अनेक ग्रंथों की मान्यता है कि देश एवं धर्म की रक्षा के लिए अग्निकुण्ड से प्रकट हुए चौहान तब तक देश के शत्रुओं से मोर्चा लेते रहे जब तक कि वे स्वयं पूरी तरह निर्बल नहीं हो गए।
भारत में क्षत्रिय राजवंश वैदिक काल में ही स्थापित होने आरम्भ हो गए थे। वेदों में अनेक आर्य राजाओं एवं उनके कुलों के नाम मिलते हैं जिन्हें राजन्य कहा जाता था। बुद्ध के काल में जनपद एवं महाजनपदों की व्यवस्था थी। इनके शासक प्रायः क्षत्रिय राजा होते थे। पुराणों के काल में क्षत्रिय कुलों की संख्या बढ़ने लगी।
बहुत से राजकुल ऐसे भी थे जो क्षत्रिय नहीं थे। मौर्यों को शूद्र, शुंग, कण्व तथा सातवाहनों को ब्राह्मण तथा गुप्त वंश को वैश्य कुलोत्पन्न माना जाता है किंतु ये सभी राजकुल भारतीय आर्य थे इस कारण वे उतने ही सम्माननीय थे जितने कि क्षत्रिय राजा।
प्राचीन क्षत्रियों की यह परम्परा उत्तर भारत के पुष्यभूति सम्राट हर्षवर्धन के समय तक मिलती है। इस पूरे काल में राजपूतों का वर्णन नहीं मिलता किंतु इस काल में राजा के पुत्र को राजपुत्र कहा जाता था। संभवतः यही राजपुत्र आगे चलकर राजपूतों में बदल गए।
ईस्वी 648 में उसम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु से लेकर मुहम्मद गौरी के गुलामों द्वारा ई.1206 में दिल्ली एवं अजमेर में मुस्लिम सत्ता स्थापित किए जाने तक का काल भारतीय इतिहास में राजपूत काल के नाम से प्रसिद्ध हैै। इस काल में उत्तर भारत में अनेक राजपूत वंशों ने अपनी सत्तायें स्थापित कीं जिनमें चौहान, चौलुक्य, गुहिल, प्रतिहार, परमार, चावड़े, राष्ट्रकूट एवं भाटी प्रमुख थे।
कुछ विद्वान राजपूतों को देशी क्षत्रियों तथा विदेशी युद्धजीवी जातियों का मिश्रित रक्त मानते हैं। राजपूत वंशों ने अपने आपको सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी घोषित किया जैसा कि प्राचीन भारतीय क्षत्रियों ने किया था।
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क्षत्रियों के राजपूतों में बदल जाने की कथा बड़ी रोचक है। भारतीय मानते हैं कि प्राचीन काल के क्षत्रिय कुल ही भारतीय इतिहास के मध्यकाल में राजपूत कहलाए। बहुत से विदेशी विद्वानों ने राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों की संतानें नहीं मानकर विदेशी युद्धजीवी जातियों की संतानें माना हैं जिनमें हूण, कुषाण, शक, सीथियन, पह्लव तथा खिजर प्रमुख हैं।
बहुत से पुराणों में यह आख्यान मिलता है कि भगवान परशुराम ने 21 बार धरती से क्षत्रियों का विनाश किया। वस्तुतः भगवान परशुराम ने जिन क्षत्रयों का विनाश किया, वे प्राचीन धर्मनिष्ठ आर्य राजा नहीं थे अपितु विदेशी भूमि से आक्रांताओं के रूप में आने वाले अधर्मी एवं विधर्मी क्षत्रिय थे। इन धर्मविहीन क्षत्रियों में हैहय, तालजंघ, शक, यवन, पारद काम्बोज, खस और पह्लव आदि समिम्मलित थे। इन विदेशी कुलों के क्षत्रियों ने भी भारत में कुछ स्थानों पर अधिकार कर लिए थे तथा आर्य राजकुलों से उनके युद्ध चलते रहते थे।
इक्ष्वाकुवंशी राजा सगर ने इन विदेशी क्षत्रियों के विरुद्ध बहुत बड़ा अभियान चलाया था। बाद में भगवान परशुराम ने इन राजाओं से अनेक लड़ाइयां लड़ीं तथा उन्हें पराजित किया। वस्तुतः उन्हीं लड़ाइयों के लिए पुराणों में लिखा गया है कि भगवान परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियों से विहीन किया।
कुछ पुराणों में लिखा है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया तब समाज में अव्यवस्था फैल गयी तथा लोग कर्तव्य भ्रष्ट हो गये। इससे देवता बड़े दुखी हुए और उन्होंने आबू पर्वत पर एक विशाल यज्ञ किया। इस यज्ञ के दौरान अग्निकुण्ड से चार योद्धाओं ने जन्म लिया जिन्हें प्रतिहार, चौलुक्य, चाहमान तथा परमार कहा गया। अग्निकुण्ड से उत्पन्न इन वीर पुरुषों को देश तथा धर्म की रक्षा की शपथ दिलवाई गई। इन्हीं चारों वीरों के वंशजों ने राजपूत वंशों की शुरुआत की।
कवि चंद बरदाई द्वारा लिखित पृथ्वीराज रासो के अनुसार एक बार ऋषियों ने आबू पर्वत पर यज्ञ करना आरंभ किया तो राक्षसों ने मल-मूत्र तथा हड्डियां आदि अपवित्र वस्तुएं डालकर यज्ञ को भ्रष्ट करने की चेष्टा की। इस पर महर्षि वसिष्ठ ने यज्ञ की रक्षा के लिये मंत्र सिद्धि से चार पुरुषों को उत्पन्न किया जो प्रतिहार, परमार, चौलुक्य और चौहान कहलाये। नैणसी तथा सूर्यमल्ल मिश्रण ने भी कुछ हेर-फेर के साथ इस कथानक को अपने ग्रंथों में लिखा है।
पृथ्वीराज रासो का यह वर्णन अतिश्योक्ति पूर्ण है कि परशुरामजी द्वारा क्षत्रियों का विनाश कर देने से समाज की व्यवस्था बिगड़ गई। भारत के अधिकांश लोग पृथ्वीराज रासो को पृथ्वीराज चौहान का समकालीन ग्रंथ मानते हैं जो कि नितांत भ्रम है। गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने स्पष्ट किया है कि यह ग्रंथ सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में लिखा गया तथा इसमें वर्णित घटनाएं इतिहास की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। पृथ्वीराज चौहान के समय में कश्मीरी पंडित जयानक द्वारा पृथ्वीराज विजय नामक महाकाव्य की रचना की गई थी। यही ग्रंथ पृथ्वीराज चौहान के समय घटित घटनाओं का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ है।
यदि हम भारतीय इतिहास के आलोक में राजपूतों की उत्पत्ति को समझने की चेष्टा करें तो हम पाएंगे कि हूण आक्रांताओं द्वारा गुप्त वंश का विनाश कर दिए जाने से देश में छोटे-छोटे राजकुल उत्पन्न हो गए थे तथा देश का बहुत सा हिस्सा विदेशी शक्तियों के हाथों में चला गया था।
हर्षवर्द्धन अपने कुल का अकेला राजा था जिसने उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र पर शासन किया किंतु थे। ई.648 में उसकी मृत्यु के साथ ही उसका राज्य नष्ट हो गया। अतः उत्तर भारत में छोटे-छोटे देशी एवं विदेशी राजाओं का राज्य हो गया। अधिकांश विदेशी राजा वैष्णव धर्म को नहीं मानते थे।
इसलिए ब्राह्मणों एवं आर्य क्षत्रियों को समाज की रक्षा की चिंता हुई और आबू पर्वत में एक सम्मेलन आयोजित करके चार आर्य वीर पुरुषों का चयन करके उन्हें जिम्मेदारी दी गई कि वे भारत से विदेशी अनार्य राजाओं का शासन समाप्त करके आर्य राजकुलों की स्थापना करें तथा आर्य संस्कृति एवं धर्म को नष्ट होने से बचाएं।
पुराणों में आए आबू पर्वत के यज्ञ के वर्णन के आधार पर चारण तथा भाट इन चारों राजपूत वंशों अर्थात् चौहान, चौलुक्य, प्रतिहार एवं परमारों को अग्निवंशीय मानते हैं। पृथ्वीराज विजय, हम्मीर रासो, हम्मीर महाकाव्य आदि ग्रंथों में चौहानों को सूर्यवंशीय बताया गया है। चौहानों के एक भी शिलालेख में यह नहीं कहा गया है कि वे अग्निवंशी हैं। प्रत्येक शिलालेख में चौहानों ने स्वयं को सूर्यवंशी ही लिखा है।
डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी चौहानों को सूर्यवंशीय क्षत्रिय माना है जिन्हें गोत्रोच्चार में चंद्रवंशीय माना जाता है। डॉ. दशरथ शर्मा चौहानों को ब्राह्मणों से उत्पन्न हुआ मानते हैं। चाहमानों का एक अत्यंत प्राचीन शिलालेख राजा रायपाल के समय का मिला है। इसे सेवाड़ी अभिलेख कहते हैं। इस अभिलेख में चाहमानों को इंद्र का वंशज बताया गया है।
कुछ प्रमाणों के आधार पर चौहानों का सम्बन्ध मोरी वंश से जोड़ा जाता है जो प्राचीन मौर्य राजकुल के वंशज थे तथा चित्तौड़गढ़ के आसपास शासन करते थे। कर्नल टॉड ने इन्हें विदेशी माना है तथा अपने कथन के समर्थन में कहा है कि चाहमानों के रस्म और रिवाज मध्य एशियाई जाति के रस्म और रिवाज जैसे हैं। डॉ. स्मिथ तथा क्रुक ने भी इसी मत को स्वीकार किया है किंतु ओझा इस मत को स्वीकार नहीं करते।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता