सवाई जयसिंह के कंधों पर जिस काल में उत्तर भारत की राजनीति को दिशा देने की जिम्मेदारी आई उस समय पूरा देश औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त था। औरंगजेब द्वारा दक्षिण के मोर्चे पर व्यतीत किये गये 25 सालों में देश की विपुल सम्पदा नष्ट हो गई और लाखों युवक मर गये। कृषि बर्बाद हो गई। कुटीर उद्योगों को कच्चा माल मिलना बंद हो गया। रास्ते असुरक्षित हो जाने से वाणिज्य-व्यापार ठप्प पड़ गया। शिल्पकला, स्थापत्य, चित्रकला जैसी महत्त्वपूर्ण गतिविधियां बंद हो गई। गवैयों, नर्तकों और विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन करके पेट भरने वाले कलाकारों का काम बंद हो गया। पूरा देश भुखमरी, निर्धनता और बेरोजगारी से त्राहि-त्राहि कर रहा था, औरंगजेब के बाद देश मुगल दरबार में चलने वाले षड्यंत्रों की चपेट में आ गया। मदमत्त मराठों को सिर उठाने का अवसर मिल गया और वे उत्तर भारत के हरे-भरे मैदानों को उजाड़ने पर उतारू हो गये। नादिरशाह जैसे खूंख्वार आक्रांता दिल्ली में आकर कत्ले आम मचाते थे। मुगल सूबेदारों ने स्थान-स्थान पर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने आरम्भ कर दिये थे। ऐसी भयानक परिस्थितियों में हिन्दू प्रजा दीन-हीन और असहाय जीवन जी रही थी।
प्रजा को आजीविका के साधन
उस काल में राजपूतों, जाटों और मराठों के लड़के बड़ी संख्या में युद्धों के मैदानों में मारे जा रहे थे तो दूसरी जातियों के लिये जीवन यापन के साधन इससे भी अधिक सीमित हो गये थे। ऐसे कठिन समय में जयसिंह ने प्रजा को आजीविका उपलब्ध करवाने के लिये राजप्रासादों, देवालयों, धर्मशालाओं, वेधशालाओं, जयपुर नगर तथा कुछ नहरों का निर्माण करवाया। इन कार्यों से लाखों लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ।
प्रजा को जजिया से मुक्ति
औरंगजेब ने हिन्दू प्रजा पर जजिया कर लगाया था। इससे बचने के लिये लाखों हिन्दू अपना धर्म त्यागकर मुसलमान बन गये। 1713 ई. में जब फर्रूखसीयर बादशाह बना तो राजा जयसिंह से उससे कहकर जजिया को बंद करवाया किंतु 1717 ई. में दीवान इनायत उल्ला के कहने पर जजिया फिर से चालू कर दिया गया। 1720 ई. में जयसिंह ने बादशाह मुहम्मदशाह से प्रार्थना की कि जजिया बंद कर दिया जाये। मुहम्मदशाह ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया तथा जजिया फिर से बंद हो गया।
प्रजा को अन्य करों से राहत
1728 ई. में महाराजा जयसिंह ने गया के तीर्थ यात्रियों से लिया जाने वाला कर समाप्त करवाया। 4 जून 1721 को उसने एक आदेश जारी करवाकर महंतों, सन्यासियों और बैरागी फकीरों आदि के द्वारा बनवाये गये धार्मिक स्थानों को उनकी मृत्यु के बाद जब्त कर लेने की प्रथा को समाप्त करवाया। इन सब कार्यों से पूरे देश में राजा महाराजा जयसिंह की बहुत प्रशंसा हुई।
जयसिंह की धार्मिक वृत्ति
जयसिंह धार्मिक वृत्ति का राजा था। वह वैष्णवों के सुप्रसिद्ध निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ। इस कारण उसने संस्कृत के पठन-पाठन पर विशेष ध्यान दिया। वह समय-समय पर गंगा स्नान के लिये जाता रहता था तथा चौरासी कोस की परिक्रमा करता था। युद्ध के मैदान में वह सीतारामजी की प्रतिमा अपने साथ रखता था। कलकत्ता गजट में प्रकाशित एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि जयपुर, हिन्दू शास्त्रों के अध्ययन का केन्द्र स्थल है। यहीं से कर्नल नोलियर ने वेदों की प्रतियां प्राप्त करके ब्रिटिश संग्रहालय को भेंट की थीं। जयसिंह के जीवन काल में ही जयपुर को छोटी काशी कहा जाने लगा था।
धार्मिक सहिष्णुता
जयपुर का राजवंश वैष्णव धर्म का अनुयायी था। जयसिंह ने भी हिन्दू धर्म के विद्वानों, पण्डितों और ज्योतिषियों के लिये ब्रह्मपुरी बसाया किंतु धार्मिक सहिष्णुता दिखाते हुए उसने जयपुर में दो चौकड़ियां- मोदीखाना एवं घाट दरवाजा, विशेष रूप से जैनों को बसने के लिये प्रदान कीं। सवाई जयसिंह के जीवन काल में जयपुर नगर में एक सौ के लगभग जैन मंदिर बने। सवाई जयसिंह ने जैन धर्मावलम्बी रामचन्द छबड़ा को अपना दीवान नियुक्त किया। इस दीवान को ढूंढाड़ की ढाल कहा जाता था। जयसिंह ने जैन धर्मावलम्बी राव कृपाराम को अपना दरबारी रत्न बनाया तथा उसे दिल्ली दरबार में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। जैन धर्मावलम्बी दौलतराम कासलीवाल भी महाराजा का विश्वस्त व्यक्ति था। उसे जोधपुर महाराजा अभयसिंह के पास महाराजा ने अपने प्रतिनिधि के रूप में मथुरा भेजा। कर्नल टॉड ने लिखा है कि राजा जयसिंह जैन धर्म के लोगों को सम्मान देता था तथा उसे स्वयं भी जैन धर्म के सिद्धांतों का ज्ञान था।
समाज सुधार के कार्य
सवाई जयसिंह प्रगतिशील एवं समाज सुधारक राजा था। यज्ञों के अवसर पर उसने सभी ब्राह्मणों को एक साथ भोजन करने हेतु सहमत कर लिया ताकि ब्राह्मणों में भेदभाव की भावना को कम किया जा सके। उसने समाज में अन्तर्जातीय विवाह प्रारम्भ करने के भरसक प्रयास किये ताकि सामाजिक मतभेद दूर किये जा सकें। उसने साधु-संन्यासियों को नियमित जीवन व्यतीत करने तथा विवाह करने के लिये प्रोत्साहित किया गया और उन्हें मथुरा के पास एक गाँव में बसाया गया। ऐसा करने में उसका उद्देश्य साधुओं में व्याप्त व्यभिचार के दोष का निवारण करना था। उसने विवाह के अवसर पर फिजूलखर्ची बन्द करने और विशेषकर राजपूतों में विवाह के समय अपव्यय करने की प्रथा पर रोक लगवायी। जयपुर नगर में पानी की प्रचुरता के लिए हरमाडे से नहर की व्यवस्था की। वह सती प्रथा का विरोधी और विधवा विवाह का समर्थक था। उसने अपनी प्रजा को सती प्रथा रोकने एवं विधवा विवाह अपनाने के लिये प्रेरित किया।