माना जाता है कि कर्नल जेम्स टॉड द्वारा लिखित एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान के प्रकाश में आने के बाद राजस्थान में आधुनिक पर्यटन की परम्परा आरम्भ हुई, उससे पहले के पर्यटन को हम तीर्थाटन के रूप में देखते हैं। इस तीर्थाटन की परम्परा ने ही राजस्थान में सांस्कृतिक पर्यटन को जन्म दिया है।
कर्नल टॉड ने राजस्थान के ऐतिहासिक गौरव को जिस गद्गद् एवं अभिभूत स्वर से यूरोप वासियों के समक्ष रखा, उससे टॉड पर यह आरोप तो लगे कि वे राजस्थान की स्थानीय शासक इकाइयों से मिल गये हैं किंतु इस पुस्तक से भारत को कई दृष्टियों से लाभ हुआ। इस पुस्तक के प्रकाश में आने के बाद ही यूरोप वासियों में यह धारणा बनी कि भारत में सांपों, जोगियों, भूतों, सतियों और राजाओं के अतिरिक्त भी बहुत कुछ ऐसा है जो यूरोप में नहीं है।
उसी ‘बहुत कुछ’ को देखने की लालसा में उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय नागरिक बड़ी संख्या में भारत आने लगे। निःसंदेह उनके मन में राजस्थान दर्शन की उत्कट लालसा होती थी। यह ‘बहुत कुछ’ क्या था इसको समझने की आवश्यकता आज एक बार फिर से है ताकि राजस्थान के पर्यटन को उसका सही स्थान मिल सके। राजस्थान में सांस्कृतिक पर्यटन की विपुल संभावनाएं उपलब्ध हैं।
कर्नल टॉड के बाद लगभग 200 वर्षों की अवधि में राजस्थान में पर्यटन क्षेत्र ने बहुत उन्नति की है किंतु विगत पचास वर्षों में वैश्विक स्तर पर पर्यटन क्षेत्र ने जो करवट ली है और यह जिस तेजी के साथ संसार की सबसे बड़ी आर्थिक गतिविधि के रूप में उभर कर सामने आया है, उसमें से बहुत कम अंश भारत ले पाया है, राजस्थान तो और भी कम।
विश्व पर्यटन संगठन (डब्लू टी ओ) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में विश्व पर्यटन भुगतान 1075 बिलियन अमरीकी डॉलर पहुंच गया। भारत इस परिदृश्य में कहाँ है, इस बात का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विश्व पर्यटकों में से भारत आने वाले पर्यटकों का प्रतिशत मात्र 0.38 है जबकि हम विश्व की 15 प्रतिशत भूमि वाले देश हैं। राजस्थान की स्थिति तो ऊँट के मुंह में जीरे जैसी ही है।
आज अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बन गया है। विश्व स्पर्धा में बने रहने के लिये तथा राजस्थान के युवाओं को ‘‘स्मोकलैस इण्डस्ट्री एम्पलॉयमेंट’’ उपलब्ध कराने के लिये राजस्थान के पर्यटन को नया आकार दिये जाने की आवश्यकता है। यह तभी हो सकता है जब हम उस तत्व को समझें कि विश्व भर से आने वाले पर्यटक राजस्थान में क्या देखने आते हैं!
क्या हम उन्हें वह उपलब्ध करा पाते हैं जिसकी उन्हें तलाश है! हमें यह समझ लेना चाहिये कि वे राजस्थान में मनोरंजन (एंटरटेनमेंट) के लिये नहीं आते। मनोरंजन के लिये उनके पास लास वेगास के कैसीनो, डिजनी लैण्ड के झूले, रियो डी जेनरो का सांबा नृत्य, लंदन और पेरिस की स्काई लाइन तथा बैंकॉक का रात्रि जीवन उपलब्ध है।
सच्चाई यह है कि यूरोपीय एवं अमीरीकी देशों के पर्यटक राजस्थान में एक गंभीर पर्यटक के रूप में आते हैं। यह गंभीर तत्व राजस्थान में सांस्कृतिक पर्यटन है जिसे वे निकट से देखना, छूना और किसी सीमा तक ‘जीकर’ देखना चाहते हैं। विश्व भर से राजस्थान मंे आने वाले पर्यटकों में शैक्षणिक पर्यटन के लिये आने वाले पर्यटकों की भी बड़ी संख्या होती है। अतः यदि राजस्थान अपने पर्यटन उत्पाद को गहन-गंभीर सांस्कृतिक पर्यटन में बदल दे तो राजस्थान में पर्यटन की तस्वीर बदल सकती है।
आज राजस्थान में सांस्कृतिक पर्यटन के रूप में पर्यटकों को जो उपलब्ध है, वह कुछ मंदिरों, महलों, किलों, स्मारकों, मेलों, उत्सवों तथा होटलों में परोसे जाने वाले व्यंजनों, हस्त उत्पादों, संगीत एवं लोक नृत्यों के रूप में है। दुर्भाग्य से होटलों में परोसी जाने वाली संस्कृति बहुत ही उथले स्तर की है जो विदेशी पर्यटकों को भीतर तक निराश करती है।
इसलिये निजी क्षेत्र के कुछ पर्यटन प्रबंधकों ने विदेशी पर्यटकों की आवश्यकताओं को समझते हुए राजस्थान के ग्रामीण अंचलों, रेतीले धोरों में टैण्ट आदि लगाकर लोक संस्कृति के दर्शन कराने का काम आरम्भ किया है। इन शिविरों का जीवन, रेगिस्तान अथवा किसी पहाड़ी निर्जन क्षेत्र में रात्रि व्यतीत करने का आह्लाद तो देता है किंतु जिस लोक संस्कृति को विदेशी पयर्टक निजी अनुभव के रूप में देखना चाहते हैं, वह अनुपलब्ध-प्रायः है।
गहन-गंभीर, उत्सुकता से परिपूर्ण एवं आनंददायक पर्यटन की अनुभूति के लिये पर्यटन क्षेत्र के प्रबंधकों को राजस्थान की सांस्कृतिक आत्मा को समझना होगा। उन्हें इस सांस्कृतिक आत्मा को सुरक्षित रखते हुए विदेशी पर्यटकों को उस तक ले जाना होगा। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राजस्थान के पर्यटन क्षेत्र को राजस्थान की सांस्कृतिक आत्मा की समझ प्राप्त करने की आवश्यकता क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर मानव जाति के इतिहास में छिपा हुआ है। प्राचीन काल में जब धरती के विभिन्न हिस्सों में मानव सभ्यताओं ने विकसित होना आरम्भ किया तो उनकी सबसे बड़ी चिंता शत्रुओं से अपनी सुरक्षा करने की थी। जब सभ्यताओं ने अपनी सामाजिक परम्पराएं तथा धार्मिक मान्यताएं स्थापित कर लीं तो मानव की चिंता इन परम्पराओं और मान्यताओं को प्रदूषित होने से बचाने की हो गई और एक दूसरे के प्रति दूरी बनाये रखने की अवधारणा विकसित हुई।
इस कारण भूमण्डल के विभिन्न भागों में विकसित होने वाली सभ्यताओं के रहन-सहन, खान-पान, वेष-भूषा, आचार-विचार, चिंतन-मनन, आदत-व्यवहार आदि में बहुत अंतर एवं वैशिष्ट्य उत्पन्न हो गया। सभ्यताओं के इन्हीं तत्वों को संस्कृति के रूप में परिभाषित किया जाता है। आज के युग का विश्व पर्यटक, इन्हीं सांस्कृतिक अंतरों एवं वैशिष्ट्यों को देखना, समझना और उसके वैचित्र्य को अनुभव करना चाहता है।
सौभाग्य से राजस्थान में ऐसी सांस्कृतिक, जैविक, भौगोलिक एवं पुरातात्विक विशिष्टताएं उपलब्ध हैं जो कि अपने आप में अनूठी हैं। इनको निकट से देखना देशी-विदेशी पर्यटकों को विशिष्ट अनुभूति देता है। हम राजस्थान की संस्कृति के साथ राजस्थान की भौगोलिक विशिष्टताओं, इतिहास एवं पुरातत्व को जोड़कर पर्यटकों के लिये अधिक उपयोगी ‘पर्यटन-उत्पाद’ तैयार कर सकते हैं।
राजस्थान में राजस्थान में सांस्कृतिक पर्यटन की दिशा में कुछ काम हुआ है जैसे हल्दीघाटी के निकट संग्रहालय की स्थापना, खानुआ के मैदान में महाराणा सांगा के स्मारक की स्थापना, अजमेर में तारागढ़ पहाड़ी पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के स्मारक की स्थापना एवं उदयपुर में मोती डूंगरी में महाराणा प्रताप के स्मारक की स्थापना। इस परम्परा को आगे बढ़ाये जाने की आवश्यकता है तथा इसमें नये विषय जोड़े जाने की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिये जोधपुर जिले के बिश्नोई बहुल क्षेत्रों में रेतीले धोरों की संस्कृति के साथ-साथ बिश्नोई जाति द्वारा विशेषकर महिलाओं द्वारा हरिणों को दिये जा रहे ममत्व एवं सुरक्षा को भी पर्यटन के साथ जोड़ा जा सकता है। बिश्नोईयां धोरा में पर्यावरण की शुद्धि के लिये प्रतिदिन घी की आहुतियों से खुले अहाते में सार्वजनिक रूप से हवन किया जाता है, इस अवसर पर मोर, हरिण तथा नीलगाय आदि वन्यजीव उसी परिसर में अथवा उसके निकट घूमते रहते हैं, पर्यटकों के लिये ऐसे दृश्य विश्व में अन्यत्र दुर्लभ हैं।
सांभर झील ऐशिया में खारे पानी की सबसे बड़ी झील है। पश्चिमी राजस्थान को जाने वाले पर्यटक जब ट्रेन में बैठकर इस झील के बीच से गुजरते हैं तो वे इसे साधारण झील ही समझते हैं। जबकि सांभर के किनारे से उत्खनन में प्राप्त नलियासर की सभ्यता, सांभर झील के इतिहास, झील में पाई जाने वाली जैविक सम्पदा, चौहानों का सांभर से सम्बन्ध, रियासत काल में जोधपुर, जयपुर एवं मेवाड़ रियासतों से इस झील के ऐतिहासिक सम्बन्ध, अंग्रेजों द्वारा सांभर झील के लिये जोधपुर एवं जयपुर राजाओं से की गई संधियों आदि की रोचक जानकारी को झील के किनारे एक संग्रहालय बनाकर सांभर झील को राजस्थान का महत्वपूर्ण ‘टूरिस्ट डेस्टीनेशन’बनाया जा सकता है।
इसी प्रकार गणेश्वर, आहाड़, गिलूण्ड, बालाथल, रंगमहल आदि से खुदाई में प्राप्त पुरातात्विक सामग्री को उन्हीं स्थलों पर संग्रहालय बनाकर प्रदर्शित किया जा सकता है, जहाँ से वे प्राप्त हुए हैं। विश्व भर के पर्यटक शैक्षणिक पर्यटन के लिये इन स्थानों पर आना पसंद करेंगे यदि इन स्थलों की प्रसिद्धि, यूरोप, अमरीका एवं अन्य महाद्वीपों के देशों में की जाये।
इसी प्रकार बाड़मेर जिले में पर्यटकों को मरुस्थलीय पर्यटन के साथ-साथ, तिलवाड़ा की खुदाई से प्राप्त लगभग सात हजार साल पुरानी सभ्यता के अवशेष भी खुदाई स्थल के पास ही प्रदर्शित करके उन्हें पुरातत्वीय संदर्भों के साथ दिखाया जाये तो पर्यटकों के लिये विशेष आकर्षण का केन्द्र बन सकते हैं।
जैसलमेर जिले से जुरासिक काल के डायनोसोरों के ‘फुट प्रिण्ट फॉसिल्स’ प्राप्त किये गये हैं। यदि फॉसिल्स गार्डन के 180 लाख साल पुराने जीवाश्मों के साथ, डेजर्ट नेशनल पार्क में रहने वाली सरीसृपों की 51 प्रकार की प्रजातियों तथा स्तनपायी जीवों की साठ से अधिक प्रकार की प्रजातियों का एक जंतुआलय स्थापित किया जाये तो इस स्थान को भी पर्यटकों के लिये विशेष रूप से आकर्षण का बिंदु बनाया जा सकता है।
बीकानेर जिले से ‘ट्राइबोलाइट’जीवाश्म मिले हैं। ट्राइबोलाइट कैम्ब्रियन युग के निचले स्तर पर पाये जाते हैं। ये डायनोसार से पहले लुप्त हुए थे। इनका युग 57 करोड़ साल पुराना है। उस समय पृथ्वी पर बहुकोशीय जीवों की उत्त्पत्ति तेजी से हो रही थी। इस कारण धरती पर ट्राइबोलाईट जीवों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी। इस जानकारी के साथ ट्राइबोलाईट के जीवाश्मों का संग्रहालय भी अन्य स्थानीय सामग्री के साथ संग्रहालय के माध्यम से पर्यटकों के लिये उपलब्ध कराया जा सकता है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हो सकते हैं जिनमें छिपी संभावनाओं का पता लगा कर उन्हें टूरिज्म-प्रोडक्ट के रूप में तैयार किया जा सकता है और राजस्थान में सांस्कृतिक पर्यटन का विकास किया जा सकता है। इन प्रोडक्ट्स को तैयार करने के साथ-साथ इस बात की भी आवश्यकता है कि न केवल इनका विश्व-व्यापी प्रचार किया जाये अपितु पर्यटकों को उन स्थलों तक पहुंचने के लिये अच्छे प्रबंध भी किये जायें।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता