जून की चिलचिलाती धूप में जब पंछी तक पेड़ों की छाया में छिपकर विश्राम कर रहे थे, जोधपुर नगर के कई धनाढ्य सेठों की हवेलियों के दरवाजों पर महाराजा विजयसिंह के सिपाहियों ने दस्तक दी। जैसे ही किसी हवेली का दरवाजा खुलता, सिपाही हवेली में घुसकर उसमें रहने वाले सेठ की मुश्कें कस लेते और उसे बलपूर्वक घसीटते हुए गढ़ की ओर ले चलते। सेठानियाँ और हवेलियों के सेवक, सिपाहियों से पूछते ही रह जाते कि क्या हुआ किंतु सिपाहियों के तो जैसे कान ही नहीं थे, सुनते कैसे!
मारवाड़ रियासत के सेठ-साहूकारों के लिये यह एकदम नई बात थी। इससे पहले कभी भी ऐसा नहीं हुआ था। जब भी उन्हें राज्य की ओर से बुलावा आया था, पूरे सम्मान के साथ आया था। उन्हें हाथी, घोड़ों और पालकियों सहित आने के लिये कहा जाता था। किसी की समझ में कुछ नहीं आया कि आज अचानक ऐसी क्या बात हो गई!
मारवाड़ रियासत के सेठ साहूकार दुकानों की पेढ़ियों पर बैठकर नमक मिर्च की पुड़ियाएँ बांधने वाले निरे बनिये नहीं थे। वे तो राजा के कंधे से कंधा लगाकर युद्ध के मैदानों में राजा के शत्रुओं से लड़ते आये थे। रियासत की राजनीति को भी वही दिशा देते आये थे। उन्होंने दूर-दूर तक किये जाने वाले सैन्य अभियानों में मारवाड़ की सेनाओं का नेतृत्व किया था। यहाँ तक कि रियासत का वर्तमान दीवान फतेहचंद सिंघवी भी इन्हीं सेठ साहूकारों में से एक था।
जब काफी सारे सेठ-साहूकार पकड़ कर गढ़ में ले आये गये तब उन्हें मरुधरति के समक्ष प्रस्तुत किया गया। क्रोध, ग्लानि, चिंता, भय और ऐसे ही जाने कितने भावों के मिश्रण से ग्रस्त सेठ साहूकारों ने मरुधरति को मुजरा किया। कितनी ही पीढ़ियों से सेठ-साहूकारों के बाप-दादों का मरुधरानाथ के बाप-दादों से सुख-दुःख का साथ चला आ रहा था किंतु ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था कि मरुधरानाथ को उनसे आँख मिलाने का साहस न हो! उसने अपने दीवान फतेहचंद को बोलने के लिये संकेत किया।
-‘आप सब सेठ-साहूकारों को इस तरह यहाँ लाये जाने का श्री जी को बहुत दुःख है किंतु आपको यहाँ बुलाने का एक विशेष प्रयोजन है। बापजी यह जानना चाहते हैं कि जब राजा की दिन रात की नींेद उड़ जायेे, तब क्या प्रजा को सुख से अपने घरों में सोना चाहिये?’
यह एक विचित्र प्रश्न था जिसका कोई स्पष्ट उत्तर साहूकारों के पास नहीं था। इसलिये वे चुप ही रहे।
-‘आप बताईये भूरटजी! क्या आपको यह शोभा देता है कि मैं यहाँ एक-एक निवाले के लिये तरसता रहूँ और आप अपनी हवेलियों में खस की टट्टियों में आराम फरमायें?’ यह प्रश्न स्वयं मरुधरानाथ ने किया। दीवान द्वारा बांधी गई भूमिका के बाद मरुधरानाथ को बोलने का मार्ग सूझ गया था।
महाराजा को इस तरह उसी से प्रश्न करते देखकर भूरट सेठ की आत्मा कांप उठी। फिर भी किसी तरह लड़खड़ाती हुई जीभ पर नियंत्रण पाकर बोला-‘अन्नदाता! आपके ऊपर माँ चामुण्डा की कृपा बनी रहे, नौ कोटि मारवाड़ के धणी को अन्न की क्या कमी। आपकी झूठन खाकर हम बनिये पेट भरते हैं।’
-‘सेठाँ! लम्बी बात करने में सार नहीं है। असल बात ये है कि हमारे पास सिपाहियों को वेतन देने के लिये रुपये नहीं हैं। मराठों को भी दूसरी किश्त चुकानी है। बोलो, क्या मदद करोगे?’ मरुधरपति मतलब की बात पर आया।
-‘यदि श्री जी साहिब का हुकम हो जाता तो इस दास के पास जो कुछ भी था, आपके श्रीचरणों में धर देता, आपको इतनी फिकर करने की आवश्यकता नहीं थी।’ भूरट सेठ का साहस बढ़ने लगा था। वह समझ गया था कि उन सबको किसी अपराध के लिये पकड़ कर नहीं बुलाया गया है अपितु राजा को सेठों से रुपयों की आशा है।
-‘तो आप सब आपस में विचार कर लें। हमें पच्चीस लाख रुपये की दूसरी किश्त मराठों को भेजनी है, आप लोग उसमें कितना सहयोग कर सकते हैं?’ महाराजा ने सेठों को आदेश दिया।
-‘हुजूर मेरे बालकों के आज के गुजारे लायक आटा मेरे पास छोड़कर हवेली का सारा सामान, सोना, चांदी, रुपया, कपड़े लत्ते, गाय-भैंस मराठों को भेज दें।’ भूरट ने उत्तर दिया।
-‘नहीं! हम नहीं चाहते कि हमारी वजह से आपका धंधा चौपट हो जाये। यदि आप लोगों की ऐसी भावना है तो आप सब अपने आप को इसी समय मुक्त समझें और जो कुछ भी उचित समझें, रियासत के खजाने में जमा करवा दें।’
जिस कठोरता के साथ उन्हें बांधकर लाया गया था उसके बाद सेठ-साहूकारों को मरुधरानाथ से इस सदाशयता की आशा बिल्कुल भी नहीं थी। यद्यपि बात आगे बढ़ सकती थी किंतु श्रेष्ठिराज भूरट की बुद्धिमानी से बात ठीक समय पर संभल गई थी। सेठों ने राजा के कोप से बचने के लिये कुछ ही दिनों में गढ़ में इतना रुपया जमा करवा दिया जिससे राजा को संतोष हो जाये। महाराजा के पास इतना धन जमा हो गया था कि संध्या काल में दरबार के आयोजन के लिये दियों में तेल डाला जा सके।