जब सरदार राज्य छोड़कर चले गये, सवाईसिंह ने भी आँखें पलट लीं और मरुधरपति शेरसिंह के स्थान पर सूरसिंह को राजपाट देने के बारे में सोचने लगा तो जोधपुर में पासवान के लिये सारी परिस्थितियाँ अचानक विपरीत हो उठीं। उसने अनुमान किया कि उसे किसी भी समय जोधपुर छोड़ना पड़ सकता है। मरुधरपति ने जालौर का किला पासवान गुलाबराय को जागीर में दिया था। इसलिय पासवान ने जालौर के किले में युद्ध सामग्री, गहना, सोना मिलाकर कुल ढाई करोड़ की सम्पत्ति वहाँ रखवा दी। इसी बीच गुलाब के गुप्तचरों ने सूचना दी कि सरदारों की योजना अगले दो चार दिन में पासवान की हत्या करने की है। यह जानकर वृद्ध मरुधरपति ने अपने पुत्र शेरसिंह और अपने स्वर्गीय पुत्र गुमानसिंह के बेटे मानसिंह को कारभारी सूरजमल के साथ जालौर भेज दिया ताकि वे जालौर पहुँच कर सारी व्यस्थायें ठीक कर लें और उसके बाद गुलाब को भी जालौर के लिये रवाना किया जाये।
जब शेरसिंह और मानसिंह जालौर पहुँच गये तब महाराज ने शाहमल और शिवचंद को भी सेना लेकर जालौर के लिये रवाना किया। इनके रवाना होने के दो दिन बाद पासवान को रवाना करने की योजना थी किंतु इससे पहले कि पासवान जोधपुर से बाहर निकल पाती, विद्रोही सरदारों के राजपूतों ने चारों ओर से आकर जोधपुर नगर को घेर लिया। अब पासवान का जोधपुर से बाहर निकलकर जालौर तक पहुँचना संभव नहीं रह गया।
इस पर पासवान ने किशनगढ़ में नियुक्त अपने चार हजार घुड़सवारों को अपनी सहायतार्थ जोधपुर बुलवाया। ये घुड़सवार जोधपुर से तीन कोस की दूर पर आकर टिके। जब पासवान ने इन्हें नगर की रक्षा के लिये भीतर बुलाया तब इन सैनिकों ने आजकल-आजकल करते हुए कई दिन निकाल दिये और अपने कारभारियों को नगर के भीतर भेजकर वहाँ के रंग-ढंग देख लिये। उन्हंे अनुमान हो गया कि अब बाजी पासवान के हाथ नहीं आयेगी। इस पर वे आधी रात के समय कूच करके विद्रोही सरदारों से जा मिले।
किशनगढ़ के सैनिकों के आने से पहले विद्रोही सरदारों के पास पाँच हजार सैनिक थे किंतु अब नौ हजार सैनिक हो गये। विद्रोही सरदारों ने घोषित किया कि जो सरदार पासवान के कहने से जोधपुर में जाकर चाकरी करेगा उसे जमीन छीन कर राज्य से बाहर निकाल देंगे। इस कारण पासवान के बुलाने पर एक भी राजपूत नगर के भीतर नहीं गया। इस समय केवल शेख इमामुद्दीन पासवान की नौकरी में था। उसके पास सात सौ घुड़सवार थे किंतु उनमें से छः सौ सवारों को शिवचंद फुसला कर ले गया जिससे इमामुद्दीन के पास केवल एक सौ सवार रह गये जो बगीचे की चौकी तथा पासवान की रक्षा करते थे। कुछ गरीब राजपूत उदरपूर्ति के लिये नौकरी मांगने पासवान के पास आये। पासवान ने ऐसे आठ हजार राजपूतों को दैनिक खर्च के लिये चार-चार रुपये देकर नौकरी पर रख लिया। ये लोग बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं थे तथा संकट आने पर कभी भी भाग सकते थे।
खूबचंद सिंघवी का चचेरा भाई जोरावरमल सिंघी विगत पच्चीस सालों से पासवान की सेवा में था। पासवान ने जालौर का किला उसके सुपुर्द कर दिया। खूबचंद की हत्या के बाद पासवान ने जोरावरमल सिंघी को अपने सब कार्यों की मुसाहिबी दी थी और उसे पालकी, सिरपेंच, मोतियों की कण्ठी और कानों की कुड़कियां भी प्रदान की थीं। पासवान ने उसे बुलाकर कहा-‘चार हजार राजपूतों को साथ लेकर मुझे जालौर के किले में ले चलो।’
-‘कोई भी राजपूत आपकी चाकरी करने को तैयार नहीं है। आप यदि दुर्ग से बाहर निकलती हैं तो सारे सरदार बाहर ही मौजूद हैं। आपको कैद करके मार डालेंगे। तब आप क्या करेंगी?’ जोरावरमल ने उत्तर दिया।
-‘हरामखोर! जब तेरी छाती में दम नहीं है तो मोतियों की कण्ठी, सिरपेंच और पालकी लेकर क्यों घूम रहा है? अभी की अभी वापस कर।’ पासवान ने क्रोधित होकर जोरावरमल की प्रताड़ना की।
जोरावरमल उसी दिन पासवान को मोतियों की कण्ठी, सिरपेंच और पालकी लौटाकर अपनी हवेली में चुप होकर बैठ गया। अब केवल भैरजी साणी ही पासवान के पक्ष में बच गया।
जोरावरमल के चले जाने के बाद पासवान ने देवजी श्रीमाली को बुलाकर उससे भी यही बात कही-‘मुझे जालौर ले चलो।’
इस पर देवजी बोला-‘जिन लोगों ने लाखों रुपये खाये हैं, यह उनका काम है। मैं तो भिक्षुक ब्राह्मण हूँ। आपके साथ मुझे भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। इसलिये यह बात मेरे वश की नहीं है।’
देवजी से दो टके का जवाब पाकर पासवान की आँखों से आँसू निकल पड़े। वह समझ गई कि अब उसका जोधाणे से बाहर निकलना कठिन है। वह महल का दरवाजा बंद करके दिन रात आँसू बहाने लगी। राजा भी चिन्ता से बार-बार व्याकुल हो उठा कि शायद राजपूत जोधपुर में घुसकर मुझे कैद करें और मेरी बेइज्जती हो किंतु महाराजा के प्राण तो पासवान के अधीन थे। वह पासवान को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता था। इस कारण वह गढ़ छोड़कर पासवान के उद्यान महल में ही रहने लगा।
मरुधरानाथ ने उदयपुर के महाराणा के पास अपनी ओर से बारठ पदमसिंह तथा भूरट उदयराज को नियुक्त कर रखा था। जब मरुधरानाथ ने शेरसिंह को जोधपुर का टीका दे दिया और महाराणा द्वारा विरोध पत्र लिखे जाने पर उसका प्रत्युत्तर तक नहीं दिया तब महाराणा ने पदमसिंह और उदयराज को बुलाककर कहा-‘आपकी पासवान ने शेरसिंह को टीका दिलवाकर अत्यंत अनुचित कार्य किया। शेरसिंह की जिस कन्या की सगाई हमारे साथ जो हुई थी, उसे आप किसी अन्य को दे देना। दासीपुत्र से हम सम्बन्ध नहीं रख सकते। आप शेरसिंह की स्थिति को सुदृढ़ करें, हमें तो कुँवर जालमसिंह का पक्ष लेना है। आप दोनों प्रस्थान करें।’
इस प्रकार मेवाड़पति ने मरुधरानाथ के सेवकों को अपमानित करके मेवाड़ राज्य से बाहर निकाल दिया। उन दोनों ने जोधपुर आकर मरुधरानाथ से सारी बातें कहीं। मरुधरानाथ इस अपमान से सन्न रह गया। केवल इतना ही बोला-‘पासवान से कहो।’
पदमसिंह और उदयराज ने पासवान से भी सारी बातें कहीं। पासवान ने भी उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। जब उन्होंने देखा कि यहाँ किसी से कुछ कहने का लाभ नहीं है तो पदमसिंह सीख लेकर अपने गाँव चला गया और उदयराज चुप होकर अपनी हवेली में बैठ गया।
जोधपुर शहर के चारों तरफ राजपूत सरदारों एवं सैनिकों का जमावड़ा होने से लोगों का जोधपुर से बाहर निकलना कठिन हो गया। शहर में वे ही लोग प्रवेश कर रहे थे जिन्हें शहर के बाहर स्थित सरदार अनुमति दे रहे थे। वस्तुतः शहर में प्रवेश पाने वाले अधिकतर लोग विद्रोही सरदारों के ही आदमी थे जिन्हें पासवान जरूरतमंद समझकर अपनी नौकरी में रख रही थी और यह समझ रही थी कि इनके बल पर वह अपनी और राजा की रक्षा कर सकेगी किंतु भीतर ही भीतर वह इस व्यस्था से संतुष्ट नहीं थी।
जब जोरावरमल सिंघी और देवजी श्रीमाली ने पासवान को जालौर ले जाने से मना कर दिया तो पासवान ने अपनी कैद में सड़ रहे पुरबिया धनसिंह जमादार को को बाहर निकालकर उसका बड़ा सम्मान किया और उसे काफी इनाम-इकरार देकर महादजी सिन्धिया की सेवा में भेजा ताकि वह सिन्धिया से दस हजार सवारों को मांगकर ला सके। पासवान इन सवारों का खर्चा उठाने को तैयार थी।
महादजी इस समय भी मेवाड़ में टिका हुआ था। धनसिंह ने मेवाड़ पहुँचकर महादजी से पासवान का अनुरोध कह सुनाया। इस पर महादजी बिगड़ कर बोला-‘हम किस आधार पर अपनी सेना भेज दें? यह उनका घरेलू झगड़ा है और पासवान ने जैसे काम किये हैं, तुम जानते ही हो। क्या उसके कहने पर सेना भेज दें? पासवान सरदारों से लड़ना चाहती है किंतु राजा सरदारों के साथ है। यदि चालीस हजार राठौड़ एक होकर आक्रमण कर देंगे तो क्या होगा? हमारी सेना मरवानी है? श्रीमन्त पेशवा की प्रतिष्ठा क्या ऐसे कार्यों से बनी रहेगी?’
महादजी का ऐसा रुख देखकर धनसिंह फिर कभी लौट कर जोधपुर न आया। उसने वहीं से पासवान को एक के बाद एक कई चिट्ठियाँ लिखीं जिन्हें पाकर पासवान की रही सही आशा भी तिरोहित हो गई।