महादजी सिन्धिया अत्यंत दुस्साहसी, जबर्दस्त लड़ाका और पक्का लुटेरा था। मरुधरपति से उसका पहला सामना 1762 ईस्वी में अजमेर के बीठली गढ़ पर अधिकार करने को लेकर हुआ था। यद्यपि मरुधरपति बीठली तो नहीं ले सका था किंतु महादजी उसे विशेष हानि भी नहीं पहुँचा सका था। 1765 ईस्वी में महादजी ने पुनः मारवाड़ पर अभियान करने का विचार किया था किंतु उसे भी वह कार्यान्वित नहीं कर सका था। उसके एक साल बाद महादजी ने खानुजी जाधव को मारवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा था। मरुधरपति ने खानुजी में जमकर मार लगाई थी जिससे खानुजी को अजमेर की तरफ भाग जाना पड़ा था। यद्यपि बाद में मारवाड़ के बड़े सरदारों की गद्दारी के कारण मरुधरपति द्वारा खानुजी को डेढ़ लाख रुपये देकर संधि करनी पड़ी थी तथापि खानुजी में लगाई गई मार के बाद मरुधरपति महादजी की आँख में कंकड़ की तरह गड़ने लगा था किंतु महादजी के पास इस कंकड़ को निकाल फैंकने के लिये पर्याप्त शक्ति नहीं थी।
26 मई 1766 को मराठा सरदार मल्हारराव होलकर की मृत्यु हो गई। साल भर बाद उसका पुत्र मालेराव भी मारा गया और अहिल्याबाई होलकरों की रानी हुई। इस पर पेशवा के प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस ने उत्तर भारत की रियासतों से खण्डनी वसूल करने का काम होलकरों से लेकर महादजी सिंधिया को सौंप दिया। इस दायित्व के आ जाने से महादजी की शक्ति में अपार वृद्धि हो गई। अब वह मरुधरपति से सीधी टक्कर ले सकता था। उन्हीं दिनों तुकोजी राव होलकर की भी उत्तर भारत के मराठा सूबेदार के रूप में नियुक्ति हुई। वैसे तो महादजी और तुकोजी परस्पर प्रतिस्पर्धी थे किंतु मराठा हितों के प्रश्न पर वे एक हो जाते थे। उनके इस विचित्र स्वभाव और तालमेल के कारण राजपूताने के राजा उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध भड़का नहीं पाते थे। इन दोनों ने अलग-अलग रहकर भी राजपूताना रियासतों का अपार धन, बड़ी तेजी से ऐंठा था।
सत्रह सौ बहत्तर ईस्वी में मारवाड़ के अपदस्थ महाराजा रामसिंह की मृत्यु हो जाने से मारवाड़ में शांति स्थापित हो गई और मराठों के हस्तक्षेप का कोई कारण शेष नहीं बचा। इसके दो साल बाद महादजी, आंग्ल मराठा युद्ध में व्यस्त हो गया। इसलिये उसका ध्यान मारवाड़ से लगभग पूरी तरह हट गया। महादजी एक बार अंग्रेजों के साथ उलझा तो उलझता ही चला गया। यहाँ तक कि महादजी को मारवाड़ से दूर गये हुए पाँच साल हो गये। इसलिये मरुधरपति के मन से उसका खटका भी कम हो चला। इस बीच मारवाड़ में बरसात अच्छी हुई जिससे प्रजा को अनाज और पशुओं को चारे की कमी नहीं रही।
इन्हीं दिनों एक ज्योतिषी ने महाराजा को बताया कि अगले पन्द्रह साल तक आपके जीवन में कोई विपदा आने वाली नहीं है। आप बेखटके राज्य कर सकते हैं। इसलिये मरुधरानाथ अब सुख की बंशी बजाने लगा। गुलाब उसके पहलू में महक ही रही थी। वह गोकुलिये गुसाईयों के सान्निध्य में नित्य नया धर्मलाभ अर्जित करने लग गया। महादजी की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर 1780 ईस्वी में मरुधरानाथ ने अजमेर और मारवाड़ की सीमा पर भिणाय में कुछ सैनिक चौकियाँ स्थापित कीं। इस पर महादजी सिंधिया ने महाराजा विजयसिंह को आँखें दिखाईं किंतु महाराजा ने उन आँखों को देखने से मना कर दिया और अपनी चौकियाँ मजबूती से जमा कर बैठा रहा।
इसी बीच 1781 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने महाराजा विजयसिंह से सम्पर्क करके महादजी सिन्धिया के विरुद्ध सहायता मांगी। महाराजा तो पहले से ही इस अवसर की ताक में था कि सिन्धिया से पुराने हिसाब चुकता किये जायें इसलिये वह अंग्रेजों की सहायता करने के लिये सहर्ष तैयार हो गया किंतु इसी बीच 1782 ईस्वी में अंग्रेजों और मराठों के बीच सालबाई की संधि हो गई और महाराजा को अपने मन की इच्छा पूरी करने का अवसर नहीं मिला।
सालबाई की संधि में महादजी ने ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी। इससे महादजी के पराक्रम में अपार वृद्धि हुई तथा ग्वालियर का किला भी उसे मिल गया। अजमेर का दुर्ग पहले से ही उसके अधिकार में था। इस प्रकार महादजी सिंधिया उत्तर भारत की एक बड़ी शक्ति बन गया। 4 दिसम्बर 1784 को मुगल बादशाह शाहआलम ने महादजी सिन्धिया को अपना वकील ए मुत्तलक नियुक्त किया तथा उसे जिम्मेदारी सौंपी कि वह जयपुर के महाराजा से बकाया करों की वसूली करे। इस समय प्रतापसिंह कच्छवाहों का राजा था। उसे जयपुर की गद्दी पर बैठे हुए छः साल हो चुके थे। वह मराठों को तो खण्डनी चुका रहा था किंतु मुगल बादशाह को कर नहीं देता था। इसलिये जब बादशाह ने सिन्धिया को बकाया कर वसूलने की जिम्मेदारी सौंपी तो सिन्धिया जयपुर पर चढ़ दौड़ा।
मरुधरानाथ महाराजा विजयसिंह की पौत्री का विवाह कच्छवाहा महाराजा प्रतापसिंह से होना निश्चित हो रखा था। इसलिये स्वाभाविक ही था कि महाराजा प्रतापसिंह महाराजा विजयसिंह से सैनिक सहायता की अपेक्षा करता। उसने मरुधरानाथ से सहायता मांगी। इस प्रकार सिन्धिया और मरुधरानाथ एक बार फिर एक दूसरे के सामने खड़े हो गये।”
इन्हीं दिनों मेवाड़ में शक्तावतों और चूण्डावतों का झगड़ा बढ़ गया। महाराणा भीमसिंह ने शक्तावतों का पक्ष तो लिया किंतु वह चूण्डावतों को दबा नहीं सका। इसलिये महाराणा ने मरुधरपति से सहायता मांगी। जब मरुधरपति ने अपनी सेना शक्तावतों की सहायता के लिये मेवाड़ भेजी तो चूण्डावतों ने महादजी सिन्धिया से सहायता की पुकार लगाई। महादजी तो इस ताक में ही था इसलिये वह भी अपनी सेना लेकर मेवाड़ की ओर चल पड़ा। इस प्रकार महाराजा विजयसिंह ने शक्तावतों का पक्ष ग्रहण करके और महादजी ने चूण्डावतों का पक्ष ग्रहण करके मेवाड़ की राजनीति में प्रवेश किया। इससे दोनों पुराने शत्रु एक बार फिर आमने सामने हो गये। दोनों ही एक दूसरे से वैर निकालने और पुराने हिसाब-किताब चुकाने के लिये बेचैन थे।