देवरावर दुर्ग नौंवी शताब्दी ईस्वी से लेकर अंग्रेजों के थार मरुस्थल में आगमन तक एक प्रमुख दुर्ग हुआ करता था। इस दुर्ग का मूल नाम देवरावल कोट है। देवरावल दुर्ग का पुराना नाम डेरा रावर भी था। देवराल कोट थार मरुस्थल के जिस भाग में स्थित है, उसे चोलिस्तान भी कहते हैं। चोलिस्तान का रेगिस्तान सिंधु नदी के सूखने के कारण बना था।
देवरावर दुर्ग का निर्माण राय जज्जा भाटी द्वारा ईस्वी 858 में लोद्रवा के राजा देवराज अथवा देव रावल की स्मृति में करवाया गया था जिसकी राजधानी लोद्रवा में थी जो कि अब भी भारत में ध्वंसावशेषों के रूप में देखी जा सकती है।
विशाल देवरावर दुर्ग अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर जिले की अहमदपुर तहसील में स्थित है। अहमदपुर के 20 किलोमीटर दक्षिण में देवरावर दुर्ग की 40 गोलाकार बुर्ज कई मील दूर से दिखाई देती हैं। यह दुर्ग लगभग डेढ़ किलोमीटर की परिधि में है तथा 30 मीटर ऊँची दीवारों से घिरा हुआ है। पूरा दुर्ग मिट्टी की ईंटों से निर्मित है। दुर्ग के भीतर का क्षेत्र लगभग 35 एकड़ है। दुर्ग के भीतर का भाग टाइल और फ्रैस्को कलाकृतियों से सजाया गया है।
इस दुर्ग के चारों ओर भी जैसलमेर दुर्ग की तरह मजबूत परकोटा बना हुआ है जिसे स्थानीय भाषा में कमरकोट अथवा घाघराकोट कहा जाता है क्योंकि इसके बुर्ज पेटीकोट की प्लेटों जैसे दिखाई देते हैं। मध्यकाल में जो लोग थलमार्ग से मक्का अथवा मदीना जाया करते थे, वे देवरावर कोट होकर ही जाते थे। व्यापारियों के काफिले भी इसी दुर्ग के निकट होकर निकला करते थे।
सिंध क्षेत्र में मीरगढ़, जानगढ़, मरोतगढ़, मौजगढ़, दीनगढ़, खानगढ़, खैरगढ़, बिजनौटगढ़ और इस्लामगढ़ दुर्ग देवरावर दुर्ग के साथ मिलकर एक लम्बी सुरक्षा पंक्ति बनाते थे।
ई.1732 तक यह दुर्ग शाहोत्रा जनजाति के पास था जिसे बहावलपुर के मुस्लिम शासक द्वारा छीन लिया गया। जब अंग्रेजों ने सिंध क्षेत्र पर अधिकार किया तो ये सभी दुर्ग ब्रिटिश क्राउन के अधिकार में चले गए।ये सभी किले पाकिस्तान में चले गए। ईस्वी 1947 में पाकिस्तान का निर्माण हुआ तो पूरा सिंध क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया। इस कारण देवरावर दुर्ग भी पाकिस्तान में चला गया।
ईस्वी 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, पाकिस्तानी सेना ने सैनिक प्रशिक्षण के लिए जगह बनाने के उद्देश्य से दुर्ग के भीतर बनी कई संरचनाओं को गिरा दिया।
रख-रखाव के अभाव में यह दुर्ग बहुत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच चुका है। यद्यपि यह दुर्ग पाकिस्तान में है तथापि इस दुर्ग का उल्लेख किए बिना भाटियों के दुर्गों का इतिहास अधूरा रह जाता है।