जिस समय जोधपुर से निष्कासित महाराजा रामसिंह को महाराजाधिराज बखतसिंह के निधन का समाचार मिला, उस समय वह मंदसौर में था। उसके भाग्य से उन्हीं दिनों पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने छोटे भाई रघुनाथ राव, जयप्पा सिंधिया तथा मल्हारराव होलकर को उत्तर भारत की रियासतों से चौथ वसूली के लिये भेजा। रामसिंह ने इस सुनहरे अवसर को पहचाना और मल्हारराव होलकर से सम्पर्क साधा ताकि होलकर उसे फिर से जोधपुर के तख्त पर बैठा दे। होलकर ने यह कार्य जयप्पा सिंधिया को सौंपा।
जयप्पा अपने छोटे भाई दत्ताजी सिन्धिया के साथ दिल्ली से नारनौल, रेवाड़ी, सांभर होता हुआ अजमेर की ओर बढ़ा। अजमेर उन दिनों जोधपुर के राठौड़ों के अधिकार में था।
रामसिंह, जयप्पा सिन्धिया के साथ लगा हुआ था। उसने मार्ग में किशनगढ़ तथा आसपास के परगनों को लूट लिया। कुछ दिन अजमेर में विश्राम करके ये सेनाएँ पुष्कर आ गईं। यहाँ से रामसिंह ने अपने एक दूत को तीव्रगामी अश्व देकर महाराजा विजयसिंह के पास भिजवाया।
दूत ने राठौड़ों की सबसे बड़ी राजधानी जोधपुर में आकर महाराजा विजयसिंह को अपने आने की सूचना भिजवाई तथा भेंट करने की अनुमति मांगी। मरुधरानाथ उस समय अपने दरबार में बैठा हुआ, अपने मंत्रियों से मराठों और अपदस्थ महाराजा रामसिंह की गतिविधियों के बारे में विचार विमर्श कर रहा था। उसने दूत को दरबार में ही बुला लिया।
-‘महाराज को सेवक का प्रणाम ज्ञात हो।’ दूत ने मरुधरानाथ को मुजरा किया।
-‘कहो! हमारे भाई रामसिंहजी ने क्या कहलवाया है?’
-‘महाराज! उन्होंने कहलवाया है कि हमारे पिता महाराजा अभयसिंह ने आपके पिता राजाधिराज बखतसिंह को नागौर का शासन दिया था। जब तक हमारे पिता महाराजा अभयसिंह जीवित रहे आपके पिता नागौर पर शासन करते रहे। जब महाराजा अभयसिंह का स्वर्गवास हुआ तो उनके ज्येष्ठ पुत्र होने के अधिकार से हम जोधपुर के राजंिसंहासन पर बैठे। आपके पिता राजाधिराज बखतसिंह ने छलपूर्वक जोधपुर पर अधिकार कर लिया। वे हमारे चाचा थे, हमने उन्हें सहन कर लिया। आप हमारे चाचा नहीं हैं, इसलिये हम आपको जोधपुर की गद्दी पर सहन नहीं करेंगे। अतः आपका कर्त्तव्य है कि आप इसी समय जोधपुर खाली करके अपने पिता बखतसिंह की राजधानी नागौर को लौट जायें। जोधपुर के राजसिंहासन पर हमारा ही अधिकार है।’
दूत का संवाद सुनकर मरुधरानाथ का चेहरा तमतमा गया फिर भी वह वाणी में संयम बरतते हुए मृदुल शब्दों का उपयोग करते हुए बोला- ‘मारवाड़ में परम्परा रही है कि राजसिंहासन पर वही राजकुमार बैठेगा जिसे राठौड़ सरदार मिलकर राजा बनायेंगे। राठौड़ सरदारों ने हमें अपना राजा माना है, इसलिये हम ही जोधपुर के राजसिंहासन के वास्तविक अधिकारी हैं। तुम अपने स्वामी के पास जाकर हमारा संदेश दो कि वीर पुरुष वसुंधरा का भोग करते हैं, उसके जैसे कायर और भगोड़े नहीं।’
-‘महाराज! घर की लड़ाई में सब कुछ स्वाहा हो जायेगा।’
-‘यह तुम कह रहे हो या तुम्हारे स्वामी ने कहलवाया है?’
-‘यह मेरे स्वामी के मन की भावना है।’ दूत ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।
-‘तो अपने स्वामी को जाकर कहो कि उसकी भावना ठीक है इसलिये घर में लड़ाई न फैलाये। स्वयं भी जयपुर में चैन से बैठा रहे और हमें भी चैन से शासन करने दे।’ मरुधरानाथ ने तमककर उत्तर दिया।
मरुधरानाथ के इस उत्तर को सुनकर दूत हैरान रह गया। वह आगे कुछ नहीं बोल सका।
-‘तुम्हारे स्वामी ने और भी कुछ कहलवाया है?’ दूत को चुप खड़े देखकर मरुधरानाथ ने फिर प्रश्न किया।
-‘महाराज! दूत को अभयदान दिया जाये तो कुछ निवेदन करूँ।’
-‘निर्भय होकर कहो।’
-‘मेरे स्वामी ने मुझे कहा था कि यदि आप जोधपुर छोड़ने के लिये सहमत नहीं हों तो मैं आपसे उनका अंतिम संदेश कहूँ।’
-‘दूत! तुम्हें अपने स्वामी का अंतिम संदेश सबसे पहले सुनाना था, कहो।’ मरुधरानाथ ने हँसकर कहा।
-‘मेरे स्वामी ने कहा है कि इस बार मैं अकेला नहीं आ रहा हूँ, मराठों को साथ ला रहा हूँ इसलिये तुम इसी समय राजसिंहासन छोड़कर अपने प्राणों की रक्षा करो, अन्यथा तुम्हारी कुशल नहीं है।’
दूत की यह बात सुनकर मरुधरानाथ ने दरबार में बैठे अपने सरदारों, सामंतों, ठाकुरों, मुत्सद्दियों और मंत्रियों की ओर देखा।
-‘बापजी! रामसिंहजी से कहिये कि हम लोग युद्ध के लिये तैयार हैं। हमें मराठों का कोई भय नहीं है।’ राठौड़ सरदारों ने क्रोधित होकर कहा।
-‘मैं समझता हूँ कि ठाकर लोग ठीक कह रहे हैं। तुम यह बात हमारी ओर से जाकर हमारे भाई रामसिंह से कहो कि वह मराठों को लेकर शीघ्र ही मेड़ता पहुँचे। हम उसका वहीं स्वागत करेंगे।’ मरुधरानाथ ने दूत को अंतिम उत्तर दिया।