सवाईसिंह चाम्पावत लम्बे समय से राजा के मुख्तियार पद पर नियुक्त था। वह अत्यंत स्वार्थी और धोखेबाज इंसान था और सरदारों तथा राजा को एक दूसरे के विरुद्ध भड़काता रहता था। एक दिन पासवान के मुख्तियार भैरजी साणी ने सवाईसिंह से कहा-‘सदा अपना स्वार्थ साधना ठीक नहीं है। कभी महाराजा के हित की बात भी सोचा करो।’
भैरजी की बात सुनकर सवाईसिंह का भेजा फिर गया, तमक कर बोला-‘तू अपना काम कर गोले!’
-‘मुँह संभाल कर बात करो ठाकरां। मैंने आपके हित की ही बात की है, गाली तो नहीं दी।’
-‘गाली देने की तो तेरी औकात ही क्या है? तेरे जैसे तो मेरी हवेली पर बरतन धोते हैं।’ साणी को प्रतिवाद करते देखकर सवाईसिंह और अधिक क्रोधित हो गया।
-‘धोते होंगे कोई, इधर आँख उठाकर मत देखना। हम बरतन धोते नहीं, या तो खरीदते हैं या बेचते हैं।’
-‘तू अपने घर के ठीकरों को बरतन मत समझ लेना। हम तो खुद ही विजयसिंह के बरतन बेचकर उसे निबटाने वाले हैं।’ सवाईसिंह ने आँखें तरेरीं।
इन दोनों के बीच क्रोध-युक्त वाक्यों का आदान-प्रदान चल ही रहा था कि पासवान वहाँ आ गई। उसने सवाईसिंह के मुँह से निकला हुआ अंतिम वाक्य सुन लिया। उसकी हैरानी का पार न रहा। जिस राजा के सेवक राजा के बारे में ऐसे घृणित विचार रखते हों, उस राजा को सर्वनाश के मुख में जाने से कौन रोक सकता है! इसलिये वह सवाईसिंह से बहुत नाराज हुई। पासवान पर अपना भेद खुलता देख सवाईसिंह चुप हो गया। पासवान ने उसे उसी समय अपने महल से बाहर निकाल दिया तथा रतनसिंह कूँपावत के चाचा सार्दूलसिंह को राजा की मुख्तिायारी देने का मन बनाया।
भैरजी साणी ने पासवान का रुख देखकर सार्दूलसिंह से भाई चारा बढ़ा लिया। सवाईसिंह गढ़ से तो चुपचाप चला तो गया किंतु वह चुप बैठने वालों में से नहीं था। उसने घात लगाकर भैरजी की हत्या करने की योजना बनाई। वह पासवान के दूसरे बड़े सहायक खूबचंद खीची की हत्या का भी प्रयास करने लगा।