सवाईमाधोपुर से लगभग 40 किलोमीटर पूर्व दिशा में स्थित खण्डार दुर्ग का निर्माण रणथंभौर के चौहानों द्वारा ईसा की आठवीं अथवा नौवीं शताब्दी में करवाया जाना अनुमानित है। यह रणथंभौर दुर्ग का सहाय दुर्ग था। रणथंभौर का दुर्ग यहाँ से 18 किलोमीटर दूर स्थित है। जब-जब रणथंभौर दुर्ग का हस्तांतरण हुआ, खण्डार दुर्ग भी उसके साथ ही रहा।
खण्डार दुर्ग अरावली की पहाड़ियों एवं सघन जंगलों के बीच एक खड़ी चट्टान पर बना हुआ है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई लगभग 500 मीटर तथा निकटवर्ती भूतल से लगभग 260 मीटर है। इसके पूर्व में बनास एवं पश्चिम में गालण्डी नदी बहती है।
त्रिभुजाकार आकृति में बने इस दुर्ग के चारों ओर मजबूत परकोटा बना हुआ है जिसकी बनावट घाघरे की तरह रखी गई है ताकि शत्रु इस पर आसानी से नहीं चढ़ सके। इस तरह के परकोटों को कमरकोट कहा जाता है। दुर्ग का निचला भाग ढलान लिये हुए है। एक पहाड़ी एवं घुमावदार मार्ग दुर्ग के मुख्य द्वार तक जाता है। दुर्ग के अंदर पहुंचने के लिये तीन द्वार पार करने पड़ते हैं। इन पर विशाल एवं सुदृढ़ दरवाजे लगे हुए हैं।
मुख्य प्रवेश द्वार में प्रवेश करने के बाद मार्ग दाहिनी ओर मुड़ता है जहाँ सैन्य चौकियां दिखाई देती हैं। यहीं पर सैनिकों के आवास भी बने हुए हैं। आगे चलने पर एक जैन मंदिर दिखाई देता है जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की मनुष्याकार खड़ी प्रतिमा एवं अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। दीवार पर वि.सं.1741 का एक लेख उत्कीण है।
यहाँ से आगे चलने पर एक हिन्दू मंदिर दिखाई देता है जिसमें हनुमानजी की विशाल प्रतिमा लगी हुई है। हनुमानजी के पैरों में एक असुर पड़ा हुआ है। बुर्ज दरवाजे से होकर किले के पिछले छोर तक पहुंचा जाता है।
दुर्ग परिसर में बारूदखाना, सिलखाना, तोपखाना आदि बने हुए हैं साथ ही अनेक सुन्दर भवन भी हैं। दुर्ग की प्राचीर में बनी बुर्जों पर तोपें रखने के चबूतरे बने हुए हैं जिन पर लम्बी दूरी तक मार करने वाली तोपें रखी रहती थीं। शारदा नामक तोप अष्ट धातु से निर्मित बताई जाती है जिसकी मारक क्षमता काफी दूर तक थी। किले की एक बुर्ज को बंदीगृह के रूप में प्रयुक्त किया जाता था।
ई.1301 में जिस समय अल्लाउद्दीन खिलजी ने रणथंभौर दुर्ग पर आक्रमण किया था, उस समय यह दुर्ग रणथंभौर के चौहान शासक हमीर के अधीन था। हम्मीरायण में, हम्मीर के अधीन स्थानों की सूची दी गई है। उसे खण्डाआ (खण्डार) सहित समस्त जादौनवाटी प्रदेश का अधिपति बताया गया है।
रणथंभौर पर खिलजियों का अधिकार होने के साथ ही खण्डार दुर्ग भी खिलजियों के अधीन चला गया। खिलजियों के बाद इस दुर्ग पर तुगलकों का अधिकार रहा। सोलहवीं शताब्दी में जब मेवाड़ में महाराणा सांगा का उदय हुआ तब यह दुर्ग मेवाड़ के गुहिलों के अधीन हो गया।
उन्होंने इस दुर्ग में अनेक निर्माण कार्य करवाये। राणा सांगा ने रणथंभौर दुर्ग के साथ ही खण्डार दुर्ग भी अपनी हाड़ी रानी कर्मवती के पुत्रों विक्रमसिंह तथा उदयसिंह को दिया था।
सांगा की मृत्यु के बाद ई.1533 में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने खण्डार दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1542 में जब शेरशाह सूरी ने मालवा अभियान किया तब उसने खण्डार दुर्ग पर भी विजय प्राप्त की। ई.1569 में जब अकबर ने रणथंभौर पर अभियान किया तब सुरजन हाड़ा ने रणथंभौर दुर्ग के साथ-साथ खण्डार दुर्ग भी अकबर को समर्पित कर दिया।
जब मुगलिया सल्तनत पतन को प्राप्त होने लगी, तब खण्डार का दुर्ग जयपुर के कच्छवाहा राजाओं के अधीन आ गया। महाराजा माधोसिंह (प्रथम) ने पचेवर के सामंत अनूपसिंह खंगारोत को खण्डार दुर्ग का किलेदार नियुक्त किया। कुछ समय बाद मराठों ने रणथंभौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
इस पर अनूपसिंह खंगारोत ने जनकोजी सिंधिया पर आक्रमण करके रणथंभौर दुर्ग छीन लिया तथा रणथंभौर दुर्ग को जयपुर नरेश के सुपुर्द कर दिया। इस पर महाराजा माधवसिंह ने अनूपसिंह को ही रणथंभौर दुर्ग का भी दुर्गपति बना दिया। जयपुर राज्य के राजस्थान में विलय होने तक खण्डार दुर्ग तथा रणथंभौर दुर्ग जयपुर राज्य के अधीन बने रहे। अब ये दोनों ही दुर्ग राजस्थान प्रांत के सवाई माधोपुर जिले में हैं।