मराठों का कर समाप्त होने में ही नहीं आता था। राज्य का सारा कोष चुक गया। राजा के महल की कीमती चीजें मराठों के पेट में चली गईं। ऊँट, घोड़े और हाथी मराठे ले गये। अधिक आय के परगने सांभर और अजमेर मराठों ने छीन लिये। एक बार फिर राज्य की वही दशा हो गई जो काकड़की युद्ध के पश्चात हुई थी। तब गढ़ में सांध्यकालीन दरबार के लिये दिये जलाने को तेल नहीं बचा था किंतु तब धायभाई जगन्नाथ जीवित था। उसीने सब कुछ संभाल लिया था। उसी ने फिर से सेना खड़ी करके राज्य को भी खड़ा कर दिया था। तब राजा के हाथ-पैरों में भी जान थी किंतु अब न तो धायभाई जगन्नाथ जीवित था, न राजा के हाथ पैरांे में जान बची थी। राजा के पुराने साथियों में से जो जीवित बचे थे वे भी बूढ़े हो चले थे और हताश तथा निराश थे।
भीमराज सिंघवी डांगावास का युद्ध हारने के बाद दरबार में कम ही आता था। गोरधन खीची सलाह तो देता था किंतु राजा हर सलाह के बाद गुलाब की ओर देखकर मौन हो जाता था। आठांे मिसलों के ठाकुर भी अब डांगावास की पराजय के बाद राज्य को फिर से खड़ा करने के लिये कोई उपाय नहीं सोच पाते थे।
जब राज्यकोष रीत गया तो पासवान ने मुत्सद्दियों से कहा कि कर बढ़ाया जाये और कर की वसूली सख्ती से की जाये। जब मुत्सद्दियों ने जागीरदारांे पर कर बढ़ाये और कर की वसूली के लिये सख्ती करनी आरंभ की तो राठौड़ जागीरदारों तथा ठाकुरों ने मुत्सद्दियों पर व्यंग्य कसे कि पहले ही मुत्सद्दियों ने पासवान की जी हुजूरी करके राज्य का भट्टा बैठा दिया है, अब और क्या करने का विचार है! जब मुत्सद्दी कर की वसूली नहीं कर पाये तो पासवान ने मुत्सद्दियों को गंदी गालियाँ दीं कि हराम की रोटी खा-खाकर हरामखोर हो गये हो इसी कारण तुमसे कर की वसूली नहीं होती।
पासवान द्वारा किये जा रहे दुर्व्यवहार के कारण राज्य के मुत्सद्दी और ठाकुर एक-एक करके उसके विरोधी होने लगे। गोवर्धन खीची, भीमराज सिंघवी और ठाकुर महेशदास कूंपावत का पुत्र रतनसिंह कंूपावत पहले से ही पासवान के विरोधी थे, अब उनका विरोध मुखर होने लगा। पोकरण का ठाकुर सवाईसिंह चाम्पावत भी इन लोगों से मिल गया। उनके विपरीत राज्य का दीवान भवानीदास भण्डारी, सेठ अणदाराम भूरट तथा गुलाब के बाग का मुख्य आरक्षी भैरजी सारणी पासवान के कट्टर समर्थन में आ गये। इससे दरबार दो दलों में विभक्त हो गया। दोनों एक दूसरे पर घात-प्रतिघात करने लगे। मरुधरानाथ अपने दरबार के इस बदले हुए रूप को देखकर हैरान था किंतु बोलता कुछ नहीं था। उसकी समझ में कुछ नहीं आता था कि किससे क्या कहे!
एक तरफ मारवाड़ के वे मुत्सद्दी और सरदार थे जिन्होंने अपने मोटे माथे मारवाड़ के लिये समर्पित कर रखे थे तो दूसरी ओर गुलाब की पांखुरियों की तरह सुकोमल पासवान थी जिसे उसने अपनी महारानी का दर्जा दे रखा था। कई बार वह गुलाब के चेहरे की ओर देखकर कुछ अनुमान लगाने का प्रयास करता किंतु तब उसके कानों में साधु आत्माराम के शब्द गूंजने लगते थे-‘भगवान अपनी एक भक्त को भेजेंगे आपके पास……उसे पहचान लेना राजन्। ठुकराना मत……..स्वीकार कर लेना। कोई कहे तब भी मत ठुकराना। जब आपको मेरी आवश्यकता अनुभव हो तो आप उससे पूछ लेना……..भूलकर भी उसका दिल मत दुखाना किंतु विधि का विधान कुछ ऐसा है कि जिस दिन से वह भगतन आपके पास आयेगी, उसी दिन से आपको जीवन भर किसी न किसी समस्या से जूझते रहना होगा किंतु आज के बाद हर संघर्ष में विजय आपकी होगी।’
जैसे ही मरुधरानाथ को साधु आत्माराम के शब्द याद आते, उसका मन विश्वास से भर उठता कि अंत में एक दिन सब ठीक हो जायेगा। यही सोच कर वह किसी से कुछ नहीं कह पाता था।
जब महाराज मराठों को संधि की शर्तों के अनुसार रुपया नहीं दे सका और मुत्सद्दी जागीरदारों से बढ़ा हुआ कर वसूल कर नहीं ला सके तो गुलाबराय ने एक योजना बनाई। एक दिन भरे दरबार में उसने अपनी योजना मरुधरानाथ के समक्ष रखी-‘घणीखम्मा अन्नदाता! आपके राज्य में हम दो व्यक्ति आपके सबसे बड़े हितैषी हैं। आप इस बात को जानते हैं और कहते भी आये हैं।’
पासवान के इस तरह बात आरंभ करने से मुत्सद्दियों और ठाकुरों के कान खड़े हो गये। वह जब भी कोई बात भूमिका के साथ आरंभ करती थी तो उसके परिणाम अवश्य ही भयंकर निकलते थे। महाराजा ने भी दृष्टि उठाकर गुलाब की ओर देखा।
-‘एक तो मैं और दूसरे आपके मित्र गोरधन खीची…..।’ गुलाब ने बात आगे बढ़ाई।
गुलाब के मुँह पर अपना नाम देखकर खीची के हृदय की धड़कनें बढ़ गईं, जाने आज क्या होने को है! खीची ने अपने इष्ट का स्मरण किया।
-‘अन्नदाता! इस समय राज को साठ लाख रुपयों की आवश्यकता है ताकि मराठों को चुकाये जा सकें। मेरी अर्ज ये है कि इसमें से आधी रकम जमा करने का जिम्मा मुझे सौंपा जाये तथा आधी रकम एकत्रित करने की जिम्मेदारी गोरधन खीची पर रहे।’ गुलाब ने मुस्कुराकर अपनी बात पूरी की।
वृद्ध गोरधन खीची के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। यह कैसा प्रस्ताव है! आज लोगों के पास अपने पशुओं को नीरने के लिये चारा तक नहीं है और यह औरत तीस लाख रुपये जमा करने की जिम्मेदारी इस बूढ़े कंधों पर रखना चाहती है!
-‘अन्नदाता! हममें से जो भी व्यक्ति इस रकम को जमा करवा दे, वही आपका सच्चा चाकर माना जाये और जो इस काम को न करे, उसे अन्नदाता अपने हाथों से दण्डित करें।’
मरुधरानाथ अपने स्थान पर अविचल भाव से बैठा रहा। उसने हाँ अथवा ना में कुछ नहीं कहा।
-‘यह प्रस्ताव उचित है महाराज।’ अणदाराम भूरट ने अपनी पूर्व वडारण की हाँ में हाँ मिलाई। हालांकि आज जिस ऊँचाई पर गुलाब थी, वह ऊँचाई भूरट के लिये बहुत अधिक थी।
महाराजा ने भी स्वीकरोक्ति में सिर हिला दिया। गोरधन खीची ने महाराजा की ओर देखा किंतु वे कहीं और देख रहे थे। इन दिनों महाराजा से आँखें मिला पाना बहुत ही मुश्किल कार्य था। गोरधन ने न तो ना कहा, न हाँ, वह मरुधरानाथ को मुजरा करके दरबार से बाहर आ गया। अगले ही दिन वह अपने बोरिये बिस्तर समेट कर एक बार फिर गढ़ छोड़कर अपनी जागीर सोयला को भाग गया।
सही मंत्र
अगले दिन गुलाब ने भरे दरबार में खीची पर आरोप लगाया-‘खीची बिना राजाज्ञा प्राप्त किये दरबार छोड़कर अपनी जागीर को चला गया है इसलिये वह राजाज्ञा के उल्लंघन का अपराधी है। उसे दरबार में बुलाकर दण्डित किया जाये।’
जब मरुधरानाथ ने गुलाब का यह आरोप सुना तो उसे गुलाब की योजना समझ में आई। वह नहीं चाहता था कि वृद्ध गोरधन के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही की जाये। इसलिये उसने हँसकर कहा-‘वृद्ध खीची कुछ दिनों में स्वयं ही मर जायेगा, हम राज्य का खाण्डा क्यों खराब करें!’
-‘अन्नदाता, आज खीची गया है, कल चाम्पावत जायेगा।’
-‘क्यों ठाकर! महारानीसा ठीक कह रही हैं क्या?’ मरुधरानाथ ने एक बार फिर बात को हँसी में उड़ाने का प्रयास करते हुए सवाईसिंह चाम्पावत की ओर देखकर कहा।
-‘अन्नदाता! चाम्पावत का सिर आज ही काट लें ताकि कल यह नौबत ही ना आये।’ सवाईसिंह ने हाथ जोड़कर जवाब दिया।
-‘महाराज! यह बात हँसी मजाक की नहीं है। राजाज्ञा के उल्लंघन पर खीची को दण्ड मिलना ही चाहिये।’ राज्य के दीवान भवानीदास भण्डारी ने निवेदन किया।
-‘जब तुम लोगों की ऐसी ही मर्जी है तो गोरधन को मेरे पास बुलाओ।’
गुलाब के लिये महाराजा का इतना आदेश पर्याप्त था। उसने उसी दिन एक हजार सिपाही सोयला के लिये रवाना कर दिये। जब यह समाचार खीची तक पहुँचा तो वह भागकर स्वयं ही जोधपुर आ गया और सवाईसिंह चाँपावत की हवेली में जा रहा। सवाईसिंह ने वृद्ध खीची को शरण देना स्वीकार कर लिया। वैसे भी किसी समय खीची, सवाईसिंह के दादा का मित्र रहा था। जो सिपाही सोयला गये थे, उन्होंने लौटकर सूचना दी कि ठाकुर अपनी जागीर में नहीं है।
महाराजा जानता था कि ठाकुर कहाँ है किंतु उसने कुछ जवाब नहीं दिया। जानती तो गुलाब भी थी कि खीची कहाँ बैठा है किंतु उसने भी कोई जवाब नहीं दिया। उसे मालूम था कि सही मंत्र ज्ञात हुए बिना बिल में हाथ डालने का अर्थ क्या है! इसलिये उसने सही मंत्र ज्ञात होने तक इस विषय में मौन धारण कर लिया।