इस बार भी जब महाराजा रूपसिंह दिल्ली आया तब बादशाह ने पहले की ही भांति उसका भव्य स्वागत किया। लाल किले में विशेष दरबार आयोजित करके उसका बड़ा सम्मान किया और चांदी के वे सैंकड़ांे सिक्के महाराजा रूपसिंह पर न्यौछावर करके भिखारियों में बंटवा दिए जो उसने बलख से लूटी गई चांदी से ढलवाए थे।
बादशाह के इस व्यवहार पर चगताई सरदार, तुर्की अमीर और मुगल सेनापति हैरान थे। मोर्चे से तो शहजादा औरंगज़ेब भी लौटा था। भले ही वह अब्दुल अजीज से संधि करके लौटा हो किंतु उपलब्धियां उसकी भी कम नहीं थीं। बिना औरंगज़ेब की सहायता के, महाराजा रूपसिंह के लिए यह कदापि संभव नहीं था कि वह बादशाह नजर मुहम्मद को ट्रांस-ऑक्सियाना छोड़कर फारस भाग जाने के लिए मजबूर कर दे किंतु बादशाह ने शहजादे औरंगज़ेब से मुलाकात तक करना स्वीकार नहीं किया। इसके विपरीत, महाराजा रूपसिंह के लिए वह बिछा जा रहा था।
रूपसिंह ने इस भव्य स्वागत के लिए बादशाह का आभार व्यक्त किया तो बादशाह ने पहले की ही भांति उससे मुँह मांगा पुरस्कार मांगने को कहा। महाराजा इस बार भी चुप रहा, बादशाह के बार-बार कहने पर भी उसने पुरस्कार मांगने के लिए मुँह नहीं खोला। इस पर बादशाह ने महाराजा के स्वभाव की प्रशंसा करते हुए उसे आदेश दिया कि वह अपनी खुशी के लिए न सही, हमारी खुशी के लिए हमसे कुछ मांगे और कुछ ऐसा मांगे जिसे देने में हमें जोर आए।
बादशाह का आदेश सुनकर महाराजा आश्वस्त हुआ। वह इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था। वह मांगना तो चाहता था किंतु वह तब तक मुँह नहीं खोलना चाहता था जब तक कि पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो जाए कि बादशाह उसे देने से इन्कार नहीं करेगा। अब वह क्षण आ चुका था जब महाराजा अपने मन की इच्छा भरे दरबार में बादशाह के समक्ष कहे।
‘प्रजा पालक बादशाह! मैं आपकी कृपाओं से पहले ही हर तरह से परिपूर्ण हूँ। ऐसा कोई पुरस्कार नहीं है जो आपने बिना मांगे मुझे नहीं दिया हो। क्षत्रियों के लिए मांग कर लेना उचित नहीं है किंतु जब आप देना ही चाहते हैं तो मैं मुँह खोलकर मांगता हूँ।’
‘मेरे नेकदिल दोस्त! आप अपनी इच्छा बताएं। या तो आज हम आपके मन की हर मुराद पूरी करेंगे या फिर कभी आपसे कुछ मांगने के लिए कहने का दुःसाहस नहीं करेंगे।’ शाहजहाँ ने भावुक होकर कहा।
‘शहंशाह! मुझे भगवान वल्लभाचार्य का वही चित्र दे दीजिये, जो आपके पूर्वज बाबर के समय से मुगलिया महलों की शान बढ़ा रहा है।’
यह एक विचित्र मांग थी जिसे सुनकर शाहजहाँ सन्न रह गया। उसने सपने में भी उम्मीद नहीं की थी कि कोई राजपूत राजा अपनी ढेर सारी सफलताओं के बदले में कागज के टुकड़े पर खिंची चंद लकीरों को पुरस्कार के रूप में मांगेगा। महाराजा के विशाल मन की थाह पाकर शाहजहाँ की आँखें नम हो गईं।
शाहजहाँ सोच में डूब गया। एक ओर मुगल शहजादे थे जो मन ही मन बादशाह के मरने की कामना करते थे ताकि वे अपने पिता का लाल किला, तख्तेताउस तथा कोहिनूर हथिया सकें, हिन्दुस्तान के शहंशाह बन सकें और दूसरी ओर ये राजपूत राजा थे जो दुनिया भर के प्रदेश जीत-जीत कर मुगलों के कदमों में डाले जा रहे थे और उनके बदले में किसी पुरस्कार की भी कामना नहीं रखते थे। बादशाह ने उसी समय शहजादे दारा शिकोह को हुक्म दिया कि वह स्वयं जाए और अपनी सुरक्षा में उस महान संत का चित्र लेकर आए जिसे प्राप्त करने के लिए एक क्षत्रिय राजा ने समूचा ट्रांस-ऑक्सियाना क्षेत्र शाहजहाँ के कदमों में डाल दिया था।
एक बार फिर लाल किले में राजा रूपसिंह की जय-जयकार मच गई। हजारों कण्ठ धन्य है, राजा रूपसिंह धन्य है, चिल्ला उठे।