जोधपुर की ख्यातों में वर्णन आया है कि मालवा और गुजरात की तरफ का दबाव कम होते ही महाराणा कुम्भा ने जोधा के विरुद्ध अभियान किया। वह बड़ी सेना के साथ मारवाड़ आया और पाली में आकर ठहरा। इधर से जोधा भी लड़ने को चला परन्तु उसके पास पर्याप्त घोड़े नहीं थे। इस कारण जोधा ने 5,000 बैलगाड़ियों में 20,000 राठौड़़ सैनिकों को बैठाया और उन्हें लेकर पाली की ओर अग्रसर हुआ। महाराणा कुम्भा, राव जोधा के नक्कारों की आवाज सुनते ही अपने सैन्य सहित बिना लड़े ही भाग गया। कुछ ख्यातों में लिखा है कि जब कुम्भा ने यह सुना कि जोधा अपने सैनिकों को बैलगाड़ियों में ला रहा है तो उसने अपने सरदारों से विचार विमर्श किया कि राठौड़ घोड़ों की बजाय बैलगाड़ियों पर आ रहे हैं क्योंकि वे युद्ध क्षेत्र से जीवित नहीं लौटना चाहते। अतः उनसे लड़ने में मेवाड़ के सैनिकों का भयानक संहार होगा। इसलिये कुम्भा अपनी सेना लेकर मेवाड़ की तरफ रवाना हो गया।
चित्तौड़ पर आक्रमण
कई ख्यातों में यह भी लिखा है कि जोधा ने मेवाड़ पर धावा करके चित्तौड़ दुर्ग के किवाड़ जला दिये तथा जिस महल में राव रणमल की हत्या हुई थी, वहाँ पहुंचकर जोधा ने रणमल को नमन किया। जोधा के समकालीन कवि गाडण पसाइत ने अपनी रचना गुण जोधायण में लिखा है-
बलो प्रबत लंघीयो चडे पाषरीये घोड़े।
जाए दीना घाव, कोट चीत्रोड़ किमाड़े।
बोल ढोल बोलीयो, च्यार श्रमणे उत सुंणिया।
कूंभनेर नारीयां ग्रभ पेटा हूं छणिया।
चीतोड़ तणे चूण्डाहरा किमांणे पराजालीये।
जोहार जाय जोधे कियो, राव रिणमल मालीये।।
सेठ पद्चंद का अपहरण
इसके बाद जोधा, मेवाड़ के गांवों को लूटता हुआ पीछोला झील तक पहुंचा। रामचंद ढाढी ने अपनी रचना निसाणी में लिखा है- ‘जोधे जंगम आपरा पीछोले पाया।’ नैणसी ने लिखा है- ‘पछै मेवाड़ मारने पीछोलै घोड़ा पाया।’ जोधा, मेवाड़ के प्रसिद्ध सेठ पद्मचंद को पकड़ कर ले आया। इस सम्बन्ध में एक प्राचीन छप्पय कहा जाता है- ‘पद्मचंद सेठ लायौ पकड़ दाह मेवाड़ां उरदयौ।’ इस सेठ ने खैरवा पहुचंने पर जोधा को बहुत सा धन देकर बंधन से मुक्ति पाई। इसी धन से जोधपुर का दुर्ग बनवाया गया तथा सेठ की स्मृति में दुर्ग की तलहटी में पद्मसर तालाब बनवाया गया।
ख्यातकारों की अतिरंजना
ख्यातों में आये अतिरंजित विवरणों के घटाटोप से सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। ख्यातकारों ने तथ्यों एवं परिस्थितियों की जांच किये बिना, अपने-अपने पक्ष के राजा की वीरता का वर्णन किया है। यह कैसे सम्भव है कि जो कुम्भा गुजरात और मालवा से टक्कर ले रहा था और जिसका राज्य दूर-दूर तक फैल गया था, वह कुम्भा उस जोधा से बिना लड़े ही डरकर भाग गया जिसके पास पर्याप्त घुड़सवार भी नहीं थे और जो अपनी सेना बैलगाड़ियों में बैठाकर लाया था। कुछ ख्यातों के अनुसार जोधा ने चित्तौड़ पर आक्रमण करके दुर्ग के द्वार जलाये उसके बाद महाराणा ने जोधा पर आक्रमण किया।
सत्यता क्या है ?
यह संभव है कि जोधा किसी समय अचानक चित्तौड़ पहुंचकर दुर्ग के द्वार जला दे। यह भी संभव है कि कुम्भा के चित्तौड़ में उपस्थित न होने की स्थिति में जोधा चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश करके रणमल के महल तक भी पहुंच जाये किंतु यह संभव नहीं है कि कुम्भा के नेतृत्व में लड़ने के उद्देश्य से आई मेवाड़ी सेना, भयभीत होकर बिना लड़े भाग जाये। अधिक संभावना इस बात की है कि जब जोधा मेवाड़ की सीमा में धावे मारने लगा तो महाराणा कुम्भा ने जोधा पर आक्रमण किया किंतु महाराणा, मारवाड़ से न तो बैर बढ़ाना चाहता था, न जोधा से राज्य वापस छीनना चाहता था और न स्वयं ही पराजय का कलंक लेना चाहता था। इसलिये संभव है कि कुम्भा ने युद्ध के स्थान पर संधि का मार्ग अपनाया। यह भी पर्याप्त संभव है कि कुम्भा ने अपनी दादी हंसाबाई को दिये हुए वचन का मान रखने के लिये संधि की नीति अपनाई हो किंतु युद्ध के मैदान में कुम्भा द्वारा युद्ध की बजाय संधि का मार्ग अपनाने के पीछे कुम्भा की दूरगामी राजनीति स्पष्ट दिखाई देती है।
कुम्भा के राजनीतिक उद्देश्य
कुम्भा एक परिपक्व राजनीतिज्ञ था। दिल्ली सल्तनत के बिखराव के बाद गुजरात, मालवा, दिल्ली, नागौर, सांभर, अजमेर सहित चारों ओर छोटे-बड़े मुसलमान अमीरों ने अपने राज्य स्थापित कर लिये थे और वे अपनी सीमाओं पर स्थित हिन्दू राज्यों को नष्ट करके अपने राज्यों का विस्तार कर रहे थे। कुम्भा चाहता था कि गंगा-यमुना के मैदानों एवं उनसे लगते हुए सम्पूर्ण क्षेत्र को स्वदेशी शासन व्यवस्था के नीचे लाया जाये। इसलिये वह सम्पूर्ण उत्तरी भारत में मुसलमान राज्यों का उच्छेदन करके, विशाल हिन्दू राज्य की स्थापना का अभियान चलाये हुए था। ऐसी स्थिति में मण्डोर के हिन्दू राज्य को नष्ट करने में उसे कोई अच्छाई दिखाई नहीं दे सकती थी। जोधा की तरफ से लगातार हो रहे धावों तथा मालवा और गुजरात के नियमित आक्रमणों ने कुम्भा को अनुभव करा दिया था कि जोधा के साथ समझौता कर लेने में ही मेवाड़ का भला था। यही कारण था कि पाली के निकट महाराणा ने जोधा का विशेष प्रतिरोध नहीं किया तथा दोनों पक्ष संधि करने को प्रस्तुत हो गये।
मेवाड़ और मारवाड़ की सीमाओं का निर्धारण
महाराणा कुम्भा ने अपने पुत्र उदयसिंह (ऊदा) तथा नापा सांखला को जोधा के शिविर में भेजा। दोनों पक्षों में बहुत सी कहा-सुनी होने के बाद संधि की शर्तें निश्चित हुईं। मण्डोर पर अधिकार कर लेने के बाद से जोधा लगातार मेवाड़ राज्य में लूट मचा रहा था। इसलिये इस संधि में मेवाड़ तथा मारवाड़ राज्यों के बीच, सोजत के निकट आंवळ-बांवळ की सीमा निर्धारित की गई। जिस भूमि में तरवड़ (आँवळ-आँवळ) वनस्पति होती थी, वह मेवाड़ में रही तथा जिस भूमि में बबूल पैदा होती थी, वह मारवाड़ में रही। अर्थात् सम्पूर्ण पर्वतीय प्रदेश मेवाड़ में एवं सम्पूर्ण मरुस्थलीय प्रदेश मारवाड़ में रखा गया। यह एक व्यावहारिक एवं युक्ति-युक्त निर्धारण था।
जोधा की राजकुमारी का विवाह
मारवाड़ और मेवाड़ की संधि के अवसर पर जोधा ने अपनी पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल के साथ किया ताकि इस मैत्री को स्थाई बनाया जा सके। राजपूतों में शत्रुता समाप्त करने के लिये इस तरह के विवाहों की परम्परा थी। शृंगार देवी ने चित्तौड़ से लगभग 12 मील उत्तर में स्थित घोसुंडी गांव में वि.सं. 1561 (1504 ई.) में एक बावली बनवाई थी, जिसकी संस्कृत प्रशस्ति में, शृंगार देवी का जोधा की पुत्री होने तथा रायमल के साथ विवाह होने आदि का विस्तृत वृत्तान्त है। न तो मारवाड़ के किसी ख्यातकार ने और न मेवाड़ के किसी ख्यातकार ने जोधा की इस राजकुमारी का उल्लेख किया है। यदि घोसुण्डी का शिलालेख नहीं मिला होता तो इस महीयसी राजकुमारी का इतिहास सदा के लिये नेपथ्य में चला गया होता। शृंगार देवी का शिलालेख इस बात का साक्ष्य है कि यह राजकुमारी अत्यंत विदुषी, प्रतिभा सम्पन्न एवं प्रभावशाली थी। अतः निश्चित है कि उसने मेवाड़ के महलों में रहकर मेवाड़ और मारवाड़ के बीच मित्रता की ज्योति को दीर्घ काल तक प्रदीप्त रखा होगा।
मारवाड़-मेवाड़ मैत्री का परिणाम
मारवाड़-मेवाड़ मैत्री के दूरगामी परिणाम हुए। इस संधि के बाद मेवाड़ ने अपने राज्य के दक्षिण की ओर तथा मारवाड़ ने अपने राज्य के उत्तर की ओर विजय अभियान किये। इन अभियानों में दोनों ही राज्यों को उल्लेखनीय सफलताएं मिलीं। मारवाड़ राज्य का विजय अभियान हिसार की सीमा पर जाकर रुक गया। इस संधि के बाद मेवाड़ के महाराणा जो कि पहले से ही अजेय समझे जाते थे, अब राजपूताना के दूसरे शासकों के लिये भी सम्माननीय बन गये। राजपूताना के समस्त राजाओं में उनका स्थान सर्वप्रथम माना जाने लगा।
जोधा का राज्याभिषेक
कुम्भा से संधि हो जाने के बाद जोधा सर्वमान्य राजा हो गया। अब वह पूरे आत्म-विश्वास से शासन कर सकता था। सोजत से जोधा ने एक सेना सींधल राठौड़ों पर कार्यवाही करने भेजी और स्वयं मण्डोर की ओर रवाना हो गया। जोधा की सेना ने सींधलों से पाली परगने के 30 गांव छीन लिये। जोधा ने मण्डोर पहुंचकर 1458 ई. में शास्त्र सम्मत विधि से अपना राज्याभिषेक करवाया। इस अवसर पर उन सब लोगों को पुरस्कार, दान एवं भेंट आदि दी गईं जिन्होंने विपत्ति में जोधा का साथ दिया था। इस अवसर पर मण्डोर के पास जोधेलाव नामक तालाब बनवाया गया।