सेठ-साहूकारों का गला दबाकर भी महाराजा विजयसिंह की समस्या का अंत नहीं हुआ। इस धन से गढ़ के दियों के लिये तेल तो खरीदा जा सकता था किंतु राज्य नहीं चलाया जा सकता था। न मराठों का कर भरा जा सकता था। इसलिये मरुधरानाथ ने पर्याप्त रुपया जुटाने के लिये अपने सामंतों और मुत्सद्दियों से राय मांगी।
-‘महाराज! इस समय रामसिंहजी कच्छवाही राजकुमारी से विवाह करने जयपुर गये हुए हैं इसलिये हमें मेड़ता पर अधिकार करके कुछ धन प्राप्त करना चाहिये।’ रास के ठाकुर केसरीसिंह उदावत ने महाराजा को सलाह दी।
-‘नहीं! अन्नदाता! मराठों के साथ हुई संधि को अभी केवल पाँच महीने हुए हैं। हमें संधि की शर्तों का एक साल तक पालन करना है। इसलिये हमें यह कार्य नहीं करना चाहिये। अन्यथा मराठे फिर से मारवाड़ में आ धमकेंगे।’ देवीसिंह चाम्पावत ने केसरीसिंह की सलाह का विरोध किया।
-‘महाराज! इस समय जनकोजी सिंधिया नर्बदा नदी को पार करके दक्खिन में जा चुका है। इसलिये उसका जल्दी से मेड़ता तक आ पहुँचना संभव नहीं है।’ केसरीसिंह ने तर्क दिया।
-‘केसरीसिंहजी! आपकी सलाह मानने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई उपाय नहीं है।’ मरुधरानाथ ने जवाब दिया।
मरुधरानाथ को इस समय धन चाहिये था। इसलिये वह अच्छा-बुरा सोचने की स्थिति में नहीं था। यही कारण था कि उसने केसरीसिंह के प्रस्ताव का समर्थन किया और देवीसिंह की सलाह को मानने से मना कर दिया। देवीसिंह को महाराजा द्वारा भरे दरबार में की गई उपेक्षा सहन नहीं हुई। उसने मन ही मन इस निर्णय का विरोध करने और अपनी सलाह को सही ठहराने का निर्णय लिया।
महाराजा के आदेश से दीवान फतहचंद सिंघवी सेना लेकर मेड़ता के लिये कूच कर गया और अचानक ही मालकोट पर चढ़ बैठा। मरुधरानाथ ने देवीसिंह को दायित्व सौंपा कि वह फतहचंद की सेना के पीछे-पीछे चले और उसकी सहायता करे। इसलिये देवीसिंह भी अपनी सेना लेकर मालकोट पहुँचा। मालकोट इस समय पण्डित सदाशिव के अधिकार में था। वह इस अप्रत्याशित आक्रमण से हक्का-बक्का रह गया और भयभीत हो, मेड़ता छोड़कर भाग गया। मेड़ता पर दीवान फतेहचंद सिंघवी का अधिकार हो गया।
इस विजय से उत्साहित होकर महाराजा ने पोमसी भण्डारी को जालौर पर और पहाड़सिंह जैतावत को सोजत पर चढ़ाई करने के आदेश दिये। महाराजा का आदेश पाते ही राठौड़ों ने जालौर तथा सोजत से मराठों को मार भगाया और वहाँ पर अधिकार करके बैठ गये।
जब अपदस्थ महाराजा रामसिंह को जयपुर में ये समाचार मिले तो उसने अपने दूत जनकोजी सिंधिया के पास भेजे। जनकोजी के सेनापतियों ने फिर से मारवाड़ की गर्मी में झुलसने से मना कर दिया किंतु खानुजी जाधव ने महाराजा विजयसिंह को इस प्रकार संधि भंग करने के लिये दण्डित करने का मन बनाया। जनकोजी ने उसे मारवाड़ पर अभियान करने की अनुमति दे दी।
जब खानुजी जाधव और रामसिंह की सम्मिलित सेनाओं ने मालकोट पर घेरा डाला तो पिछली पराजय से खुन्नस खाये हुए फतेहचंद सिंघवी ने उन पर तोपों के गोले बरसाये। फतेहचंद का ऐसा दृढ़ आक्रमण देखकर खानुजी तत्काल उसका जवाब देने की हिम्मत नहीं कर सका। यदि इस समय देवीसिंह चाम्पावत अपनी सेना के साथ खानुजी के पीछे पहुँचकर उस पर आक्रमण करता तो फतहचंद बड़ी सरलता से विजय प्राप्त कर सकता था किंतु मरुधरानाथ ने पोकरण ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत की सलाह के विरुद्ध मेड़ता पर आक्रमण करने के आदेश दिये थे इसलिये उसने और उसके साथियों ने इस समय फतेहचंद का साथ नहीं दिया और वे अपने स्थान पर चुप बैठे रहे।
दीवान ने अपने साण्ड सवार तुरंत जोधपुर के लिये रवाना किये और मरुधरानाथ को सारी जानकारी भिजवाई। मरुधरानाथ को जब देवीसिंह की उदासीनता के बारे में ज्ञात हुआ तो वह स्वयं जोधपुर से अपने दरबारी सिपाहियों की सेना लेकर फतेहचंद की सहायता के लिये खानुजी पर चढ़ दौड़ा। मार्ग में लाम्बिया के ठाकुर ने मरुधरानाथ का मार्ग रोका किंतु महाराजा ने उसमें कसकर मार लगाई और उसे अपने मार्ग से हट जाने के लिये विवश कर दिया।
खानुजी और रामसिंह, महाराजा का ऐसा प्रबल वेग देखकर अपनी सेनाओं सहित मेड़ता को छोड़कर मारवाड़ की सीमा पर स्थित लाडपुरा की तरफ भागने लगे। महाराजा ने लाडपुरा पहुँचकर दोनों को जा घेरा और उनमें कसकर मार लगाई। खानुजी जाधव और आधे मारवाड़ का महाराजा रामसिंह अपने प्राण लेकर किसी तरह अजमेर की तरफ भाग गये।
महाराजा की इस अप्रत्याशित सफलता से देवीसिंह चाम्पावत हैरान रह गया। वह प्रत्यक्ष रूप में तो महाराजा के साथ बना रहा किंतु उसने मन ही महाराजा का पक्ष त्याग दिया और गुप्त रूप से खानुजी जाधव से सम्पर्क करके उसे फिर से मारवाड़ पर चढ़ाई करने के लिये उकसाया। खानुजी मारवाड़ के इलाकों में घुसकर लूटमार करने लगा। महाराजा, खानुजी को दण्डित करने के लिये फिर उसके पीछे दौड़ा किंतु इस बार खानुजी ने चालाकी से काम लिया। उसने महाराजा को छकाने के लिये नई रणनीति अपनाई। वह लूटमार करता हुआ मारवाड़ रियासत के भीतर ही भीतर निरंतर भागता रहा और महाराजा उसके पीछे लगा रहा। खानुजी ने कभी भी महाराजा को सम्मुख युद्ध का अवसर नहीं दिया।
खानुजी के पीछे लगातार भागते हुए मरुधपरति ने अचानक एक दिन अनुभव किया कि जब भी ऐसा संयोग बनता है कि खानुजी को घेर लिया जाये, देवीसिंह चाम्पावत की उदासीनता से वह संयोग हाथ से निकल जाता है। महाराजा इस पूरे खेल को समझ गया। फिर भी उसने अपने मनोभावों को प्रकट नहीं होने दिया। वह उसी गति से खानुजी का पीछा करता रहा। खानुजी ने लगभग पूरा मारवाड़ लूट लिया। महाराजा समझ गया कि इस मराठी चूहे को पकड़ पाना उनके वश की बात नहीं। विशेषकर तब जबकि महाराजा के अपने सरदार खानुजी का साथ दे रहे थे। इसी भागमभाग के खेल में अवसर पाकर देवीसिंह चाम्पावत और भी सरदारों को अपनी तरफ फोड़ता रहा।
एक दिन जब मरुधरानाथ आसोप में पड़ाव डाले हुए था, देवीसिंह चाम्पावत तथा उसके साथियों ने मरुधरानाथ को बंदी बनाने की भयानक योजना बनाई। खींवसर के ठाकुर जोरावरसिंह करमसोत को इस योजना की जानकारी हो गई। वह महाराजा का विश्वस्त सामंत था। उसने इस भयानक योजना की जानकारी महाराजा को दे दी जिससे महाराजा सावधान होकर बैठ गया और उसके डेरे का पहरा मजबूत कर दिया गया। इससे विरोधी सामंतों को अपना चक्कर चलाने का अवसर नहीं मिला।
इस षड़यंत्र के प्रकट हो जाने के बाद महाराजा अब इस स्थिति में नहीं रह गया था कि खानुजी के विरुद्ध किंचित् भी कार्यवाही कर सके। इसलिये उसने अपने कुछ अत्यंत विश्वस्त आदमियों को खानुजी जाधव से समझौता करने के लिये भेज दिया और स्वयं एक दिन अचानक जोधपुर की तरफ चल पड़ा। उसने खानुजी जाधव को डेढ़ लाख रुपये और महाराजा रामसिंह को जालौर और मेड़ता के परगने देकर फिर से समझौता कर लिया। विरोधी सामंत महाराजा को यूं हाथ से फिसला हुआ देखकर हाथ मलते ही रह गये।
जोधपुर की तरफ लौट रहे मरुधरानाथ को मार्ग में समाचार मिला कि पंचारिया बावरी बागोरिया की पहाड़ी पर उत्सव मना रहा है।