राजपूताने के सक्षम राज्य का आशय उन देशी रियासतों से है जो स्वतंत्र भारत में अपना अलग राज्य के रूप में अस्तित्व बनाए रखने में सक्षमता की पात्रता रखती थीं। यह पात्रता जनसंख्या, क्षेत्रफल एवं राजस्व संग्रहण पर निर्भर करती थी। राजस्थान में ऐसे केवल चार राज्य थे- जोधपुर, जयपुर, उदयपुर एवं बीकानेर।
प्राचीन भारतीय क्षत्रियों ने राज्य व्यवस्था का निर्माण किया था। हजारों वर्षों तक यह व्यवस्था चलती रही। राजा का पुत्र प्रायः वंशानुगत अधिकार से राजा बनता था। राजपुत्रों द्वारा शासित क्षेत्र कालांतर में राजपूताना कहलाया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में राजपूताना के राज्य, देश की राजनीतिक परिस्थितियों से विवश होकर अंग्रेजी संरक्षण में चले गए।
राजपूताना में चार प्रमुख एवं सक्षम राज्य थे- जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर। ई.1818 से लेकर ई.1947 तक ये राज्य अंग्रेजी शासन के अधीन रहे। बीसवीं सदी में देश का राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेजी से घटित हुआ जिसकी परिणति ई.1947 में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के रूप में हुई।
प्रस्तुत ग्रंथ में राजपूताना के सक्षम राज्यों की बीसवीं सदी में स्थिति, ई.1930 में प्रस्तावित अखिल भारतीय संघ के प्रति उनकी प्रतिक्रिया, द्वितीय विश्वयुद्ध एवं उसके पश्चात् देशी राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति, देशी राज्यों का संविधान सभा में प्रवेश एवं परमोच्चता का विलोपन, भारतीय संघ में विलय, स्वाधीनता के पश्चात् सक्षम राज्यों में उत्तरदायी सरकारों का गठन, सक्षम राज्यों का राजस्थान में विलय तथा एकीकरण के पश्चात की समस्याओं का विश्लेषण किया गया है तथा इस विषय में अब तक अप्रकाशित रहे नये तथ्यों को भी सामने लाने का प्रयास किया गया है।
अखिल भारतीय संघ के प्रति देशी राज्यों की प्रतिक्रिया, क्रिप्स मिशन, केबीनेट मिशन और देशी राज्यों के विलय और एकीकरण पर इस शोध ग्रंथ से पूर्व भी कतिपय ग्रंथ प्रकाश में आए हैं किंतु राजपूताना के चारों सक्षम राज्यों (जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर) के संदर्भ में ई.1930 ई. से 1950 के बीच घटी घटनाओं यथा- संघीय प्रस्ताव, भारत संघ में विलय, राजस्थान में एकीकरण तथा एकीकरण के पश्चात् की समस्याओं के सम्बन्ध में समस्त सामग्री किसी एक पुस्तक में विस्तार पूर्वक एवं क्रमबद्ध रूप से उपलब्ध नहीं थी।
इस ग्रंथ में ई.1930 से ई.1950 के बीच के 20 वर्षों में राजपूताना के चार सक्षम देशी राज्यों की भारत सरकार के साथ हुई विभिन्न वार्ताओं में रही अभिवृत्ति की भी समीक्षा की गयी है। ग्रंथ में कुल 9 अध्याय हैं।
इस ग्रंथ हेतु शोघ सामग्री जुटाने के लिए ई.1930 से 1950 तक की अवधि की, राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली में उपलब्ध भारत सरकार के राजनीतिक विभाग, उसके बाद गठित रियासती विभाग तथा राजपूताना स्टेट एजेंसी की फाईलें, नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय नई दिल्ली में उपलब्ध सामग्री, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार बम्बई तथा राज्य अभिलेखागार बीकानेर में उपलब्ध देशी राज्यों की राजनीतिक विभाग की फाइलों से शोध सामग्री एकत्रित की गयी है।
मारवाड़, बीकानेर, मेवाड़ तथा जयपुर रियासतों की वार्षिक ‘एडमिनिस्ट्रेटिव रिपोर्ट्स’ एवं विभिन्न शोध संस्थानों में उपलब्ध सामग्री से भी तथ्य जुटाए गए हैं। स्वतंत्रता से पूर्व भारत सरकार द्वारा प्रकाशित इम्पीरियल गजेटियर्स, स्वतंत्रता से पूर्व विभिन्न देशी राज्यों द्वारा प्रकाशित राजपत्रों एवं स्वतंत्रता के पश्चात् राजस्थान सरकार द्वारा प्रकाशित विभिन्न जिलों के गजेटियर्स का भी उपयोग किया गया है।
प्रो. एफ. के. कपिल के निजी संग्रह में संकलित विभिन्न पुराने समाचार पत्रों, तत्कालीन सरकारी अभिलेखों की प्रतिलिपियों तथा पुस्तकों का उपयोग किया गया है। जोधपुर रियासत के सेवानिवृत्त एवं वयोवृद्ध कर्मचारी श्री हरिकिशन पुरोहित के निजी संग्रह तथा महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश एवं शोध संस्थान में संकलित जोधपुर महाराजा के निजी सचिव की पत्रावलियों तथा पुस्तकों का भी उपयोग किया गया है।
जोधपुर राजपरिवार के निकट रहे एवं इतिहास विषयक सामग्री का संकलन करने वाले पारसमल खींवसरा द्वारा अपने संपूर्ण अभिलेख को महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश एवं शोध संस्थान जोधपुर को समर्पित कर दिया गया है। उस अभिलेख से भी कई तथ्य जुटाने में सहायता प्राप्त हुई है। इसी प्रकार जोधपुर स्थित चौपासनी शोध संस्थान में जोधपुर राज्य के राजपत्रों के संकलन से भी काफी सहायता मिली।
आशा है यह ग्रंथ इतिहास के विद्यार्थियों, अध्यापकों, शोधार्थियों एवं इतिहास में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए उपयोगी होगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता