जोधपुर नगर की स्थापना के तीन वर्ष पश्चात् 1462 ई. में राव जोधा ने प्रयाग, काशी और गया तीर्थों की यात्रा की। पंद्रहवीं शताब्दी में किसी बड़े हिन्दू राजा द्वारा दूरस्थ तीर्थों की यात्रा करना दुःसाध्य कार्य था। इसके कई कारण थे। राजा हर समय शत्रुओं से घिरा रहता था। दिल्ली, गुजरात तथा मालवा के सुल्तानों के आक्रमणों से लेकर, पड़ौसी मुस्लिम सूबेदारों, बड़े हिन्दू राजाओं के आक्रमणों, स्वजातीय हिन्दू जागीरदारों तथा अपने ही राजकुमारों द्वारा किये जाने वाले घातक षड़यंत्रों के कारण यह संभव नहीं था कि राजा अपनी राजधानी से लम्बे समय के लिये दूर चला जाये। मार्ग में भी उसे शत्रुओं का भय रहता था। यदि बड़ी सेना राजा के साथ तीर्थ यात्रा पर जाती तो पीछे से शत्रु उसके राज्य पर अधिकार कर लेते थे। इन सारी बाधाओं के उपरांत भी 1462 ई. में राव जोधा ने काशी एवं गया आदि तीर्थों की यात्रा का निर्णय लिया तो उससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मण्डोर राज्य पर दुबारा से अधिकार कर लेने के बाद के 9 वर्षों में राव जोधा ने अपने राज्य की स्थिति अत्यंत सुदृढ़ कर ली थी तथा वह अपने शत्रुओं की ओर से निर्भय था।
बहलोल लोदी से भेंट
जोधपुर राज्य की ख्यात में लेख है कि जब जोधा आगरा पहुंचा तो बहलोल लोदी के कृपापात्र कान्ह ने जो कि कन्नौज का राठौड़ था, जोधा को बंधु समझ कर हर तरह से इनका आदर किया तथा जोधा को बहलोल लोदी से मिलवाया। रेउ ने इस राजा का नाम कर्ण बताया है। ओझा ने प्रश्न उठाया है कि उन दिनों कन्नौज पर मुसलमानों का शासन था इसलिये कान्हा या कर्ण वहाँ का शासक कैसे हो सकता था? रेउ ने लिखा है कि यह कन्नौज के राठौड़ घराने का था तथा बादशाह ने उसे शम्साबाद (खोर) का सूबेदार नियुक्त कर रखा था। तारीखे फरिश्ता में भी बादशाह द्वारा कर्ण को शम्साबाद का सूबेदार नियुक्त किया जाना वर्णित है। हमारे विचार से यह कर्ण या कान्हा कन्नौज का राठौड़ भले ही न रहा हो किंतु वह कोई प्रमुख राठौड़ सरदार था जिसे बहलोल लोदी ने खोर का सूबेदार नियुक्त कर रखा था। इसी की सहायता से जोधा ने बहलोल लोदी से भेंट की थी। जोधा ने बादशाह से अनुरोध किया कि वह गया तीर्थ में आने वाले तीर्थ यात्रियों से कर हटा ले। बादशाह ने यह कर हटा लिया तथा इसकी भरपाई के लिये जोधा से कहा कि वह मार्ग में पड़ने वाली दो गढ़ियों को तोड़कर वहाँ के भोमियों को दण्डित करे। जोधा जब गया की तीर्थयात्रा से लौट रहा था, तब उसने ग्वालियर के पास दो गढ़ियों को तोड़कर बादशाह को दिये वचन की पूर्ति की। जोधा द्वारा इन गढ़ियों के तोड़ने की सूचना घोसुण्डी के लेख से भी मिलती है।
जौनपुर के बादशाह से भेंट
आगरा से गया जाते समय राव जोधा ने जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह से भेंट की। रेउ ने लिखा है कि गया के तीर्थ यात्रियों से लिये जाने वाले कर की मुक्ति के लिये जोधा ने हुसैनशाह से अनुरोध किया तथा हुसैनशाह ने उसे ग्वालियर की तरफ के भोमियों को दण्डित करने के लिये कहा। कुछ ख्यातों में लिखा है कि जोधा ने प्रयाग, काशी, गया और द्वारिका आदि तीर्थों की यात्रा की तथा लौटते समय हुसैनशाह के शत्रुओं की गढ़ियों को नष्ट-भ्रष्ट कर अपनी प्रतिज्ञा निभाई।
जोधा की तीर्थ यात्रा का राजनीतिक महत्त्व
किसी बड़े राजा की तीर्थ यात्रा केवल तीर्थ यात्रा नहीं होती थी, उसमें राजनीतिक प्रयोजन भी सन्निहित होते थे। निःसंदेह राव जोधा की तीर्थ यात्रा में भी राजनीतिक प्रयोजन सन्निहित थे। राव जोधा द्वारा इस यात्रा के दौरान बहलोल लोदी तथा होशंगशाह से भेंट करना तथा ग्वालियर के निकट गढ़ियों को तोड़कर वहाँ के भोमियों को दण्डित करना, इस बात की पुष्टि करता है। इसलिये यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि राव जोधा की तीर्थ यात्रा उसके जीवन की एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी।
जोधा की तीर्थ यात्रा के उल्लेख
जोधा की तीर्थ यात्रा का उल्लेख उसकी पुत्री शृंगार देवी की घोसुंडी गांव में बनवाई हुई बावली पर लगे वि.सं. 1561 (1504 ई.) के लेख में आया है। इस शिलालेख में लिखा है कि जोधा की तलवार से अनेक पठान मारे गये। इन्होंने गया के यात्रियों पर लगने वाले कर को छुड़वाकर अपने पूर्वजों को और कशी में सुवर्ण दान कर वहाँ के विद्वानों को संतुष्ट किया। जोधा की प्रयाग और गया की यात्रा का उल्लेख बीठू सूजा रचित ‘जैतसी रो छन्द’ नामक पुस्तक में भी आया है।