों के बहुत से दुर्ग हुआ करते थे जिन पर शनैः शनैः गुहिल राजपूतों ने अधिकार कर लिया। वे दुर्ग गुहिलों अथवा उनके सामंतों द्वारा काम लिये जाने लगे।
उदयपुर के महाराणाओं ने वनवासी भीलों की युद्धकला के महत्व को समझा तथा उन्हें अपनी सेना में भर्ती किया। गुहिलों की इस नीति ने मेवाड़ को अजेय बना दिया।
महाराणा उदयसिंह ने भीलों पर विश्वास करके ही उदयपुर की गहन पहाड़ियों में अपनी नई राजनीति स्थापित की तथा महाराणा प्रताप को बाल्यकाल में भीलों के बीच रखकर पाला। सिरोही राज्य में भी भीलों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती थी किंतु सिरोही के राजा अपनी भील प्रजा से मित्रता करने में असफल रहे। इस कारण सिरोही राज्य न तो कभी सुरक्षित रह सका और न कभी सिरोही राज्य का विकास हो सका।
महाराणा प्रताप को यदि भीलों की सहायता नहीं मिली होती तो उनके लिए अकबर जैसे प्रबल मुगल बादशाह की सेनाओं से लड़ना संभव नहीं हुआ होता। भीलों में वे कीका के नाम से प्रसिद्ध थे जिसका शाब्दिक अर्थ है- बच्चा।
हाड़ौती क्षेत्र के अकेलगढ़ दुर्ग कब बने तथा कब नष्ट हुए, इसका अब कोई इतिहास नहीं मिलता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता