भवाल गांव जिला मुख्यालय नागौर से 105 किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व यह जिला कुचामन ठिकाने की जागीर में था। मेड़ता-जैतारण सड़क से एक मार्ग रियां की ओर जाता है। उसी मार्ग पर यह गांव स्थित है। भवाल गांव को ‘भुवाल’ भी कहा जाता है, यह भूपाल शब्द का अपभ्रंश है।
भवाल गांव की प्रसिद्धि गांव से एक किलोमीटर दूर बने काली के प्राचीन मंदिर के कारण है। काली का मंदिर 13वीं शताब्दी का है। इसमें एक प्राचीन शिलालेख भी लगा है जो पढ़ने में नहीं आता। यह शिलालेख विक्रम की 12वीं अथवा 14वीं शताब्दी का बताया जाता है। यह मंदिर विशालकाय लाल पत्थरों से निर्मित है। विशाल पोल में प्रवेश करके छोटा चौक आता है।
मंदिर के सामने का भाग अत्यन्त प्राचीन जान पड़ता है। यह हिस्सा धरती में गहरा दब गया है तथा मंदिर का फर्श काफी ऊपर आ गया है।
दोनों तरफ के प्राचीन भवन अब छोटी-छोटी कोटड़ियों में रूपान्तरित हैं। इन भवनों के बीच से होकर मन्दिर का मण्डप तथा मण्डप के आगे मुख्य गर्भगृह स्थित है। गर्भगृह में देवी की दो मूर्तियां स्थापित हैं।
देवी की मूर्तियों की तरफ मुंह करके खड़े होने पर बाईं ओर की मूर्ति काली माता की तथा दायीं ओर की मूर्ति ब्रह्माणी माता की है। काली की मूर्ति को प्रसाद के रूप में मदिरा, मखाने, मावा तथा नारियल चढ़ते हैं जबकि ब्रह्मणी माता को मखाने, मावा तथा नारियल आदि चढ़ता है।
काली माता की मूर्ति को एक छोटे प्याले में तीन बार मदिरा का भोग लगाया जाता है। प्याले को देवी के सामने रखकर पुजारी आंखें बन्द कर लेता है तथा देवी से प्रासाद ग्रहण करने का आग्रह करता है। कुछ ही क्षणों में प्याले में से मदिरा चमत्कारिक रूप से विलोप हो जाती है।
ऐसा तीन बार किया जाता है। तीसरी बार प्याला आधा ही रिक्त होता है। कहते हैं कि यदि कोई परीक्षा लेने की नीयत से मदिरा चढ़ाता है तो देवी मदिरा ग्रहण नहीं करती। इसी प्रकार बुरे व्यक्ति की जिससे देवी अप्रसन्न हो, मदिरा स्वीकार नहीं होती।
देवी द्वारा मदिरापान करने का यह प्रकरण एक रहस्य बना हुआ है। देवी ने यह मदिरापान कब से आरंभ किया, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। आज से कई सौ वर्ष पहले जब यह मंदिर एक चबूतरे के रूप में था, कुछ डाकू यहाँ आये और चबूतरे पर बैठकर लूट का माल बांटने लगे। उस समय देवी ने डाकुओं को कुछ चमत्कार दिखाया। चमत्कृत डाकुओं ने बाद में यहाँ देवी का मंदिर बनवाया।
मंदिर की प्राचीन दीवारों में प्राचीन काल की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जिनमें देवी, देवता, यक्ष, गन्धर्व तथा किन्नर आदि भी उपस्थित हैं। मंदिर में एक धर्मशाला बनी हुई है तथा मंदिर के नाम पर 150 बीघा कृषिभूमि है जिससे पुजारी परिवारों का गुजारा होता है। नवरात्रियों में इस मंदिर में विशाल मेला लगता है जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं।
-इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



