Sunday, December 22, 2024
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23. वेशिकोह – दारा शिकोह

हम पहले ही लिख आए हैं कि मुगल शहजादों में उत्तराधिकार का कोई नियम नहीं था। बादशाह के बूढ़ा होते ही मुगल शहजादे एक दूसरे की हत्या करने में जुट जाते थे तथा अंत में जो शहजादा जीवित बचता था, वह मुगल तख्त का अधिकारी होता था। अकबर के समय से मुगल शहजादियों के विवाह की परम्परा समाप्त कर दी गई थी जिसके कारण मुगल शहजादियाँ भी बड़े चाव से इस खूनी खेल को खेलने लगीं। जब शाहजहाँ के दुबारा बीमार पड़ने की सूचना सल्तनत में फैली तो शाहजहाँ के चारों शहजादे अपनी-अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने में जुट गए।

जब औरंगज़ेब ने सुना कि बादशाह ने बादशाह ने सल्तनत के समस्त अमीरों और अहलकारों को आदेश दिया है कि वे केवल दारा शिकोह के आदेश स्वीकार करें तो वह समझ गया कि औरंगज़ेब के लिए लाल किला पाने की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली है तथा शाहजहाँ के इस कदम से लाल किला औरंगज़ेब की पहुँच से बहुत दूर हो गया है। बहिन रौशनआरा द्वारा भेजी गई इस सूचना से औरंगज़ेब परेशान तो हुआ किंतु वह जल्दी से हार माानने वाला नहीं था।

औरंगज़ेब न केवल हिन्दुस्तान की किस्मत का मालिक बनना चाहता था अपितु बड़े भाई दारा शिकोह के कारण मुगलिया राजनीति जिस गलत दिशा में चल पड़ी थी, उस दिशा का मुँह भी मोड़ना चाहता था। औरंगज़ेब की दृष्टि में दारा शिकोह न केवल शातिर और चालाक था अपितु बहुत बड़ा काफिर भी था और इस नाते इस्लाम का अपराधी था। वह न केवल शियाओं को, मुगलिया दरबार में बढ़ावा दे रहा था अपितु हिन्दुओं को भी बहुत जोर-शोर से गले लगा रहा था। इस कारण बहुत से शिया और हिन्दू सरदार मुगल दरबार में बड़ा रुतबा पा गए थे।

औरंगज़ेब इस समय लाल किले से ढाई हजार किलोमीटर दूर दक्षिण के भयानक मोर्चों पर शिया मुसलमानों से जूझ रहा था। यहाँ भी औरंगज़ेब के इरादे दारा शिकोह से मेल नहीं खाते थे। दारा शिकोह केवल यह चाहता था कि दक्षिण के शिया राज्य केवल मुगलों की अधीनता स्वीकार करें तथा करद राज्य बनकर प्रतिवर्ष निर्धारित कर दिया करें किंतु औरंगज़ेब इन शिया राज्यों का उच्छेदन करके उन्हें पूर्णतः नष्ट करना चाहता था। उसकी दृष्टि में शिया भी वैसे ही काफिर थे जैसे कि हिन्दू।

शियाओं के प्रति दारा शिकोह की नीतियों को लेकर भी औरंगज़ेब अपने दोस्तों के सामने में यह कहने में नहीं हिचकिचाता था कि कि लाल किले का असली वारिस केवल और केवल एक सुन्नी ही हो सकता है और वह केवल औरंगज़ेब ही है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन हिन्दुस्तान पर भी फारस की तरह शियाओं का राज्य हो जाएगा। ऐसा कहते हुए औरंगज़ेब एक पल के लिए भी नहीं सोचता था कि उसकी अपनी बेगम दिलरास बानू भी एक शिया है।

औरंगज़ेब महसूस करता था कि शाहजहाँ ने अपने बड़े पुत्र दारा शिकोह को उसी दिन से अपने तीनों शहजादों की तुलना में अधिक महत्व दिया था जिस दिन से शाहजहाँ ने अपने भाइयों और चाचाओं को मार कर मुगलिया तख्त पर अधिकार किया था। अपनी ताजपोशी के दिन शाहजहाँ ने दारा शिकोह को साठ हजार जात एवं चालीस हजार सवार का मनसब दिया था जबकि दूसरे एवं तीसरे नम्बर के पुत्र शाहशुजा एवं औरंगज़ेब को केवल बीस हजार जात एवं पन्द्रह हजार सवार का तथा चौथे शहजादे मुरादबक्श को केवल पन्द्रह हजार जात एवं बारह हजार सवार का मनसब दिया था।

मुगल दरबार में अमीर, उमराव, शहजादे और सूबेदार की अपनी कोई पहचान नहीं थी। उसकी पहचान केवल मनसब के सवारों और जात से होती थी। जिसके पास जितने अधिक सवार और जितनी अधिक जात का मनसब था, वह अमीर, उमराव, शहजादा और सूबेदार उतने ही बड़े कद और इज्जत का मालिक था। औरंगज़ेब को यह पसंद नहीं आया था कि उसका बाप शाहजहाँ, किसी भी शहजादे को औरंगज़ेब से अधिक मनसब प्रदान करे। इसलिए औरंगज़ेब उसी दिन से मन ही मन अपने बड़े भाई दाराशिकोह का दुश्मन हो गया।

जब तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद शाहजहाँ ने दारा शिकोह को अपने पास दिल्ली में रखा और औरंगज़ेब सहित अपने तीनों छोटे शहजादों को पूर्व, पश्चिम और दक्षिण के दूरस्थ मोर्चों पर रवाना कर दिया तब तो औरंगज़ेब बुरी तरह से तिलमिला गया। उसे लगा कि उसके अपने बाप की सल्तनत में उसकी हैसियत दूसरे सूबेदारों से अधिक नहीं है। जबकि दूसरी ओर दारा का रुतबा हर साल बढ़ता रहा। ई.1633 में दारा को वली-ए-अहद अर्थात् युवराज बनाया गया। दारा को ई.1645 में इलाहाबाद का, ई.1647 में लाहौर का और ई.1649 में गुजरात का शासक बनाया गया।

दारा के दुर्भाग्य से ई.1653 में दारा कंधार में एक बड़ी लड़ाई हार गया। इस पराजय से दारा की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का पहुँचा। तीनों छोटे भाइयों और उनकी पक्षधर शहजादियों ने बादशाह को लम्बी-लम्बी चिट्ठियां लिखकर दारा के विरुद्ध खूब जहर उगला किंतु शाहजहाँ पर इन चिट्ठियों का कोई असर नहीं हुआ। वह दारा को तख्ते ताउस के अगले वारिस के रूप में देखता रहा।

ई.1657 में शाहजहाँ के दुबारा बीमार पड़ने की सूचना मिलते ही दक्षिण में नियुक्त औरंगज़ेब और मालवा में नियुक्त मुरादबक्श ने अपने बड़े भाई दारा के विरुद्ध फतवे जारी करवाए तथा उनके आधार पर दारा शिकोह को काफ़ि़र घोषित कर दिया। औरंगज़ेब और मुरादबक्श के इस कदम ने मुगलिया सल्तनत के सुन्नी अमीरों का ध्यान बरबस ही आकर्षित किया। उन्हें मुगलों के अगले वारिस के रूप में दारा के स्थान पर शुरू से ही मुराद तथा औरंगजेब, अधिक अच्छे लगते थे किंतु अब शहजादों के इस कदम ने शहजादों के इरादे शीशे की तरह साफ कर दिए थे।

दारा शिकोह, अपने जन्म के समय से ही कट्टर सुन्नी मुसलमानों की आँखों में खटकता था। क्योंकि शाहजहाँ ने दारा के जन्म के लिए अजमेर जाकर, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के मज़ार पर मन्नत मांगी थी। शाहजहाँ मानता था कि दारा शिकोह का जन्म ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के आशीर्वाद से ही हुआ था। इतना ही नहीं शाहजहाँ, भी मरहूम बादशाह जलालुद्दीन अकबर की तरह अपने बेटे को लेकर, काफिरों की सलेमाबाद पीठ में हाजिर हुआ था।

हालांकि शाहजहाँ ने कट्टर मुसलमानों के दिलों में से अपने बारे में उत्पन्न हुए संदेह को मिटाने के लिए आदेश दिया कि मरहूम बादशाह जहाँगीर के शासन काल में जिन मन्दिरों का निर्माण हुआ था, उन्हें गिरा दिया जाए। इस आदेश पर बनारस में 76 मन्दिरों को तोड़ा गया। शाहजहाँ की आज्ञा से बुन्देलखण्ड के बहुत से हिन्दू मन्दिर तुड़वाये गए और जुझारसिंह के पुत्रों को मुसलमान बनाया गया। शाहजहाँ ने आदेश दिया कि मुस्लिम स्त्री से विवाह करने वाले हिन्दू युवक को अनियार्य रूप से मुसलमान बनना पड़ेगा। इन कार्यों के बाद मुसलमानों के हृदय में शाहजहाँ के बारे में उत्पन्न संदेह तो दूर हो गया किंतु हिन्दू राजा उसकी तरफ से आशंकित हो गए। चालाक शाहजहाँ ने इन राजाओं पर व्यक्तिगत उपकार करके उन्हें अपने पक्ष में कर लिया।

इसके बाद कट्टर मुल्ला-मौलवी शाहजहाँ को भूलकर दारा के प्रति संदेह रखने लगे। हालांकि दारा नियमित रूप से पांचों वक्त की नमाज पढ़ता था किंतु उसका झुकाव सूफियों की ओर अधिक था। दारा शिकोह अपनी साधारण जीवन शैली के कारण, शहजादा कम और फ़क़ीर अधिक दिखता था। जीवन की शुरुआत में उसकी रुचि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के कादरिया सम्प्रदाय में हुई बाद में वह अपने परदादा अकबर की तरह दुनिया के सभी धर्मों की वास्तविकता का पता लगाने की ओर अगसर हुआ।

इसलिए दारा ने सूफियों तथा हिन्दू विद्वानों से भी उतना ही निकट सम्पर्क रखा जितना कि वह मुसलमान उलेमाओं और दरवेशों से रखता था किंतु बाद में जब वह हिन्दू धर्म की बहुत सी बातों को समझने लगा तो उसने सूफियों से भी दूरी बना ली और दिन पर दिन हिन्दू धर्म में अनुरक्त होता चला गया।

दारा अपने समय का प्रतिभाशाली लेखक था। उसने कई किताबें लिखी थीं जिनमें सूफी संतों के जीवन चरित्र पर लिखी गई उसकी दो पुस्तकें- ‘सफ़ीनात अल औलिया’ और ‘सकीनात अल औलिया’ अधिक प्रसिद्ध हैं। उसकी लिखी पुस्तकों- ‘रिसाला ए हकनुमा’ और ‘तारीकात ए हकीकत’ में भी सूफीवाद का दार्शनिक विवेचन किया गया। दारा के कविता संग्रह ‘अक्सीर ए आज़म’ से सभी धर्मों के प्रति उसके आदर भाव का बोध होता था। ‘हसनात अल आरिफीन’ और ‘मुकालम ए बाबालाल ओ दाराशिकोह’ नामक ग्रंथों में उसने धर्म और वैराग्य का विवेचन किया।

आगे चलकर जब दारा ने ‘मजमा अल बहरेन’ नामक ग्रंथ लिखा तो उसकी चर्चा भारत से बाहर के देशों में भी हुई। इस ग्रंथ में दारा ने  हिन्दुओं के वेदान्त और मुसलमानों के सूफीवाद के शास्त्रीय सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। उसने हिन्दुओं के 52 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करके ‘सीर-ए-अकबर’ अर्थात् ‘सबसे बड़ा रहस्य’ नामक ग्रंथ तैयार किया।

इन ग्रंथों के कारण दारा शिकोह, कट्टर उलेमाओं और मौलवियों के निशाने पर आ गया। यद्यपि वली-ए-अहद होने के कारण कोई उलेमा या मौलवी, दारा के मुँह पर तो कुछ नहीं कह पाता था किंतु ये लोग दारा तथा उसके समर्थकों की पीठ के पीछे, उसे काफिर कहने में संकोच नहीं करते थे।

दारा की विभिन्न कृतियों से ज्ञात होता था कि दारा, हिंदू दर्शन और पुराणों से बहुत प्रभावित था। ईश्वर का वैश्विक पक्ष, द्रव्य में आत्मा का अवतरण और निर्माण तथा संहार का चक्र जैसे सिद्धांतों के मामले में तो वह हिन्दू धर्म के एकदम निकट ठहरता था। दारा का विश्वास था कि वेदांत और इस्लाम में सत्यान्वेषण के सम्बन्ध में केवल शाब्दिक अंतर है।

‘मज्म उल बहरैन’ नामक ग्रंथ में दारा शिकोह ने वेदांत तथा सूफिज्म का तुलनात्मक अध्ययन करके इस्लामिक जगत में खलबली मचा दी थी। इस ग्रंथ ने सूफ़िज्म ओर वेदांत दर्शन में मौजूद अनके समानताओं का रहस्योद्घाटन किया गया था। यह पुस्तक ई.1654-55 में एक संक्षिप्त ग्रंथ के रूप में फारसी भाषा में लिखी गई थी। इसका हिन्दी संस्करण भी तैयार करवाया गया जिसे ‘समुद्र संगम ग्रंथ’ कहा जाता था।

जब दारा शिकोह ने घोषित किया कि जिस प्रकार कुरान में एक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, उसी प्रकार वेदों में एक ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गई है, इसलिए इन दोनों धर्मों में कोई अंतर नहीं है तो सारे मुल्ला, मौलवी, उलेमा और नजूमी, दारा के दुश्मन हो गए। वे काफिरों की पुस्तकों की तुलना कुरान शरीफ से होते हुए नहीं देख सकते थे।

कुछ कट्टर आलोचकों ने लिखा है कि कई बार दारा शिकोह, रामनामी ओढ़कर सार्वजनिक स्थलों पर दिखाई देता था। उसने अपनी शाही मुहर में भी राम नाम अंकित करवा लिया था। दारा के ये लक्षण देखकर मुल्ला-मौलवी कांप उठते थे। स्वयं को इस्लाम के ठेकेदार समझने वाले मुल्लाओं को डर था कि यदि आम मुसलमान ने दारा की बातों को स्वीकार कर लिया तो भारत में इस्लाम का प्रचार रुक जाएगा।

मुहम्मद काजिम नामक एक लेखक ने अपने ग्रंथ ‘आलमगीरनामा’ में  दारा शिकोह को ‘वेशिकोह’ अर्थात् बिना इज्जत वाला लिखा तथा उसने अपना ग्रंथ औरंगज़ेब को भेंट किया। मुहम्मद काजिम को उम्मीद थी कि औरंगज़ेब उसे शाबासी देगा किंतु औरंगज़ेब ने वह पुस्तक उठाकर फैंक दी क्योंकि उसमें दारा के प्रति वैसा जहर नहीं उगला गया था जैसा कि औरंगज़ेब देखना चाहता था।

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