जाटों का अधिवास एवं प्रवृत्तियां
जाट एक अत्यंत प्राचीन भारतीय समुदाय है। यह प्रायः कृषि एवं पशुपालन से जुड़ा हुआ, सम्पन्न, परिश्रमी एवं जनजातीय विशेषताओं से युक्त समुदाय है जो उत्तर भारत के उपाजाऊ मैदानों एवं मध्य भारत के उपाजाऊ पठार में बड़ी संख्या में निवास करता आया है। महाभारत में सर्वप्रथम जाटतृक अथवा जर्तिका नामक जाति का उल्लेख होता है जो पंजाब में निवास करती थी, ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् हुई उथल-पुथल के बाद के किसी काल में जाट जाति ने पंजाब के उपजाऊ मैदानों से बाहर निकलकर दूर-दूर तक अपना विस्तार किया। उपजाऊ प्रदेशों में मुक्त रूप से कृषि एवं पशुपालन जैसे कठिन कार्य को करने के कारण तथा प्राचीन वैदिक सभ्यता का अनुसरण करने के कारण ही जाट जाति में सम्पन्नता एवं स्वातंत्र्य प्रियता सहज रूप से दिखाई पड़ती है। ऐसा भी माना जाता है कि जनमेजय के नागयज्ञ के बाद बचे हुए नाग इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से निकलकर नागपुर (महाराष्ट्र) तथा उसके नीचे तक फैल गये। यही कारण है कि दिल्ली, भरतपुर, धौलपुर, आगरा, मथुरा, मेरठ हिसार, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, बीकानेर, नागौर, जोधपुर तथा बाड़मेर आदि जिलों में बड़ी संख्या में जाट निवास करते हैं।
ब्रज क्षेत्र के जाटों का संघर्ष
गंगा-यमुना का दो-आब, दिल्ली के मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से सर्वाधिक उत्पीड़ित रहा। दिल्ली के सुल्तानों द्वारा अपनाई गई भू-राजस्व की अधिकाधिक वसूली की प्रवृत्ति ने दो-आब के किसानों पर भयानक अत्याचार किये। अनेक सुल्तानों ने मुसलमान किसानों से लगान नहीं लेने तथा हिन्दू किसानों से अत्यधिक भूराजस्व लेने की नीति अपनाई इस कारण हिन्दू किसानों में विद्रोही प्रवृत्ति का जन्म लेना स्वाभाविक ही था। दो-आब के सम्पन्न प्रदेश के निवासी होने के कारण इस क्षेत्र के किसान अत्यधिक स्वातंत्र्य-प्रिय भी थे, इस कारण इस क्षेत्र के किसानों ने दिल्ली सल्तनत की सेनाओं और राजस्व वसूलने वाले अधिकारियों का प्रतिरोध किया, परिणामतः इस क्षेत्र के किसानों पर अत्याचार भी अधिक परिमाण में हुए। बहुत से किसानों को प्रायः शाही सेनाओं के भय से, अपने खेत छोड़कर जंगलों में भाग जाना पड़ता था। शांति स्थापित होने पर ये किसान फिर से अपनी जमीनों पर लौट आते थे। बहुत से किसानों को सिपाहियों के हाथों मिली दर्दनाक एवं भयानक मृत्यु का सामना करना पड़ता था। फिर भी ब्रज क्षेत्र के जाट अपनी जमीनों पर अपना नियंत्रण बनाये रहे। इस कारण उनमें लड़ाकू प्रवृत्ति बनी रही। वे छोटे-छोटे समूहों में संगठित होकर आतताइयों का सामना करने लगे। मुस्लिम सेनाओं के विरुद्ध अपनाई गई यही लड़ाका प्रवृत्ति, जाटों के उत्थान के लिये वरदायिनी शक्ति सिद्ध हुई।
अकबर के समय में बयाना, बाड़ी, टोडाभीम, खानुआ तथा धौलपुर महाल, आगरा सूबे में स्थित आगरा सरकार के अधीन थे जबकि गोपालगढ़, नगर, पहाड़ी तथा कामां जयपुर रियासत के अधीन थे। रूपबास के आसपास उन दिनों विशाल जंगल खड़ा था जहाँ अकबर प्रायः शिकार खेलने आया करता था। इस क्षेत्र की शासन व्यवस्था औरंगजेब के समय तक वैसी ही चलती रही।
सत्रहवीं शताब्दी के आते-आते आगरा, मथुरा, कोयल (अलीगढ़), मेवात की पहाड़ियां तथा आमेर राज्य की सीमाओं से लेकर उत्तर में दिल्ली से 20 मील दूर मेरठ, होडल, पलवल तथा फरीदाबाद से लेकर दक्षिण में चम्बल नदी के तट के पार गोहद तक जाट जाति का खूब प्रसार हो गया। इस कारण यह विशाल क्षेत्र जटवाड़ा के नाम से प्रसिद्ध होने लगा। इस क्षेत्र पर नियंत्रण रख पाना शाहजहां के लिये भारी चुनौती का काम हो गया। शाहजहां के काल में जाटों को घोड़े की सवारी करने, बन्दूक रखने तथा दुर्ग बनाने पर प्रतिबंध था।
मुर्शीद कुली खां का वध
ई.1636 में शाहजहां ने ब्रजमण्डल के जाटों को कुचलने के लिये मुर्शीद कुली खां तुर्कमान को कामा, पहाड़ी, मथुरा और महाबन परगनों का फौजदार नियुक्त किया। उसने जाटों के साथ बड़ी नीचता का व्यवहार किया जिससे जाट मुर्शीद कुली खां के प्राणों के पीछे हाथ धोकर पड़ गये। हुआ यूं कि कृष्ण जन्माष्टमी को मथुरा के पास यमुना के पार गोवर्धन में हिन्दुओं का बड़ा भारी मेला लगता था। मुर्शीद कुली खां भी हिन्दुओं का छद्म वेश धारण करके सिर पर तिलक लगाकर और धोती बांधकर उस मेले में आ पहुंचा। उसके पीछे-पीछे उसके सिपाही चलने लगे। उस मेले में जितनी सुंदर स्त्रियां थीं, उन्हें छांट-छांटकर उसने अपने सिपाहियों के हवाले कर दिया। उसके सिपाही उन स्त्रियों को पकड़कर नाव में बैठा ले गये। उन स्त्रियों का क्या हुआ, किसी को पता नहीं लगा। उस समय तो मुर्शीद कुली खां से कोई कुछ नहीं कह सका किंतु कुछ दिन बाद ई.1638 में जाटवाड़ नामक स्थान पर (सम्भल के निकट) जाटों ने उसकी हत्या कर दी।
आम्बेर नरेश जयसिंह की नियुक्ति
इस पर शाहजहां ने जाटों को कुचलने के लिये आम्बेर नरेश जयसिंह को नियुक्त किया। जयसिंह ने सफलता पूर्वक जाटों का दमन किया और उनसे राजस्व वसूल किया। जयसिंह ने जाटों, मेवों तथा गूजरों का बड़ी संख्या में सफाया किया तथा अपने विश्वस्त राजपूत परिवार इस क्षेत्र में बसाये।
गोकुला का नेतृत्व
ई.1699 के आसपास जाट गोकुला के नेतृत्व में संगठित हुए। गोकुला तिलपत गांव का जमींदार था। औरंगजेब के अत्याचारों से तंग होकर वह महावन आ गया। उसने जाटों, मेवों, मीणों, अहीरों, गूजरों, नरूकों तथा पवारों को अपनी ओर मिला लिया तथा उन्हें इस बात के लिये उकसाया कि वे मुगलों को कर न दें। मुगल सेनापति अब्दुल नबी खां ने गोकुला पर आक्रमण किया। उस समय गोकुला’ सहोर गांव में था। जाटों ने अब्दुल नबी खां को मार डाला तथा मुगल सेना को लूट लिया। इसके बाद गोकुला ने सादाबाद गांव को जला दिया और उस क्षेत्र में भारी लूट-पाट की। अंत में औरंगजेब स्वयं मोर्चे पर आया और उसने जाटों को घेर लिया। जाटों की स्त्रियों ने जौहर किया तथा जाट वीर मुगलों पर टूट पड़े। हजारों हिन्दू मारे गये। गोकुला को हथकड़ियों में जकड़कर औरंगजेब के समक्ष ले जाया गया। औरंगजेब ने उससे कहा कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले। गोकुला ने इस्लाम मानने से मना कर दिया। इस पर औरंगजेब ने आगरा की कोतवाली के समक्ष गोकुला का एक-एक अंग कटवाकर फिंकवा दिया। पराजय, पीड़ा और अपमान का विष पीकर तिल-तिल मरता हुआ गोकुला अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिये विमल कीर्ति के अमल-धवल अमृत पथ पर चला गया।
राजाराम का नेतृत्व
इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर देने के कारण गोकुला को औरंगजेब के हाथों जिस प्रकार की दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु प्राप्त हुई थी, वैसी ही दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु औरंगजेब ने कई और लोगों को भी दी थी। इस कारण देश में चारों ओर मुगलों के विरुद्ध वातावरण बन गया। गोकुला के अंत से जाट बुरी तरह झल्ला गये। इस बार वे ब्रजराज, ब्रजराज के भाई भज्जासिंह तथा भज्जासिंह के पुत्र राजाराम के नेतृत्व में एकत्रित हुए। ब्रजराज मुगलों से युद्ध करता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु के कुछ समय बाद उसकी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम बदनसिंह रखा गया। आगे चलकर बदनसिंह भी जाटों का नेता बना। ब्रजराज का छोटा भाई भज्जासिंह एक साधारण किसान था। यह परिवार सिनसिनी गांव का रहने वाला था। भज्जासिंह का पुत्र राजाराम भी अपने बाप-दादों की तरह विद्रोही प्रवृत्ति का था। कहते हैं एक बार लालबेग नामक एक व्यक्ति मऊ का थानेदार था। उसने एक अहीर की स्त्री का बलात् शील भंग किया। जब यह बात राजाराम को ज्ञात हुई तो उसने लालबेग की हत्या कर दी। उसकी इस वीरता से प्रसन्न होकर जाट उसके पीछे हो लिये और राजाराम निर्विवाद रूप से उनका नेता बन गया। शीघ्र ही राजाराम ने मिट्टी के परकोटों से घिरी पक्की गढ़ैयां (छोटे दुर्ग) बनाने आरम्भ कर दिये। जब राजाराम की स्थिति काफी मजबूत हो गई तो उसने आगरा सूबे पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। इस पर औरंगजेब ने राजाराज को दिल्ली बुलवाया तथा मथुरा की सरदारी और 575 गांवों की जागीर प्रदान कर दी।
राजाराम ने अपनी जागीर अपने भाई-बंधुओं में बन्दूकची सवार की नियमित शर्त पर वितरित कर दी तथा इस प्रकार अपनी नियमित सेना खड़ी कर ली। औरंगजेब ने सोचा था कि जागीर प्राप्त करके राजाराम मुगलों के साथ हो जायेगा तथा जाटों को नियंत्रण में रखेगा किंतु राजाराम ने मुगलों की बिल्कुल भी परवाह नहीं की। इस कारण पूरे जाट क्षेत्र में जाटों ने सरकारी खजानों, व्यापारियों तथा सैनिक चौकियों को लूटना आरम्भ कर दिया। चारों ओर लुटेरे ही लुटेरे दिखाई देने लगे। आगरा और दिल्ली के बीच सरकारी माल तथा व्यापारियों का निकलना दुष्कर हो गया। इस लूटपाट से जाटों की गढ़ियां माल से भरने लगीं। इस पर औरंगजेब ने शफी खां को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों का दमन करने के लिये भेजा। राजाराम ने आगरा के दुर्ग पर चढ़ाई कर दी। शफी खां डरकर किले में बंद हो गया। राजाराम और उसके साथियों ने जी भरकर आगरा परगने को लूटा। इस पर औरंगजेब ने कोकलतास जफरजंग को आगरा भेजा किंतु वह भी राजाराम को दबाने में असफल रहा। ई.1687 में औरंगजेब ने अपने पोते शहजादा बेदार बख्त को विशाल सेना देकर जाटों के विरुद्ध भेजा। बेदार बख्त के आगरा पहुंचने से पहले ही मार्च 1688 के अंतिम सप्ताह में राजाराम ने रात्रि के समय सिकन्दरा स्थित अकबर की कब्र को घेर लिया। उसने अकबर की कब्र खुदवाकर उसकी हड्डियां आग में झौंक दीं तथा मकबरे की छत पर लगे सोने-चांदी के पतरों को उतार लिया। मकबरे के मुख्य द्वार पर लगे कांसे के किवाड़ों को तोड़ डाला। वहाँ से चलकर उसने मुगलों के गांवों को लूटा। खुर्जा परगना भी उसके द्वारा बुरी तरह से लूटा गया। पलवल का थानेदार गिरफ्तार कर लिया गया।
जब बेदार बख्त जाटों के विरुद्ध अप्रभावी सिद्ध हुआ तो औरंगजेब ने आम्बेर नरेश बिशनसिंह को जाटों के विरुद्ध भेजा। उसने राजाराम को युद्ध क्षेत्र में मार गिराया तथा उसका सिर काटकर औरंगजेब को भेज दिया। राजाराम का प्रबल सहायक रामचेहर भी इस युद्ध में पकड़ा गया। उसका सिर काटकर आगरा के किले के सामने लटका दिया गया। राजाराम के कटे हुए सिर को देखकर औरंगजेब ने बड़ा उत्सव मनाया। राजाराम की मृत्यु से भी औरंगजेब संतुष्ट नहीं हो सका। उसने राजा बिशनसिंह से कहा कि वह जाट जाति को ही समाप्त कर दे। बिशनसिंह जाटों का जन्मजात शत्रु था क्योंकि जाट उसके राज्य में लूटपाट किया करते थे। उसने जाटों के विरुद्ध भयानक अभियान चलाया जिसमें बहुत बड़ी संख्या में जाट मारे गये।
सिनसिनी के जाट
उन दिनों सिनसिनी दुर्ग जाटों की शक्ति का मुख्य केन्द्र था। सिनसिनी के अधीन केवल तीस गांव थे किंतु यह दुर्ग घने जंगल और दलदल से घिरा हुआ था। चारों ओर पैंघोर, कार्साट, सोगर, अबार, सौंख, रायसीस और सोंखरे-सोंखरी के छोटे दुर्ग बने हुए थे। इन्हें जीते बिना सिनसिनी तक पहुंचना सम्भव नहीं था।
ई.1688 में महाराजा बिशनसिंह ने सौंख गढ़ी पर घेरा डाला। उसे जीतने में चार महीने लग गये किंतु इसके बाद सिनसिनी तक पहुंचने का मार्ग खुल गया। बिशनसिंह के पास कच्छवाहों के अलावा मुगल सेना भी थी। उसने सिसिनी के चारों तरफ का जंगल कटवा डाला तथा 15 फरवरी 1690 को सिनसिनी पर अधिकार कर लिया। राजाराम का बेटा फतहसिंह और चूड़ामन किसी तरह जान बचाकर भाग गये। इस युद्ध में 900 मुगल सैनिक तथा 1500 जाट सैनिक मारे गये। इसके बाद 21 मई 1691 को बिशनसिंह ने सोघोर गढ़ैया को जा घेरा। उस दिन दुर्ग में धान पहुंचाया जा रहा था। इस कारण दुर्ग के द्वार खुले हुए थे। ठीक उसी समय बिशनसिंह ने वहाँ पहुंचकर दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया। जिसने भी हथियार उठाया, उसे वहीं मार डाला गया। दुर्ग में जीवित बचे 500 जाटों को बंदी बना लिया गया। सिनसिनी की पराजय के बाद जाटों में झगड़ा हुआ और राजाराम के पुत्र फतहसिंह को पराजय का जिम्मेदार ठहराया गया। जाटों ने फतहसिंह के स्थान पर राजाराम के छोटे भाई चूड़ामन को अपना नेता चुन लिया। ई.1704 में चूड़ामन ने सिनसिनी का दुर्ग पुनः जीत लिया किंतु ई.1705 में यह दुर्ग पुनः मुगलों के अधिकार में चला गया।
सिनसिनी के जाट शासक, अपना सम्बन्ध यदुवंशी राजा मदनपाल से बताते हैं। मदनपाल तजनपाल का तीसरा पुत्र था जो ग्यारहवीं शताब्दी में बयाना का शासक था और बाद में करौली राज्य का संस्थापक था। मदनपाल के वंशज बालचंद की एक स्त्री जाट जाति की थी। इस स्त्री से दो पुत्र हुए जिनमें से एक का नाम विजय तथा दूसरे का नाम सिजय रखा गया। इन दोनों लड़कों को क्षत्रिय न मानकर जाट माना गया। इन दोनों लड़के अपनी जाति सिनसिनवार लिखते थे क्योंकि उनके पैतृक गांव का नाम सिनसिनी था। सिनसिनी डीग से 13 किलोमीटर दूर दक्षिण में है। भरतपुर के जाट शासक अपना सम्बन्ध इन्हीं सिनसिनवारों से मानते हैं।
चूड़ामन का नेतृत्व
राजाराम की मृत्यु के बाद चूड़ामन जाटों का नेता बना। ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो जाने के बाद चूड़ामन ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली और बादशाह जहांदारशाह के हाथियों और खजाने को लूट लिया। उसने थूण दुर्ग में अपनी शक्ति एकत्रित की और शाही खजानों, व्यापारिक कारवों तथा अन्य लोगों को लूटने लगा।
औरंगजेब की मृत्यु होने पर उसके पुत्रों बहादुर शाह तथा आजमशाह में मुगलिया तख्त पर अधिकार को लेकर झगड़ा हुआ। दोनों पक्ष जाजऊ के मैदान में आमने-सामने लड़कर फैसला करने के लिये आ डटे। चूड़ामन ने भी अपनी सेनाएं, इन दोनों सेनाओं के पास ला टिकाईं। जब दोनों ओर से तोपें आग बरसा रही थीं तब लड़ाई के मैदान में अचानक अराजकता फैल गई और आजमशाह के सेनापति आत्म समर्पण करके बहादुरशाह की ओर जाने लगे। अतः चूड़ामन आजमशाह के शिविर पर टूट पड़ा और उसमें लूटमार करने लगा। थोड़ी देर में बहादुरशाह के तम्बू में आग लग गई और वहाँ भी अफरा-तफरी मच गई। इस पर चूड़ामन आजमशाह के शिविर को छोड़कर बहादुरशाह के शिविर पर टूट पड़ा और पराजित छावनी को बुरी तरह लूटा। इस प्रकार चूड़ामन ने दोनों पक्षों की हार-जीत से कोई मतलब न रखकर, उन्हें निष्पक्ष होकर लूटा। इस युद्ध में बहादुरशाह की जीत हुई। अतः चूड़ामन ने बहादुरशाह से मित्रता कर ली। बादशाह ने चूड़ामन को 1500 जात और 500 सवारों का मनसबदार बनाया। इस प्रकार चूड़ामन लुटेरा न रहकर मुगलों का मनसबदार बन गया।
ई.1712 में जहांदारशाह मुगलों के तख्त पर बैठा। उसने चूड़ामन की मनसब समाप्त कर दी किंतु जब फर्रूखसीयर सिर उठाने लगा तो जहांदारशाह ने चूड़ामन को बुलाकर फिर से पुराना मनसब सौंप दिया। जब जहांदारशाह और फर्रूखसीयर की सेनाएं लड़ रही थीं तब चूड़ामन, जहांदारशाह की ओर से लड़ने के लिये युद्ध के मैदान में पहुंचा। जैसे ही जहांदारशाह की सेना भारी पड़ने लगी, चूड़ामन और उसके सैनिक लड़ाई करना छोड़कर फर्रूखसीयर का शिविर लूटने में लग गये। इससे फर्रूखसीयर को मौका मिल गया और उसने जहांदारशाह को परास्त कर दिया। जब फर्रूखसीयर दिल्ली के तख्त पर बैठा तब चूड़ामन उसके दरबार में उपस्थित हुआ ओर बादशाह को इक्कीस मोहरें तथा दो घोड़े प्रदान किये। बादशाह फर्रूखसीयर ने उसे राव बहादुर की उपाधि दी, एक हाथी दिया तथा मनसब का दर्जा बढ़ा दिया। साथ ही दिल्ली से चम्बल तक की राहदारी भी उसे सौंपी गई। चूड़ामन के राहदार के पद पर टिप्पणी करते हुए कानूनगो ने लिखा है- ‘एक भेड़िये को भेड़ों के झुण्ड का रक्षक बना दिया गया।’
चूड़ामन ने इतनी कठोरता से राहदारी वसूलनी आरम्भ की कि चारों ओर हा-हाकार मच गया। उसने थूण परगने के प्रत्येक मनसबदार तथा जागीरदार से दो रुपया प्रति मनसबदार तथा जमींदार से नजराना वसूलना आरम्भ कर दिया। अब वह जागीरदारों के मामलों में बेखटके हस्तक्षेप करने लगा। उसकी टोलियों ने मथुरा और सीकरी के परगनों के गांवों को लूटना आरम्भ कर दिया। चूड़ामन ने गुप्त रूप से अस्त्र-शस्त्र बनवाये और गढ़ियों को मजबूत कर लिया।
सवाई जयसिंह की नियुक्ति
जब चूड़ामन का आतंक बढ़ गया तब बादशाह फर्रूखसीयर ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह को विपुल धन एवं विशाल सेना देकर चूड़ामन के विरुद्ध भेजा। चूड़ामन बीस वर्ष की खाद्य सामग्री एकत्र करके थूण के दुर्ग में बंद हो गया। जब सवाई जयसिंह, कोटा के महाराव भीमसिंह तथा बूंदी के महाराव बुधसिंह को लेकर थूण के निकट पहुंचा तो चूड़ामन में दुर्ग में स्थित व्यापारियों से कहा कि वे अपना धन एवं सामग्री किले में छोड़कर किले से बाहर चले जायें। यदि युद्ध के बाद वह जीता तो उनके सामान की भरपाई कर देगा। व्यापारी बुरी तरह लुट-पिटकर किले से बाहर निकल गये।
कच्छवाहा राजा सवाई जयसिंह, हाड़ा राजा महाराव भीमसिंह तथा हाड़ा राजा महाराव बुधसिंह की सेनाएं सात माह तक थूण का दुर्ग घेरे रहीं किंतु चूड़ामन को किले से बाहर नहीं निकाल सकीं। इस पर मुगल साम्राज्य की पूरी ताकत थूण के विरुद्ध झौंक दी गई तथा थूण के चारों ओर का जंगल काटकर साफ कर दिया गया। इस प्रकार दो वर्ष बीत गये और इस अभियान पर मुगल बादशाह के दो करोड़ रुपये खर्च हो गये। अंत में ई.1718 में दोनों पक्षों (जाटों और मुगलों) में समझौता हुआ। इस समझौते से महारा जयसिंह को दूर रखा गया। इस समझौते के अनुसार चूड़ामन को क्षमा कर दिया गया और उसे अनी पत्नी, पुत्र तथा भतीजों सहित मुगल दरबार में उपस्थित होने के लिये कहा गया। डीग तथा थूण के किलों को नष्ट करने की आज्ञा दी गई और चूड़ामन को मुगलों की नौकरी में रख लिया गया।
जब कुछ समय बाद फर्रूखसीयर को गद्दी से उतारा गया तो चूड़ामन ने सैयद बंधुओं का साथ दिया। जब सैयद बंधुओं ने बादशाह का महल घेर लिया तब किले तथा महल की सारी चाबियां चूड़ामन ने ले लीं ओर बादशाह को अंधा करके कैद में डाल दिया गया। फर्रूखसीयर के बाद रफीउद्दरजात को तख्त पर बैठाया गया। इस पर शहजादे नेकूसीयर ने विद्रोह कर दिया। इस पर चूड़ामन नेकूसीयर के पास गया और उसने गंगाजल हाथ में उठाकर कसम खाई कि नेकूसीयर को सुरक्षित रूप से जयपुर नरेश के राज्य में पहुंचा देगा। नेकूसीयर पचास लाख रुपये तथा अपने भतीजे मिर्जा असगरी को साथ लेकर चूड़ामन के साथ चल पड़ा। चूड़ामन ने नेकूसीयर को तो रफीउद्दरजात को सौंप दिया तथा रुपये अपने पास रख लिये।
इस प्रकार चूड़ामन ने अन्य कई अवसरों पर भी बहुत से व्यक्तियों के साथ विश्वासघात किया तथा उन्हें लूट-खसोट कर दुर्भाग्य के हवाले कर दिया। उसने जाटों के विख्यात नेता एवं अपने भतीजे बदनसिंह को बंदी बना लिया। चूड़ामन के इस कुकृत्य से समस्त जाट, चूड़ामन से नाराज हो गये और वे चूड़ामन का साथ छोड़कर बदनसिंह के साथ हो लिये। चूड़ामन के लड़के चूड़ामन से भी अधिक धूर्त्त निकले। उसके पुत्र मोहकमसिंह ने अपने किसी सम्बन्धी की काफी बड़ी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। इस सम्पत्ति में चूड़ामन के दूसरे पुत्र जुलकरण ने भी हिस्सा मांगा। इस बात पर दोनों भाइयों में झगड़ा हो गया तथा दोनों एक दूसरे को मारने के लिये तैयार हो गये। इस पर चूड़ामन ने मोहकमसिंह से कहा कि वह जुलकरण को कुछ सम्पत्ति दे दे। इस पर मोहकमसिंह चूड़ामन को भी मारने के लिये तैयार हो गया। इस पर चूड़ामन ने दुःखी होकर जहर खा लिया।
मोहकमसिंह का नेतृत्व
चूड़ामन के मरते ही मोहकमसिंह ने स्वयं को जाटों का नेता घोषित कर दिया और स्वर्गीय ब्रजराज के पुत्र बदनसिंह को बंदी बनाकर खोह नामक स्थान पर कारागार में डाल दिया। बाद में जाटों ने मोहकमसिंह के गुरु माखनदास बैरागी से कहकर बदनसिंह को छुड़वाया। बदनसिंह जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के पास चला गया। मोहकमसिंह ने मुगल बादशाह को भी अपने विरुद्ध कर लिया। इससे जयसिंह ने मोहकमसिंह को थूण के किले में जा घेरा। मोहकमसिंह प्रबल शत्रु को सम्मुख आया देखकर स्वयं ही गढ़ी में बारूदी सुरंगें बिछाकर और उनमें पलीता दिखाकर गढ़ से भाग गया। बदनसिंह के माध्यम से जयसिंह को इस बात का पता लग गया। अतः महाराजा सवाई जयसिंह, थूण गढ़ से दूर चला गया और उसके प्राण बच गये।